Thursday, 11 February 2021

82 वर्ष के कवि ध्रुवदेव मिश्र पाषाण की कुछ कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल || Dhruvdeo Mishra Pashan

 प्रिय कवि ध्रुवदेव मिश्र पाषाण :-

    ध्रुवदेव मिश्र पाषाण अपनी पत्नी शांती देवी के साथ (एल्बम से)

संक्षिप्त परिचय :-

                           ध्रुवदेव मिश्र पाषाण : ग्राम इमिलिया(भटनी),जिला देवरिया(उ.प्र.) में सन १९३९ में जन्म, बुद्ध डिग्री कॉलेज,कुशीनगर से स्नातक, अंबिका हिंदी हाई स्कूल,शिवपुर(हावड़ा) में १९६५ से २००२ तक अध्यापन . मानिक बच्छावत और छविनाथ मिश्र के साथ कोलकाता महानगर के वरिष्ठतम कवियों में से एक . बेहद प्यारे इंसान . १९५७ में पहली पुस्तक ‘विद्रोह’ शीर्षक से एक नाटक . १९६२ से २००० के बीच ग्यारह काव्य संकलन . प्रस्तुत कविता 'विडंबना' , 'उगो' (13 , 14) उनके काव्य संकलन ‘खंडहर होते शहर के अंधेरे में’ से ली गई है . ‘विसंगतियों के बीच’, ‘धूप के पंख’, ‘वाल्मीकि की चिन्ता’, ‘चौराहे पर कृष्ण’ , 'पतझड़-पतझड़ वसंत' ,तथा ‘ध्रुवदेव मिश्र पाषाण की कविताएं’ उनके अन्य काव्य संग्रह हैं .



जन्म : 09/09/1939 , ग्राम- इमिलिया(भटनी), देवरिया (उ.प्र.)

भाषा : हिंदी

सम्मान


'मित्र मंदिर का साहित्यकार सम्मान' , 'देवरिया रत्न' आदि

संपर्क


45/17, बी. गार्डेन लेन,हावड़ा - 711 103

फोन


91-97487 28879 

ई-मेल


gnt_mail@yahoo.co.in



                           👁️कविताएँ👁️ 

                                   👃

                                   👄

1.

तलाशो समय में खुद को
खुद में समय को–पाषाण 

प्रतिबद्धता हो या आस्था
हाथ-पांव की हथकड़ी-बेड़ी
न बनाओ इन्हें
जाग्रत विवेक के आइने में
समय की अँकवार में खुद को देखो
और आपनी भी अँकवार में समय को समेटो
तलाशो समय में खुद को
खुद में भी समय को
बेहिचक तलाशो
समय को
खुद को
आगे बढ़ो
लगातार चलो
चलते रहो अथक
अनवरुद्ध
नये शिखर प्रतीक्षा में है तुम्हारी
गिरवी न पड़े विवेक
किसी जड़ प्रतिबद्धता
जड़ आस्था की तिजोरी में।

०५/०२/२०२१



2.

एक सुभाषित-सा कुछ
^
हत्या की क्षमता प्रमाण नहीं है
वीरता का-धीरता का-माँ की ममता का-देश से प्रेम का,
न तो संहारक उपकरणों का भंडारण
प्रमाण है विकास का-पडोसी से पडोसी के जुडाव का
आदमियत के फलने-फूलने का भाईचारे के विस्तार का
विकल्प नहीं है ये स्नेह के
सृजन-शक्ति के
गर्हित विपक्ष-पथ हैं सृष्टि के सर्वनाश के-
मनुष्यता के क्षरण के।
समूहिक मरण के।
प्रगति के हिमालय हो नहीं सकते ये
मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरूद्वारा हो नहीं सकते ये।

१३/१२/२०२०


3.

