★कोरोजीवी कविता // कोरोजयी कविता★
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कोरोजीवी कविता नए इतिहास विवेक की कविता है -प्रो.श्रीप्रकाश शुक्ल
के.एल.पचौरी प्रकाशन,नई दिल्ली द्वारा उसके आमुख पटल पर हिंदी के ख्यात कवि और बीएचयू,हिंदी विभाग के आचार्य प्रो.श्रीप्रकाश शुक्ल का एकल व्याख्यान 'कोरोजीवी कविता: प्रक्रिया और पाठ' विषय पर संपन्न हुआ ।
इस अवसर पर बोलते हुए प्रो श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा कि इस दौर की कविता को 'कोरोजीवी' कविता कहना उचित होगा क्योंकि कोरोजीवी कविता ने दुनियाभर में साहित्य की भाषा को बदल दिया है।आज कोरोना की महामारी में निजी अनुभूति सार्वजनिक हो गयी है जहां भय, निर्वासन और मुत्यु की यन्त्रणादायक स्थितियों से हम रोज गुजरते हैं जिनसे आज के समय में हमारा संबंध तय होता है।
उन्होंने आगे कहा कि ऐसे समय में जहां मीडिया व व्यवस्था सिर्फ़ आंकड़ों तक सीमित हो गई है,कविता व साहित्य ने इन आकड़ो को ध्वस्त करते हुए अपनी एक भाषा रची है जिसमें समाज की संवेदनशीलता को जगह मिलती है।आज की कविता दृश्य- परिदृश् में बदलाव के साथ अपने भाषाई सामर्थ्य व सामाजिक अर्थवक्ता से जुड़ गई है ।
प्रो शुक्ल ने आगे कहा कि कोरोजीवी कविता जीवन जीने का एक विकल्प दे रही है जो कथ्य में व्यक्त हो रही है और संरचना में बदल रही है ।उनके अनुसार आज की हिंदी कविता प्रसिद्ध फ्रांसीसी उपन्यासकार अल्बेर कामू के 'प्लेग' उपन्यास के प्रमुख नायक डॉ.रियो की भूमिका में दिखाई देती है जो उदासीनता का निषेध करने के साथ, दहशत पैदा करने वालों का भी निषेध करती है।
प्रो शुक्ल के अनुसार,कोरोजीवी कविता का महत्व इस कारण नहीं है कि वह महामारी के बीच लिखी जा रही है बल्कि इस कारण है कि यह महामारी के बावजूद लिखी जा रही है जिसमें युगबोध की उपस्थिति के साथ इतिहास बोध की नई अंतर्दृष्टि भी है । किसी भी समय विशेष की कविता की विशेषताओं में एक प्रमुख विशेषता यह होती है कि उस समय की कविता अपने परिवेश के भीतर कैसे विकसित होते हुए एक नई दृष्टि और चेतना के निर्माण में सहायक होती है ।कोरोना के समय में कविता ने अपने को कैसे विकसित किया यह जानना जरूरी है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि कोरोजीवी कविता एक नई दृष्टि और चेतना को लिए हुए है जो बहुत ही महत्वपूर्ण है,क्योंकि यह मात्र आपदा को अवसर में नहीं बदलती बल्कि यह आपदा के आंतरिक मर्म को उद्घाटित करती हुई आगे बढ़ी है ।उनके अनुसार , ऐसे समय में जो अवसरवादी सक्रिय हैं,वे जनता के साथ छल कर रहे हैं ,मुनाफा खोरी कर रहे हैं ,ठग विद्या को विकसित कर रहे हैं। ऐसे में हिंदी कविता उस छल के समक्ष मनुष्य को बल और संबल प्रदान करती है ।
आगे आपने कहा कि 90 के बाद का दशक श्रम का शोषण करता रहा जिसके भीतर से यह महामारी विकसित हुई है।उन्होंने इसे पूंजीवादी विकृतियों की देन मानते कहा कि आज की हिंदी कविता इसी पूंजीवाद के विकृतियों को ध्वस्त करती है।उनके अनुसार,कोरोजीविता कविता में परिवेश के प्रति एक संवेदनशील व्यवहार मिलता है जिससे कविता कोरोजई हो सकती है।
उनके अनुसार,कोरोजीवी कविता ने संप्रदायगत सजगता की जगह इतिहास विवेक पैदा किया।साथ ही हमें सजग किया कि हम जिस भूगोल पर चल रहे थे उस पर हमारा ध्यान बने रहना चाहिए। कविता को उन्होंने आंतरिक लय के दायरे में लोकोन्मुखी मानते हुए कहा कि यह कोरोजीविता ही कविता की कोरोजयिता का प्रमुख आधार है ।
इस अवसर पर उन्होंने मदन कश्यप,अरुण कमल,सुभाष राय,संजय कुंदन,विनय कुमार,यतीश कुमार,सोनी पांडेय,रश्मि भारद्वाज,पूनम विश्व कर्मा,अमरजीत राम,संदीप तिवारी,शैलेन्द्र शुक्ल से लेकर बिल्कुल नवांकुर कवि गोलेन्द्र पटेल की कविताओं के संदर्भ से अपनी स्थापनाओं को पुष्ट भी किया।
उनके अनुसार ईश्वर की अलौकिकता से अधिक मनुष्य की आंतरिक शक्ति में बढ़ता हुआ आत्म विश्वास इस कोरोजीवी कविता का एक प्रमुख लक्षण बनकर उभरा है जहां मानव अस्तित्व के लिए गहरी चिंता व्यक्त होती है और अंधकार पर प्रकाश के विजय का संकल्प दिखाई देता है।
(प्रस्तुति:रंजना गुप्ता)
कोरोना समय में रची गई कविताओं पर लोगों ने अपनी तरह से प्रतिक्रियाएं दी हैं| कई ने, जिन्हें न तो समस्याओं में उलझे समाज से कुछ लेना-देना था और न ही तो समय की क्रूरता से, कवि की भूमिका और कविताओं की प्रासंगिकता पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया| कवि ने अपनी भूमिका का निर्वहन जिस तरीके से किया है और जिस तरह से कविताओं ने संघर्ष की भूमि को उर्वर बनाने का श्रम किया है, वह बिलकुल नजरअंदाज नहीं किया जा सकता|
