अंतर्दृष्टि के अन्वेषी कवि हैं अनिल कुमार पाण्डेय// गोलेन्द्र पटेल
मेरे गाँव से बनारस में बहुत से लोग राजगीरी का काम करने जाते हैं। बनारस में ही मेरे पिता भी मजदूरी करते हैं। वहीं उनके काम पर एक राजगीर उनसे कहता है कि आपका लड़का फेल हो गया है और मेरे फेल होने की यह झूठी सूचना उस मिस्त्री को वहीं पर काम करने वाला मेरे गाँव का एक सज्जन मजदूर ने अतिशयोक्ति भरी बात-बात में दी। इस सूचना को सच मानकर पिताजी घर आते हैं और माँ को बताते हैं कि मैं बी.ए. में फेल हो गया हूँ। रातभर माँ पर क्या बीती होगी इसका अनुमान आप खुद लगा सकते हैं। जब सोकर उठा तो तुरंत माँ ने सहजता से कहा कि सुना है। तुम फेल हो गए हो? बेटा! क्या यह सच है? मैं कुछ देर शांत रहा फिर धीरे से कहा कि हाँ। जबकि इस बात को सुनते ही मेरे हृदय में हँसी की हिलोरें उठने लगी। लेकिन मैंने उसे भीतर ही दबाते हुए अपने चेहरे पर चिंता की रेखा खींची। जिसे देखकर माँ को यकीन हो गया कि मैं फेल हो गया हूँ। खैर, मनुष्य कब तक हँसी को कंट्रोल करेगा? हँसना तो तय था और खुब हँसा, जी खोलकर हँसा। माँ की दशा को देखकर आँखों का रस टपकना चाहता था। परन्तु उसी समय अनिल कुमार पाण्डेय की आगामी कुछ पंक्तियाँ याद आईं। वे कहते हैं कि "स्वप्न माँ का था/ अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊँ/ इच्छा भाईयों की थी/ संभालने लगूँ कुछ ज़िम्मेदारियाँ/ गुरुओं ने चाहा था/ योग्यता का क्षरण न हो किसी भी रूप में/" और फिर क्या था इन पंक्तियों पर विचार करने लगा। 'फेल' के फलक पर युवा पथप्रदर्शकों का प्रकाश दिखाई देने लगा। जहाँ से मेरी यात्रा शुरू हुई। वहीं पर मेरी इच्छाएँ और जिज्ञासाएँ एक साथ दौड़ने के लिए उद्धत हुई। मैंने महसूस किया कि अँधेरे में आदमी की चाल उजाले की अपेक्षा तेज हो जाती है और योग्यता की शक्ति सड़क पर पथिक की गति को खुद-ब-खुद बढ़ती है। चाहे भले ही सड़क पैदल चलने के अनुकूल न हो। लेकिन जब हम सफ़र में बुरे समय से संघर्ष करते हुए आगे बढ़ते हैं। तब उम्मीद की उर्जा हमें हमारे लक्ष्य तक कभी न कभी पहुँचाती है। इस बात की पुष्टि मैं अनिल पाण्डेय की आगामी पंक्तियों कर रहा हूँ। वे लिखते हैं कि "अब निकले हैं कदम/ पहुंचेंगे तो ज़रूर/ कहीं न कहीं समय से/ या फिर अपने स्वभाव में देर से ही सही"
भारतीय लोक संस्कृति में प्रसिद्ध है कि माँएँ सुबह सुबह स्नान कर के एक लोटा जल का अर्घ्घ सूर्य या तुलसी को देने के बाद उनसे अपने संतान के लिए सुख-सुविधा मांगती हैं। इस एक लोटा अर्घ्य के द्वारा माँओं में संतानों की सरकारी नौकरियां और पदोन्नति की चाहत दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। पर इस संदर्भ में मैंने कभी भी अपनी माँ को अर्घ्य देते हुए नहीं देखा है। हाँ, नवरात के दिनों में जब गाँव की सभी माताएं देवियों को पानी देती हैं तो मेरी माँ भी धार, कपूर व फूल वगैरह लेकर उनके साथ जाती है। गाँव के कुछ लोक देवी-देवताओ का नाम माँ से सुना हूँ जैसे कि जीउतिया माई, सम्मो माई, कोटि माई, बनसत्ति माई, भवानी माई, डीह बाबा, बरम बाबा, दइतरा बाबा, चकिया बाबा, तीन तड़वा बाबा इत्यादि। वैसे मेरी माँ नियमित पूजारिन है पर मिट्टी के चूल्हे का, जिसे वह रोज सुबह लीपती पोती है। माँ चूल्हे की राख उठा रही है। पिताजी आते ही पूछ रहे हैं कि रिजल्ट कैसा है? कहीं फेल तो नहीं हो गए। उन्हें चक्की से आटा लाने जाना था इसलिए कोई मजाक नहीं, क्योंकि ऐसे प्रश्न पर पिता से मजाक भारी पड़ सकता है। यही सोचकर तुरंत कहा कि नहीं, मैं पास हूँ। तभी टपाक से टपक पड़े एक भाई साहब। वे कह रहे हैं कि अनिल कुमार पाण्डेय कौन हैं? चर्चा परिचर्चा में किसी का परिचय पाना अच्छी बात है। परंतु भाइया जी का फार्म भर भरकर एम.