एक कविता यह भी―
^
माँ को माँ कहने के लिए
                          किसी कानून के मुन्तजिर नहीं है हम
किसी दलाल या सरकार के
                          मुखबीर नहीं है हम
पूरी धरती हमारी माँ है
                           किसान है―मजदूर है हम
पराया नहीं है कोई टुकड़ा
                          लुटेरे हुक्मरानो के साथ
कभी नहीं खत्म हुआ है हमारा झगड़ा
                           हराम पर जिन्दा सरकारो के साथ
जारी था युग युग से―
                           जारी है आज भी हमारा रगडा़
ले कर मानेंगे हक
                           सारी दुनिया को देंगे
इस बार सबक तगडा़।
                              
                              ―३/१२/२०२



4.

भगतसिंह के स्वप्न

वीर भगत की मातृभूमि की माटी की सौगंध 

रखें सुरक्षित साथ फूल के फुलवारी की गंध।

फैले फूले हर उपवन मे,सदा रहे हरियाली

मुक्त गगन में मुक्त भाव से उडें परिंदे 

झूमें डाली-डाली 

श्रम के स्वामी रहें श्रमिक जन

खेतिहर के हों खेत 

चीनी के धोखे में कोई ,बेच न पाये रेत 

वसुधा हो परिवार हमारा 

                           शोषण .का हो अंत

               वीर भगत के स्वप्न सही हों

                      मधुरितु रहे अनंत।०

                   ०28/9/2020



5.

पुकार रहा है जन-भविष्य
^
"अँधेरे के तिलस्म की तीलियों से
जूझ रही हैं
प्रकाश की किरणें
हाथ-पाँव मार रही हैं
शोषण के वृत्त से मुक्ति के लियें
राष्ट्रीय लोक-चेतना
तत्समवाद के कंस की कारा
करीब हैं ढह जाने के
करीब हैं
मिक्षित मानव -संस्कृति के
अभ्युदय के दिन
जगो मेरी धरती के लोगो!
पुकार रहा हैं तुम्हारा
जन भविष्य
गांधी और भगत के देश में
मुक्ति-अभियान के पथ पर।"
                     
                 १३/०९/२०२०

6.

पुकार मेरी
"जन बौध्दिक!
भगें नहीं रण से
हटें नहीं प्रण से
लड़ें,
बचें औंर करें स्वागत आगत का कलुषित वर्तमान बदलें एकजुट जन - भविष्य रचें।"
      
      १२/०९/२०२०


७.

सुनते हो भारत-भाई ?

                            ध्रुवदेव मिश्र पाषाण

^

रेंगते रहो

सिर्फ रेंगते रहो

कभी-कभी मन फेरी के लिये

रेकते भी रहो

हाँ रेकते भी रहो 

हे मेरे भारत भाई 

आखिर आ ही गई 

तुम्हें औंर हमें

ठेंगा दिखते 

इठलाती-मटकती

वोटों की मदमाती

"भारत-दुर्दशा"की घडी़ आई

गद्दी पर बैठा चौपट राजा 

टके सेर भाजी-टके सेर खाजा 

होती हैं तो होने दो जग-हसाई

सुनते हो भारत भाई 

लेकिन कहीं-कहीं 

लेने लगी हैं

रत्न प्रसविनी धरती फिर अँगडाई

फिलहाल करते रहो

रेंगने-रेंकने की पढाई

होती हैं तो होने दो

खुल कर जग-हँसाई

                            ३०/८/२०२०



7.

सुन लीजिए साहब!

                           

^

न आप की अंधी दौड़ मे हूँ

न आप की छेड़ी किसी होड़ मे हूँ 

न किसी मदारी का जमूरा हूँ -न लंगूर

जमाने के सारे दाव समझता हूँ -पैतरों पर नजर रखता हूँ-

किसी और के नहीं-अपने पांव चलता हूँ

बात साफ-साफ है साहब!

खुली आँखों देखता हूँ

अपनी भोगी-समझी कहता हूँ

भाषा के गले कसता फंदा नहीं हूँ मैं

हाँ,हाँ -किसी जुमलेबाज के नहीं

अपने राम अपने कृष्ण 

अपने गौतम ,अपने गांधी के भारत का हूँ

अपने घर परिवार के साथ-साथ

दुनिया के हर 'आरत' का हूँ

जानता -पहचानता हूँ आप को

वक्त न आप के बाप का बंदी हैं न मेरे 

आप के हाथों से सरक रहा है वह-पूरा का पूरा सरकेगा

मेरे जैसो का मुकद्दर

मेरे जैसो के हाथों ही सँवरेगा

समझसके तो समझलें

आखिरी नमस्ते है आपको

आप को

हाँ साहब आप को।

                          ^

               23 अगस्त 2020


8.