लखनऊ से प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचार पत्र जनसंदेश टाइम्स में एक लेख प्रकाशित हुआ है| यह लेख कोरोना समय में लिखी गयी श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं पर आधारित है| इसे प्रकाशित करने के लिए जनसन्देश टाइम्स का हृदय से आभार और सुभाष राय सर का, जो स्वयं एक अच्छे कवि हैं और जिन्होंने कोरोना समय में जिम्मेदार कविताओं का सृजन की है, हृदय से आभार| तो आइये यह लेख पढ़ते हैं और कविता की जिम्मेदारी को पहचानते हैं-
आस्थाओं के फड़फड़ाने का दौर
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इस कोरोना समय में सबसे अधिक आरोपों का सामना यदि किसी विधा ने किया है तो वह कविता है| विरोध करने वालों के अपने-अपने कारण और अपनी-अपनी राजनीति होती है| यदि मुझे कहना हो तो मैं कहूँगा कि सबसे अधिक जिम्मेदारी जिस विधा ने निभाई वह कविता है| राजनीति लोगों की हो सकती है कविता की नहीं| कविता कवि-नीति से निभती है जिसका एकमात्र उद्देश्य होता है जन-जीवन की खुशहाली और समृद्धि| कवि निःस्वार्थ भाव से इसी दायरे में रहकर श्रम करता है|
कोरोना समय में रचित श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं में भूख है, भय है, त्रासदी है, प्रकृति है| आगत भविष्य के प्रति कुछ आशंकाएं हैं तो स्पष्टता भी है| अपनी कविताओं में कवि समस्याओं पर बयानबाजी नहीं करता अपितु यथार्थ स्थिति को उठाकर एकदम सामने रख देता है| मजबूर और बेबस लोगों का ‘तप्त सड़कों’ पर नंगे पाँव चलना, ‘अटैची पर अटा पड़ा’ बच्चे को लाचार माँ द्वारा खीचकर घर की तरफ वापसी करना, अपनों के इन्तजार में अपनों का वेबस होना, सुखी और सम्पन्न लोगों के अन्दर अधिक डर का होना, ये सारे के सारे ऐसे दृश्य हैं जो कवि के हृदय को चीर कर निकले हुए हैं| चीर कर निकलना कोई सरल मुहावरा नहीं है| कितना दुखी हुआ होगा कवि इन दृश्यों को देखकर यह सोचना सहज है कविताओं का सामना करना बहुत मुश्किल है| मुश्किल इसलिए है कि सुख के दृश्य आदमी बार-बार देखना चाहता है जबकि दुःख जिस तरह झेलना नहीं चाहता उसी तरह देखना भी नहीं चाहता| इस मायने में श्रीप्रकाश शुक्ल ने एक जाग्रत कवि का परिचय दिया है|
इस कोरोना समय में सभी डरे हुए हैं| जो जितना शक्तिशाली है या सम्पन्न है वह उतना डरा हुआ है और जो जितना ‘निर्बल’ है या अभावों से घिरा है भयमुक्त है| ‘डर’ का अपना समाजशास्त्र होता है यह कवि ने ‘डर’ कविता में बताना चाहा है| इधर की स्थितियों को देखते हुए यह तो स्पष्ट हो ही गया कि “बहुत ताकत बहुत डर पैदा करती है/ जो बहुत ताकतवर होता है/ डरा होता है!” यह साधारण सी बात है कि “बहुत ताकत का होना असल में/ बहुत के शोषण से संभव होता है/ और यह शोषण ही बहुत ताकत के तकिए के नीचे दबा होता है/ जो डराता रहता हैं” और डरे हुए लोग भयाक्रांत होकर इधर छिपते फिर रहे हैं|
वैसे हुआ यह पहली बार है जब शोषण करने वाले आपदा की गिरफ्त में हैं अन्यथा तो शोषित ही समस्याओं के हत्थे चढ़ता था| कवि डर कर घर में बैठने के लिए नहीं है| वह सामाजिक गतिविधि पर बराबर नज़र रखे हुए है| गतिविधियाँ बिलकुल सामान्य नहीं हैं| चारों तरफ अफरा-तफरी मची हुई है| इतनी कि ‘इंतजार’ के निमित्त “एक दृश्य देखता हूँ/ दूसरा उछलने लगता है/ एक आंसू पोछता हूँ/ अनेक टपकने लगते हैं|” सहज मन भी अशांत होकर ऊंघता है और एक घर से अनेक घरों को जाने-आने वाले के इंतजार में घुट-घुटकर जीता है, ऊंघता है| ऐसे परिदृश्य में वर्तमान रहते हुए “हाय कैसे कहूँ कि हर क्षण एक बीतता हुआ क्षण है/ और जो बीत रहा है/ वह किसी अनबीते का महज़ इंतज़ार लगता है/ जिसमें सीझती हुई करुणा/ गुजरते समय की उदासी बन/ कंठ में अटक सी गई है!” न तो कुछ बोला जा रहा है और न ही तो कुछ समझा और समझाया जा रहा है|
इसी कविता के माध्यम से कवि यह भी देखता है कि तमाम राहों के तमाम अटके-भटके लोग, बच्चे नहीं पहुँच पा रहे हैं जिनके वियोग में “दूर बहुत दूर कोई मां रो रही है/ अर्थ तो बचा नहीं/ भाषा भी खो रही है|” दुःख से भाव और भाव से भाषा की विकृति का होना सामाजिक प्रक्रिया का क्षीण होना है| माँ की जिन आँखों को सुख-सुविधा हेतु सांत्वना देकर एक बालक दूर-देश में गया होता है वही बालक सब कुछ गंवाकर पुनः उसी माँ के पास ‘लौटना’ चाहता है| कभी केदारनाथ सिंह ने कहा था ‘जाना सबसे खतरनाक क्रिया है’ लेकिन मजदूरों, मजबूरों और महानगरों से ठुकराए गए लोगों को ‘तप्त सड़कों’ पर नंगे पांव चलते, भागते और आते हुए देखकर कवि कहता है “जाना नहीं रही अब एक ख़तरनाक क्रिया/ नई सदी में लौटने की यह क्रिया/ जाने से कहीं अधिक ख़ौफ़नाक है!” इस अर्थ में कि-
भूख तो बड़ी थी लेकिन उन्हें सिर्फ पहुंचना था
उन तक पहुंचाए गए सारे आश्वासन अब तक बेकार हो चुके थे/ अनुशासन के नाम पर/ उनके पास अब सिर्फ एक जिद बची थी/ कि उन्हें घर पहुंचना है
उनकी जिद व घर के बीच एक गहरा तनाव था/ जिसमें घर लगातार निथर रहा था!