फिल. तक पहुंचने की यात्रा में छूपी जिज्ञासा जब बीच में टोकती है तो कुछ खटकता है कि वे हिंदी के कितने महान विचारक व चिंतक हैं। बहरहाल बड़े हैं इसलिए मेरी बेबसी गई तेल लेने। उन्हें बताना पड़ा कि अनिल पाण्डेय कौन हैं। बताने की प्रक्रिया में एक वाक्य अनायास ही निकला है पर है महत्वपूर्ण। वह यह है कि कविताई अवनि की अंतर्दृष्टि के अन्वेषी कवि हैं अनिल कुमार पाण्डेय।
सुबह का संवाद शब्दबद्ध कर रहा हूँ। तो सोच रहा हूँ कि ये मानवीय रिश्ते-नाते-संबंध ही जीवन का बुनियादी आधार होते हैं। जो हमारी मनुष्यता को दीर्घजीवी बनाते हैं। घर परिवार रिश्तेदार सब के सब इस आधार पर टीके हैं और इसकी केंद्रीय बिंदु पर समाज का वह खूँटा है जिससे हम सब बँधे हैं। जहाँ दुनिया सुख दुःख में एक दूसरे से बातें करती हैं। वहीं इस महामारी के दौर में बातें तो दूर की बात है। हम अपने सगे संबंधियों को ठीक से याद भी नहीं करते थे कि कहीं हमारी वजह से किसी को हुँटकी न आया जाये और वह चला न आये कोरोना को लेकर हमारे पास। फिर भी इसी समाज का सबसे संवेदनशील प्राणी कवि व लेखक अपने सगे संबंधियों को याद करते थे। वे उन्हें उन लोगों को भी याद करते थे जिन्हें व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानते थे। मौका मिलने पर कोरोना से कुश्ती भी लड़ते थे। कई कवियों व लेखकों को
कोरोना ने पटका तो कई कवियों ने कोरोना को। मेरे अत्यंत आत्मीय कवि मंगलेश डबराल को कोरोना ने पटक पटक कर मारा है, तो वहीं मेरे प्रिय मार्गदर्शक व कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव ने उसे पटक पटक कर उस पर विजय पाई है। संभवतः जब वे चारपाई पर थे तब वे यादों के यात्री रहे होंगे। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि जब मनुष्य स्मृति के सागर में डुबकी लगता है तो उसका परिवेशगत प्रेम पहले की अपेक्षा बढ़ जाता है। उसके सृजनात्मक संसार में प्रेम का प्रसार होता है। प्रेम मनुष्य की रक्षा करता है और परिवेश की रक्षा करने की सलाह देता है। प्रेम का होना, जीवन के जागतिक जगत का होना है। यह हमें जागते हुए गंतव्य तक जाने की प्रेरणा देता है। इसी दिशा में अनिल कुमार पाण्डेय की दीर्घदृष्टि दौड़ती हुई कहती है कि हमें उन्हें याद करना चाहिए, जो हमारी जिंदगी की नाव का निर्माण करते हैं। कम से कम उस वक्त अवश्य याद करना चाहिए, जब नदी में उफान हो और उस पार जाने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़े। ऐसी परिस्थितियों में अनिल पाण्डेय की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं कि "सोचा कि याद कर लूँ एक बार/ घर परिवार, नात रिश्तेदार सगे सम्बन्धियों को/ याद अक्सर जो करते हैं मुझे/ समय इतना नहीं कि कह सकूं उन्हें/ मैं तुम सबके साथ हूँ/ प्रेम भाव पहले से कहीं /अधिक है इधर के दिन/ कई बार सोचा बता दूं/ आज तक बस सोच रहा हूँ सोचता जा रहा हूँ।"
आज यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में साथ खड़े होने वाले बहुत कम कवि व लेखक हैं। ऐसे में यदि कोई कवि या लेखक केवल खड़ा ही नहीं, बल्कि साथ साथ सहयात्री बनकर चल रहा है तो वह निश्चय ही पाठकों के स्मृतियों में जिंदा रहने वाला कोई कोरोजयी ही है।
©गोलेन्द्र पटेल
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