मुश्किलें विकराल हो रही थीं/ जिनके समाधान के लिये वे घर पहुंचना चाह रहे थे/ मानों ख़ैर ख्वाह यह घर/ उनके ख़ैर -मकदम के लिए वर्षों से खड़ा हो!
उनकी जिद लगातार बड़ी हो रही थी/ और इस जिद में बड़ी हो रही थीं उनकी उम्मीदें/ जिसे अब एक घर से ही संभव होना था
कितना ताकतवर था यह 'पहुंचना' कि/ एक पथियाई पथरीली जमीन पर कभी सायकिल से तो कभी पैदल चलते/ ठंडे पानी की तरह बह रहा था उनके भीतर/ जिससे लौटने से अधिक पहुंच पाना संभव हो रहा था
‘बाहर’ होना बेघर होना है| यह पहली बार लोगों को एहसास हुआ कि ‘घर’ सही अर्थों में ‘घर’ है जहाँ पहुँचना मात्र, अपनों द्वारा संरक्षित और सुरक्षित होना है| दूर प्रदेशों से घर की तरफ लौटना सही अर्थों में लौटना नहीं पहुँचना है| यहाँ उत्कंठा है, उत्साह है, डर है, भय है और इन सभी से निजात तभी मिलेगी जब वह घर पहुंचेगा| “घर लौटने से अधिक पहुंचने के लिए होता है/ यह तब पता चला जब वे तप्त सड़कों पर/ संतप्त भाव से लौट रहे थे/ और अपनी पुरानी स्मृतियों को सहलाते/ नंगे पांव उस सड़क पर दौड़ रहे थे/ जिससे कभी वे गए थे|” जाने और आने के बीच की जो त्रासदी है वह हमें हतप्रभ करती है| इसलिए भी कि जो जिस हाल में है, भाग रहा है कि भगाया जा रहा है बस उसी हाल में चला आ रहा है| कवि की ‘बच्चा’ कविता एकदम से द्रवित कर देती है जिसमें एक बच्चे को हेतु बनाकर माँ की ममता, बच्चे की दयनीयता और एक हद तक सभी राही-बटोही की बेबसी के साथ-साथ जीवन-संघर्ष को शब्द-चित्र में पिरो दिया है कवि ने| कवि देखता है कि “सड़क पर अटैची है/ और अटैची पर अटा पड़ा एक बच्चा/ जो पहियों के बल सरक रहा है/ बच्चा डोरी से बंधा है/ जिसे मां एक टांग से खींच रही है/ अपनी दूसरी टांग से सड़क को नापती/ बच्चा मां की मदद कर रहा है/ वह चुप्प है/ कि ओह!/ सब कुछ घुप्प है!”
उन तक पहुंचाए गए सारे आश्वासन अब तक बेकार हो चुके थे/ अनुशासन के नाम पर/ उनके पास अब सिर्फ एक जिद बची थी/ कि उन्हें घर पहुंचना है
उनकी जिद व घर के बीच एक गहरा तनाव था/ जिसमें घर लगातार निथर रहा था!
मुश्किलें विकराल हो रही थीं/ जिनके समाधान के लिये वे घर पहुंचना चाह रहे थे/ मानों ख़ैर ख्वाह यह घर/ उनके ख़ैर -मकदम के लिए वर्षों से खड़ा हो!
उनकी जिद लगातार बड़ी हो रही थी/ और इस जिद में बड़ी हो रही थीं उनकी उम्मीदें/ जिसे अब एक घर से ही संभव होना था
कितना ताकतवर था यह 'पहुंचना' कि/ एक पथियाई पथरीली जमीन पर कभी सायकिल से तो कभी पैदल चलते/ ठंडे पानी की तरह बह रहा था उनके भीतर/ जिससे लौटने से अधिक पहुंच पाना संभव हो रहा था
‘बाहर’ होना बेघर होना है| यह पहली बार लोगों को एहसास हुआ कि ‘घर’ सही अर्थों में ‘घर’ है जहाँ पहुँचना मात्र, अपनों द्वारा संरक्षित और सुरक्षित होना है| दूर प्रदेशों से घर की तरफ लौटना सही अर्थों में लौटना नहीं पहुँचना है| यहाँ उत्कंठा है, उत्साह है, डर है, भय है और इन सभी से निजात तभी मिलेगी जब वह घर पहुंचेगा| “घर लौटने से अधिक पहुंचने के लिए होता है/ यह तब पता चला जब वे तप्त सड़कों पर/ संतप्त भाव से लौट रहे थे/ और अपनी पुरानी स्मृतियों को सहलाते/ नंगे पांव उस सड़क पर दौड़ रहे थे/ जिससे कभी वे गए थे|” जाने और आने के बीच की जो त्रासदी है वह हमें हतप्रभ करती है| इसलिए भी कि जो जिस हाल में है, भाग रहा है कि भगाया जा रहा है बस उसी हाल में चला आ रहा है| कवि की ‘बच्चा’ कविता एकदम से द्रवित कर देती है जिसमें एक बच्चे को हेतु बनाकर माँ की ममता, बच्चे की दयनीयता और एक हद तक सभी राही-बटोही की बेबसी के साथ-साथ जीवन-संघर्ष को शब्द-चित्र में पिरो दिया है कवि ने| कवि देखता है कि “सड़क पर अटैची है/ और अटैची पर अटा पड़ा एक बच्चा/ जो पहियों के बल सरक रहा है/ बच्चा डोरी से बंधा है/ जिसे मां एक टांग से खींच रही है/ अपनी दूसरी टांग से सड़क को नापती/ बच्चा मां की मदद कर रहा है/ वह चुप्प है/ कि ओह!/ सब कुछ घुप्प है!”
सडकें शांत हैं, लोग गायब हैं| हर तरफ नीरवता है| ‘घुप्प’ शब्द अपनी अर्थवत्ता लिए होता है| सही अर्थों में कोरोना काल की “यह लगातार बड़ी होती जाती एक खबर है/ कि जेठ की इस तपती दोपहरी में/ सड़क के ठीक बीचो बीच एक बच्चा शांत है/ और मां की गर्दन की तरह सड़क को/ दोनों हाथ से जकड़ रखा है|” पूरा देश देख रहा है इस दृश्य को| आह-वाह की प्रक्रिया चल रही है| न्यूज चैनल बहस कर रहे हैं| विद्वान डिबेट का हिस्सा बने हुए हैं| दिल्ली का मुख्यमंत्री सुविधाओं का ऐलान कर रहा है| कांग्रेस बस चलवा रही है और भाजपा उसे रोक रही है| इस बीच उसी गति में “बच्चा चला जा रहा है/ और चली जा रही है यह माँ भी/ जिसके साथ लटक गई है यह कविता/ न तो माँ को पता है/ न ही इस कविता को/ कि इनको किस पते पर जाना है!” यहाँ कवि उसी दर्द से तड़प रहा है जिस दर्द से माँ अपने बच्चे के लिए व्याकुल है| यह पूरे कोरोना काल का सबसे भयावह दृश्य है और कवियों की भीड़ में पहली कविता| माँ की वेबसी में बच्चे की भूख जैसे गायब हो जाती है उसी तरह सृजन की अनिवार्यता में कवि के आँखों की नींद गायब हो जाती है|
कवि यह देखकर हैरान है कि जिस देश में अभी भी ‘रोटी’ एक स्थाई समस्या है उसी देश में ‘आत्मनिर्भर’ बनने का मंत्र दिया जा रहा है| यहाँ ‘रोटी’ बनने की प्रक्रिया से लेकर बिखरने और अपदस्थ किए जाने तक की स्थिति को जिस गंभीरता से वह रखता है हमें ठहरकर सोचने के लिए विवश होना पड़ता है| कवि देखता है कि “रोटी बन रही है/ अनेक के इंतज़ार में/ लोई पड़ी है/ लोई से रोटी बनने के बीच एक जगह है/ जहां उम्मीद है/ रोटी रोज़ ही इस उम्मीद के साथ निकलती हैं/ लेकिन हलक़ के नीचे उतरने से पहले ही/ बिखर जाती है|” रोटी का बिखरना आम आदमी की इच्छाओं और अभिलाषाओं का बिखरना है| यहाँ यह समझना जरूरी है कि ‘रोटी’ बनने और ‘आत्मनिर्भर’ होने के बीच ही ‘उम्मीद’ है जिस पर यह पूरा देश निर्भर है और यदि स्पष्टतः कहें तो जिन्दा है| जहाँ तक सवाल ‘हलक के नीचे उतरने’ का है तो जो सदियों से भूखे और नंगे रहते आए हैं फिलहाल ‘उम्मीद’ जैसी स्थितियां उनके लिए भयानक स्वप्न हैं| कवि मानता है कि इस देश में “रोटी का बिखरना/ नहीं है कोई घटना/ जनता अभी भी सड़क पर है/ और उसके पलट प्रवाह के बीच/ देश आत्म निर्भर हो रहा है/ आत्म निर्भर होता देश अब/ रोटियों से आगे निकल चुका है!” अब यह कौन समझाए कि जो जनता सड़कों पर है वह आत्मनिर्भर बनने के लिए ही निकली थी, लेकिन ‘रोटी’ के अभाव ने उसे फिर सड़कों पर लाकर छोड़ दिया| जिस भूख को बार-बार अपदस्थ किया जा रहा है वही भूख जब इस देश की स्थाई समस्या है तो कोई कैसे आत्मनिर्भर हो सकता है?
आत्मनिर्भर तो प्रकृति हो सकती है| सबको अशांत करके स्वयं शांति का उदाहरण रखती है| मुरझाए रहते हैं सब तो वह खिलखिलाकर हंसती है| जैसे मनुष्य प्रकृति को अशांत करके खिलखिलाता है| ‘गुलमोहर’ कविता में कवि-दृष्टि की यह गंभीरता देखिये-
धूप खड़ी है/ हवा स्तब्ध है
जेठ की धरती पपड़िया गई है/ पगडंडियां चिलचिला रही हैं
सड़क सुनसान है/ और आदमी अपनी ही छाया में कैद है
एक ज़हर है/ जिसमें पूरी बस्ती नीली हो गई है
बस बचा है केवल गुलमोहर/ जो अपने चटक लाल रंगों में/ अभी भी खिलखिला रहा है!”
धूप खड़ी है/ हवा स्तब्ध है
जेठ की धरती पपड़िया गई है/ पगडंडियां चिलचिला रही हैं
सड़क सुनसान है/ और आदमी अपनी ही छाया में कैद है
एक ज़हर है/ जिसमें पूरी बस्ती नीली हो गई है
बस बचा है केवल गुलमोहर/ जो अपने चटक लाल रंगों में/ अभी भी खिलखिला रहा है!”
सब त्रासद स्थिति में फंसे हुए हैं तो ‘गुलमोहर’ ‘अपने चटक लाल रंगों में अभी भी खिलखिला रहा है|’ होना तो यह चाहिए था कि सबके दुःख में दुखी होकर इसके चटकपन में कमी आ जाती लेकिन नहीं आई| सबके विपद के दिन इसके लिए उत्सव के लगे| ठीक हमारे समय के तथाकथित कवियों और विद्वानों की तरह| इन्हें और गुलमोहर को देखते हुए ऐसा लगता है जैसे, यह समय आपदा का समय ही नहीं लोभ-वृत्ति को साधने और अंखुवाए लालची स्वभाव के पुष्पित और पल्लवित होने का भी समय है| यह समय एक हद तक साहित्य का ऐसा विदूषक समय बनता दिखाई दे रहा हा जहाँ सभी ज्ञानी और सभी कवि की भूमिका में हैं| इस तरह से लाइव और वाच पार्टी के मोहजाल में फंसकर ‘व्यस्त’ हैं जैसे यदि वे नहीं लाइव आएँगे तो देश का बहुत अहित हो जाएगा| अधिकांश संख्या उन्हीं की है जो अभी तक साहित्यिक दुनिया में ‘फोकस के बाहर’ रहे| ऐसे वक्ता-प्रवक्ता-कवि-साहित्यकार कवि को दिखाई देते हैं जो कोरोना जैसी भयंकर आपदा को ‘अवसर’ के रूप में भुना रहे हैं| दरअसल वे जानते हैं ये कि जितने गुण हैं उन्हें दिखाने का यह उपयुक्त समय है, बाद में तो कोई पूछता नहीं| ऐसे लोगों की सक्रियता को कवि “विकल काल का विमल महोत्सव” कहता है, जहाँ “लिखना कम है दिखना ज्यादा/ सिझना कम है खिझना ज्यादा/ भिदना कम है छिदना ज्यादा/ सिट पिट कम है गिट पिट ज्यादा|” यहाँ सिट पिट का अर्थ है चमत्कृत करती ध्वनि और गिट पिट का अर्थ है उलझी हुई ध्वनि| एक तरफ तो चमत्कृत करने की लालसा है और दूसरी तरफ कुछ स्पष्ट न कर पाने की वेबसी| इन सबको मिलाकर स्वभावतः ‘दिखना’ और ‘खिझना’ ही उनके अब तक के जीवन की प्रमुख दिनचर्या रही है|
श्रीप्रकाश शुक्ल के कवि-दृष्टि की एक खाशियत यह भी है कि वे अपने समय के सभी प्रश्नों पर चौकन्ने रहते हैं| समय जब परिवर्तित होता है तो बहुत कुछ बदल कर रख देता है| कई नई धारणाएँ जन्म लेती हैं तो कई टूटती भी हैं| यहाँ सारी-की-सारी स्थापनाएं धरी रह जाती हैं और जिज्ञासु मन वेबस होकर उलझ जाता है| कवि ‘उत्तर - कोरोना...(आत्माएं होंगी,आत्मीयता न होगी!)’ कविता में यह कहकर आश्चर्य व्यक्त करता है- “कितना विकट समय है कि जब दुनिया का सारा विज्ञान एक रोएं के हजारवें भाग से भी छोटे वायरस की काट नहीं खोज पा रहा है/ लगभग एक ब्रह्म की सूक्ष्म सत्ता की तरह इधर उधर छिटक रहा है/ अपने स्वरूप को लगातार बदलता हुआ हर क्षण धरती का खून पी रहा है/ तुम मुझसे उत्तर की अपेक्षा कर रहे हो” उत्तर कवि ही देगा यह भी सबको पता है| एक बार ‘बात बात में’ चर्चा करते हुए श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा था ‘जहाँ सभी सत्ताएँ निरुपाय हो जाती हैं वहीं से शब्द-सत्ता अपना कार्य शुरू करती है|’ आज जब कोरोना के सामने विज्ञान से लेकर आध्यात्म तक विवश और हताश नजर आ रहे हैं तो यही शब्द-शक्ति है जिससे हम संघर्ष की प्रेरणा ले रहे हैं| कवि यहाँ भी यही कहना चाहता है-“क्या तुम जानते हो/ यह आस्थाओं के फड़फड़ाने का दौर है/ जिसमें संत कवियों की एक बार फिर से वापसी हो रही है/ जब उन्होंने कहा था कि इस जगत में एक ही ब्रह्म की सत्ता है/ बाकी सब मिथ्या है!” वह ब्रह्म शब्द है| आस्थाएँ फडफडा रही हैं नये तरीके ढूंढ रही हैं जबकि शब्द संघर्ष कर रहे हैं और हमें तमाम डर, भय और आशंका से मुक्ति दिला रहे हैं| कवि यह भी मानता है कि कोरोना काल के बाद ऐसा समय आएगा-
जहाँ अभिव्यक्तियाँ होंगी/ लेकिन आस्वाद न होगा/ लोग लौट रहे होंगे/ लेकिन लौटने के लिए कुछ न होगा
आत्माएं होंगी आत्मीयता न होगी/ एक देह होगी जिसको एक आत्मा ढो रही होगी
यह चिंताओं व शंकाओं के संघर्ष का दौर होगा/ जिसमें हर कुछ एक भय की तरह समर्पित होगा/ जहां स्वीकारने के अलावा और कुछ न होगा/ और संघर्ष के मोर्चे पर हर बार विवेक ही मारा जायेगा
आत्माएं होंगी आत्मीयता न होगी/ एक देह होगी जिसको एक आत्मा ढो रही होगी
यह चिंताओं व शंकाओं के संघर्ष का दौर होगा/ जिसमें हर कुछ एक भय की तरह समर्पित होगा/ जहां स्वीकारने के अलावा और कुछ न होगा/ और संघर्ष के मोर्चे पर हर बार विवेक ही मारा जायेगा
यह जो समय अब हम कोरोना के साथ जी रहे हैं जैसे-जैसे समय बीत रहा है, कोरोना का आतंक बढ़ता जा रहा है, सही अर्थों में हम उत्तर कोरोना काल में पहुँचते जा रहे हैं| घर से बेघर हो रहे लोग दर-ब-दर होकर भटक रहे हैं| जिन्दा आदमी इतना डरा हुआ है कि किसी को देखना नहीं चाह रहा है| कोई किसी को छू रहा है तो लड़ाई हो जा रही है| कोई कुछ कह रहा है हम महज स्वीकार रहे हैं| विवेक का क्षरण पहले ऐसा हुआ कहाँ? कवि के इस कथन में भी कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि “शासक बहुत उदार होंगे/ लेकिन उनमें सब कुछ को पाने की एक जल्दी होगी/ लगभग इस समय की वाचाल मीडिया की तरह/ जहाँ ब्रेक के बाद भी/ एक पुराना ही चीखता है|” पुराने की चीख ही वर्तमान सत्तासीन शासक के पास शेष है| उसका अपना कार्य और कर्तव्य बिलकुल याद नहीं है| जब कवि यह कहता है कि “क्या तुम जानते हो/ वायरस का कोई पूर्व काल नहीं होता/ उसका सिर्फ एक वर्तमान होता है/ जो सदा एक उत्तर में बदल रहा होता है” तो हमें पता चलता है कि अतीत सिर्फ मनुष्य का होता है जिससे वह सीख ले सके| काल और मनुष्य-शत्रु का मात्र वर्तमान होता है ‘जो सदा एक उत्तर में बदल रहा होता है|” इस उत्तर कोरोना काल के बाद सही अर्थों में हम ऐसे समय में पदार्पण करने जा रहे हैं जहाँ से “यह एक नई शुरुआत होगी/ लेकिन शुरू करने के लिए कोई न होगा|” फिर? उसी शब्द की सत्ता होगी जिसेक नेतृत्व में मनुष्य नए समाज की संरचना और नई व्यवस्था का विधान रचेगा|
अपने समय के प्रश्नों से टकराना श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं का मूल उद्देश्य है| इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह महज शब्द-व्यापार से कार्य नहीं चलाता अपितु हृदय-पक्ष को भी सक्रिय रखता है| कवि-हृदय अपनी स्वाभाविकता में इस तरह रमा हुआ है कि घर-परिवार से लेकर देश-समाज तक को दशा और दिशा उपलब्ध करवा रहा है| यही कोरोना त्रासदी का भी कहना है| अपने से अपनों का ख्याल रखिये| जब हम श्रीप्रकाश शुक्ल की इन कविताओं को पढ़ते हैं तो अपने से अपनों का ख्याल न रखने की बजाय सम्पूर्ण मानव जगत पर चिंतित होते हैं| श्रीप्रकाश शुक्ल का कवि-हृदय सही अर्थों में यही चाहता है|
इस लिंक को भी आप देख सकते हैं
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छंद एक प्रकार का स्पन्द है:श्रीप्रकाश शुक्ल
('बात में बात' शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य हिंदी के महत्वपूर्ण कवि श्रीप्रकाश शुक्ल Shri Prakash Shukla से हुई लंबी 'फोन वार्ता' का संपादित अंश -अनिल कुमार पाण्डेय)
प्रश्न:::
प्रश्न के रूप में मैंने उनसे पूछा था कि सोसल मीडिया पर छंद की वापसी को लेकर जो घमासान मचा हुआ है ,उसके बारे में आपके क्या विचार हैं?ऐसा पूछना इसलिये भी जरूरी है कि आप खुद ही कभी कभी छंद में लिखते हैं जैसे कि 'नया ज्ञानोदय' में प्रकाशित आपकी कविता 'सुबह -ए- बनारस' और 'नागा बाबा आये हैं'और कई बार उसे बीच में तोड़ भी देते हैं।
जबाब सुनें--श्रीप्रशुक्ल
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देखो अनिल,जो केवल छंद की दुहाई देते हैं वे अबोध हैँ।जो केवल मुक्त छंद की बात करते हैं वे अज्ञानी हैं और इन दोनों से अलग जो वाक्य को ही कविता बनाने पर आमादा हैं,वे उद्धत हैं।ऐसे लोग वाक्य को केवल संज्ञा,विशेषण व क्रिया में ही जानते हैं।वैसे हिंदी कविता में छंद परिवर्तन की परंपरा पुरानी है।
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छंद का बदलते जाना हिंदी कविता का मूल स्वभाव रहा है-----
एक समय में चौपाई लिखने वालों ने दोहा लिखा,सोरठा लिखा,सवैया व कवित्त भी लिखा।वे सभी महान लोग थे जो कविता को छंद के भीतर उसकी गति में बदल रहे थे और अभिव्यक्ति का नया मार्ग तलाश रहे थे। ग़ालिबन 'कुछ और चाहिए एक वुसअत' की तर्ज़ पर।यह जरूर है कि उस दौर में कविता विचार सम्पन्न होने से अधिक भाव सम्पन्न होती थी।इसलिए वहां मुक्त छंद की आधुनिक शैली के लिए स्पेस कम था।
देखो,छंद का सवाल उठना जायज है लेकिन छंद से आज की कविता की समस्या का समाधान खोजना मूर्खता है।इसी के साथ छंद को गाली दे देकर केवल वाक्यों में लिखे विचारों को कविता मनवाने की जिद भी उतनी ही फूहड है।वाक्य को काव्य बनने के लिए आकांक्षा,अन्विति व आसक्ति से गुजरना पड़ता है।केवल अखबारी वाक्यों को कविता के फार्म में ढाल देने से कविता नहीं बन जाती।इसलिए मुक्त छंद के नाम पर मूर्खता का विस्फोट उतना ही खतरनाक है जितना छंद युक्ति के बीच विद्वता का प्रदर्शन!
आज कविता थके हुए पाठकों को स्फूर्ति देने के लिए नहीं लिखी जाती बल्कि वह पाठक के जीवन विवेक को जागृत करने के लिए लिखी जाती है।यह कविता के कहे जाने का नहीं ,लिखे जाने का दौर है ।छंद अगर रीतिकालीन समाज के जैसा थकान को दूर करने का वर्णिक माध्यम है तो जो थके हैं वे ,थकान मिटायें लेकिन ऐसे लोग भी याद रखें,कविता का मिज़ाज कभी भी छंद का मसाज नहीं था।वह शब्दार्थ की "स्पर्धाधिरोहि चारुता" रही है,जैसा कि नवीं सदी के एक आचार्य कुंतक ने कहा था जब न भक्तिकाव्य था और न ही रीतिकाव्य।
आज जब तुमने यह प्रसंग छेड़ दिया है तब मुझे सबसे पहले एक श्लोक याद आ रहा है -
'यथा खरश्चन्दन भारवाही भारस्य वेत्ता न तो चन्दनस्य'।छंद उस चंदन के समान है जो पीठ पर तो लदा हुआ है लेकिन गधा उसे भार समझ रहा है।उसकी सुगंध को नहीं समझ पा रहा है।तो जो छंद छंद कहते हैं वे वही लोग है जो सुगंध नहीं समझते।
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कविता के बहुत से विधानों में छंद भी एक विधान है लेकिन एक मात्र नहीं----
भामह ने तो 'काव्यालंकार' में छठी सदी में ही लिख दिया है कि छंद,शब्द का अर्थ,इतिहास,कथाएं,लोक व्यवस्था और कला बोध यह सब मिलकर काव्य का निर्माण करते हैं।उद्भट ने काव्य को 'अविचारित रमणीय' माना है जिसका मतलब ही है कि अपने वस्तु के साथ कवि रमण करे।अब कवि जब रमण करेगा तो अपने वस्तु के अनुसार रूप भी खोज ही लेगा।वह चंद्रमा को 'अमृतांशु' ही नहीं समझेगा,दोषों का घर अर्थात 'दोषाकर' भी समझेगा।जाहिर सी बात है,'दोषाकर' की बात पारंपरिक मात्रात्मक व वर्णिक छंद में नहीं आ पाएगी।उसे छंद के नियमों को वैसे ही शिथिल करना होगा जैसे 'तोड़ती पत्थर' में निराला ने किया था।छंद के संदर्भ में निराला की चर्चा खूब की जाती है।लेकिन यह मत भूलो कि वे छंद को छोड़कर नहीं ,समझकर आगे बढ़े थे और कविता को वे छंद से मुक्ति नहीं,छंद में मुक्ति मानते रहे।
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इसलिए तोड़ना तो जरूरी है और अच्छा है कि वह टूटा है लेकिन छंद को समझना भी उतना ही जरूरी है----
मुझे इस संदर्भ में नब्बे के दशक के सुप्रसिद्ध कवि मदन कश्यप Madan Kashyap की कविता '"क्योंकि वह जुन्नैद था"' कि याद आ रही है जो उनके संग्रह 'पनसोखा है इंद्रधनुष' में संकलित है।यह कविता जब प्रकाशित हुई थी,शायद पहली बार फेसबुक पर ही पढ़ी थी मैंने,तब इसकी बहुत चर्चा हुई थी।देखो,व्यवस्था का यह 'दोषाकर' किसी भी पारंपरिक छंद में नहीं आ सकता था यद्यपि इसमें वाक्य की आवृत्ति से ग़ज़ब का विडम्बना मूलक जीवन बोध उपस्थित होता है.।क्योंकि वह जुनैद था,इसकी आवृत्ति ने इस कविता को न केवल रूप के स्तर पर आवृत्ति दी है बल्कि सम्प्रेषण के स्तर पर यह एक पाठक को संवेदित भी करती है ।इसी प्रकार कवि मित्र संजय कुंदन Sanjay Kundan की एक कविता है --'किश्त' जो अभी अभी फेसबुक पर पढ़ी है।कोई छंद नहीं लेकिन जीवन का छंद एक किश्त से टूट रहा है और आदमी अपने ही घर में पनाह मांग रहा है।यह है जीवन का टूटता छंद जिसे कोई भी 'छंद प्रभाकर' नहीं समझ सकता।
दसवी सदी के एक कवि है क्षेमेन्द्र।उन्होंने 'कवि कंठाभरण' लिखा है।इसमें उन्होंने कविता को साधने की प्रविधि पर विचार किया है।वे लिखतें हैं कि कोई कवि यदि छंद अथवा व्याकरण को साध भी ले तो भी तब तक अच्छा कवि नहीं हो सकता जब तक कि वह अपनी कविता में रमणीयता की उपस्थिति न दर्ज करता हो।और इसके अंतर्गत उन्होंने 'समस्तसूक्तव्यापी रमणीयता' की बात की है जिसका मतलब काव्यत्व पूरे कविता में रहता है।तो जब पूरे कविता की बात में रमणीयता की बात आएगी तो छंद व व्याकरण के नियम भी तो शिथिल होंगे।
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अब जरा बताओ अगर छंद से ही कोई कवि बड़ा बनता तो आज ' रसिक प्रिया' व 'कवि प्रिया' लिखने वाले केशवदास रामचंद्रिका' लिखकर हिंदी के सबसे बड़े कवि होते-----
लेकिन कहाँ हैं केशवदास।जबकि छंद के अनुशासन के भीतर रहते हुए भी तुलसी बड़े कवि हो गए।तो छंद बंधन नहीं है जहां हर क्षण मात्रा व वर्ण गिनते रहा जाए ।वह एक प्रकार का नियमन है।एक ब्यवस्था है जो तोड़ने के लिए ही बनती है।तो छंद कोई फंद या फंदा नहीं है।मैं तो इसे स्पन्द कहता हूं और स्पन्द की स्थिति में कई बार बंध टूट जाता है ।कई बार बन भी जाता है।अंततः यह स्पन्द ही महत्वपूर्ण होता है।यह कवि के ऊपर है कि अपने इस स्पन्द को किस तरह बांधे!,
इसी के साथ यह भी जान लो यह बोलियों के भीतर का अनुशासन है जहां विचार की संभावना अपेक्षाकृत कम रहती है----
बोलियाँ एक तरह से विचार से अधिक भावना आधारित होती हैं जहां प्रेम है,श्रृंगार है,भक्ति है,शक्ति है,।जब हिंदी भाषा के रूप में आई तब इसकी विचार शक्ति इसके नींव में थी।भारतेंदु युग को ध्यान में रखो।वह आया ही विचार की शक्ति के कारण।उस समय की कवि भावना ब्रज प्रधान थी लेकिन विचार के लिए हिंदी विकसित हो रही थी।स्वयं भारतेंदु कविता ब्रज में लिखते थे लेकिन गद्य हिंदी में।
तो जब कविता हिंदी में शुरू हुई तो विचार आने के लिए छंद के बंधन से मोह मुक्ति जरूरी थी।वही हुआ भी।द्विवेदी युग में गुप्त जी व हरिऔध जी हिंदी में कविता का मार्ग प्रशस्त कर रहे थे ।वे विचार कम, भावना अधिक लिख रहे थे।'भारत भारती' एक भावना प्रधान काव्य है जिसमें हिन्दू राष्ट्र की महिमा का बखान है लेकिन इसकी आंतरिक उथलपुथल की वैचारिकी के लिए वहां कोई जगह नहीं थी।यही कारण था कि छायावाद में निराला को छंद के बंधन से बाहर आना पड़ा।यद्यपि छंद को उन्होंने छोड़ा नहीं और न ही हेय माना।बस उसे स्पन्द से जोड़ दिया और उसी में बंध से मुक्त भी हुए।वहीं 'कामायनी ' को देखो।छंद के गहरे अनुशासन व विविधताओं में उलझी रही और अंततः भावना के विराट सागर में तैरती हुई विचार के लिए कोई गुन्जाईस नहीं छोडती।पूरी संरचना रैखिक न होकर वर्तुल हो गई।और वर्तुल संरचना का होना ही छंद की सीमा है।उसका अतिशय आग्रह रचना को अंततः रोमांटिक आग्रहों की तरह ले जाता है जिसमें पीछे लौटने की गुंजाइश अधिक रहती है।हाँ,आख्यान परक महाकाव्य में छंद का निर्वाह विचार के साथ हो जाता है बशर्ते कवि सावधान रहे।
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यह समझना आज ज्यादे जरूरी है कि मुक्तक काव्य में छंद का अतिशय प्रयोग उसे एक रूमानी किस्म के प्रभाव से ही जोड़ता है-----
इस संदर्भ में एक और बात स्मृति से जोड़कर कही जाती है।असल में आधुनिक काल से पहले छंद पर जोर देने का कारण उसका मौखिक परंपरा में होना था जिससे कम पढ़ा लिखा समाज भी उसकी ध्वनि के दायरे में प्रभावित हो जाय।नाद से कविता की आयु बढ़ती है ,यह बात मध्यकालीन कविता के दौर में सही है लेकिन आधुनिक कविता में नहीं।यहां कविता विचार की रमणीयता या रमणीयता की विचार शक्ति की अपेक्षा करती है।इसकी शुरुवात भी पंडित जगन्नाथ से हो जाती है।यही कारण है कि जब कविता लिखित होती गई तब छंद भी शिथिल होते गए।और ऐसा होना जरूरी था।छंद का शिथिल होना छंद का मर जाना नहीं है और न ही उसके किसी पुनर्जन्म की बात करना ही है।
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छंद का पुनर्जन्म छंद की वापसी में नहीं, उसके परिवर्तन में है।
देखो अनिल,कोई भी कवि प्राथमिक कल्पना में छंद के दायरे में ही सोचता है जिसमें थोड़ी बहुत साधर्म्य मूलक आलंकारिकता भी रहती है।लेकिन जब वह लिखने लगता है तब इससे धीरे धीरे बाहर आता है।अपनी वस्तु के विकास क्रम में ।इस क्रम में वह छंद में लिख भी सकता है ,नहीं भी।असल में कविता बनती तो छंद से है लेकिन उसे आयु मिलती है उसके औचित्य से।अब औचित्य सिद्ध के क्रम में वह बंधन को तोड़ भी सकती है और नया बंधन ले भी सकती है।
असल बात यह है।वैसे भी 'काव्य प्रकाश ' के मम्मट को याद करो।वे कहते हैं कि कवि अपनी प्रतिभा के अतिरिक्त किसी का बंधन नहीं मानता।तो कवि छंद का बंधन क्यों मानेगा।इस रूप में वह एक अनुशासन है । शासन थोड़े ही है।
तुमसे मैं कहूँ तो थोड़ा हंसोगे लेकिन मैं खुद ही कई बार छंद में लिखता हूँ और मेरी कई कविताएं छंदिक हैं लेकिन इनमें ज्यादेतर तब लिखी गई हैं जब मैं लंबी कविता लिखते अथवा कविता में श्रम व संघर्ष करते थक गया होता हूँ।तो मेरे लिए मात्रिक वृत्त के छंद कविता की लंबी यात्रा में एक पड़ाव जैसे हैं कोई ठहराव नहीं।मैने महसूस किया है कि हिंदी के समकालीन ज्यादेतर कवियों की यही स्थिति है।कम से कम अरुण कमल,देवीप्रसाद मिश्र,अष्टभुजा शुक्ल ,विनय कुमार , सुभाष राय शैलेन्द्र कुमार शुक्ल और संदीप तिवारी की कविताओं को पढ़ते तो ऐसा ही लगता है। पटना के कवि Vinay Kumar छंद के भीतर सुंदर कविताएं लिखते हैं.उन्होनें शानदार गज़लें लिखीं हैं। लेकिन जहां छंद को तोड़ देते हैं वहां और भी अच्छी कविता लिखते हैं।यहां मैं उनकी कविता "पाती' को याद करना चाहूंगा।
तुम खुद ही अपनी कविताओं व आलोचना में में छंद पर बहुत जोर मारते हो लेकिन पढ़कर तो यही लगता है कि ये मुक्त काव्य चेतना की उपपाद ही हैं,मुख्य निर्मिति नहीं।
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चलते चलते यह भी दर्ज कर लो कि हर कृती रचनाकार को छंदशास्त्र व साहित्य शास्त्र का थोड़ा बहुत ज्ञान होना ही चाहिए------
'छंद शास्त्र' को वैसे भी छह वेदांगों में एक माना गया है।अब जिन्हें 'साहित्य शास्त्र' का ज्ञान ही नहीं है वे भी इधर देख रहा हूँ कि ज्ञान दिए जा रहे है।जिन्होंने आज तक न तो कायदे की एक कविता लिखी है और न ही कविता पर कुछ लिखा है वे भी छंद पर राय बांट रहे हैं। संपूर्णता में छंद के विधान को ही खारिज किये जा रहे हैं।यह एक प्रकार से अपनी अज्ञानता को छुपाने का तरीका भी है।यह ठीक है कि कविता छंद से ही नहीं बनती और न ही इसके शासन को मानती है ।वह तो नियति के नियमों के विरुद्ध जाती है।मम्मट ने बहुत पहले "काव्य प्रकाश" में लिख दिया है-- नियतिकृत नियम रहिता...लेकिन ज्ञान के अन्य अनुशासनों की तरह है तो वह भी एक अनुशासन जिसकी इज्जत करने से कोई कविता कमजोर थोड़े ही हो जाएगी।बाकी अपने शिल्प के लिए हर कोई स्वतंत्र है।छंद ही क्यों,कविता तो अलंकार व व्याकरण के नियमों को ही कहाँ मानती है !
... और मेरा कहना है कि मानना भी नहीं चाहिए।
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