अद्भुत! 

° 

  असूर्यमपश्या को 

जंगल-जंगल भटकाया

अपनी माया रचाया 

धरोहर बनाया

          लीला का जाल फैलाया 

आग के पास धरोहर सा सौंपा

           सोने की लंका को जलाया

अपना 'पौरुष' चमकाया 

        प्रिया को लपटों से नहलाया 

सिंहासन पर संगिनी बनाया 

          और फिर 

         न्याय का नया नाटक रचाया 

       सीता को अकेली

                  गहन-वन भिजवाया

  दो बेटों की जननी को 

'वसुधा की बेटी को' वसुधा की गोद लौटाया?

 सियाराम की जगह

       भक्तों से आज 

जय श्री राम का नारा गुंजाया!

     अद्भुत है! 

सचमुच अद्भुत है

                 हे राम!

             तुम्हारी माया

वाकई कहीं धुप ― कहीं छाया!                           

                                              26/7/2020



9.

° वरवर राव मेरी खुशनसीबी 

                          

 मेरा हम उम्र है वह, मेरा हमवतन है वह

 मेरा हमसफर है वह –हाँ मैं खुशनसीब हूँ

कि वह भी मेरे ही भारत का कवि है

जिस छितिज से उगा हूँ मैं–उसी छितिज पर चमका

              एक रवि है वह 

सहलाता रहता है वह 

               हर शोषित का हर घाव 

हाँ, हाँ भारत की ही माटी का एक कवि है वह 

                              उसी का नाम है वरवर राव।

जेल हो, जंगल हो , उजाड़ हो–बस्ती हो 

हवा की हर सांस में ढलती है उस की कविता 

हवा के पंख पर तैरती–हदों को करती बेहद

शोषकों की करती नींद हराम - मैं करता हूँ उसका एहतराम 

नहीं चल पायेगा किसी दुश्मन का उस पर कोई दाव 

उसी का नाम है वरवर राव ―

                        भारत का एक कवि है वरवर राव

उसी के सपनों का साझीदार हूँ मैं

उसकी हर पीड़ा का भागीदार हूँ मैं

           हर कैद को चुनौती हैं हमारे सपने 

           कभी न मिल पाने के बावजूद―

                         हम दोनो हैं एक दूसरे के अपने 

जी हाँ, खुशनसीब हूँ मैं

  उस के सपनों का साझीदार बनकर 

क्रांति का सफर पूरा करना है, हमें अभी बहुत चल कर 

                 बहुत संभलकर 

सहलाता है जो हर शोषित का हर घाव 

उसी का नाम है― भारत का प्यारा कवि वरवर राव।

                                

                         ― 17/7/2020


10.

कुछ तो रहम करो ― 

                       

                 

 °किसी भरम में मत भटको भैया!

 कुछ तो शरम करो 

भूल चूक कर जो बोया है

वह ही तो काटोगे ?

अपने धतकरमों को भैया ?

किस–किस को काटोगे

किस–किस को छाटोगे ?

खिलवाड़ बने हैं राजनीति के 

मंदिर मस्जिद और अखाड़े

किस में साहस है भैया 

जो इनका जहरीला खेल बिगाड़े ? 

पुण्य–भूमि भारत को भैया 

क्या फिर से बांटोगे ?

गंगा जमुना की धारा को खून–खून कर डालोगे 

तुम तो मेरे अपने हो 

वो भी तो गैर नहीं ?

दोनो ही तो मानवता के सपने हो

भाई चारे के ऊपर 

सतलज रावी के संगम पर 

मंदिर मस्जिद की मर्यादा पर 

कुछ तो रहम करो 

अपनी हो या उनकी 

काली करतूतों पर 

कुछ तो शरम करो भैया 

अब तो शरम करो।

मैं हिन्दू हूँ, वह मुस्लिम है

कोई सिक्ख है –कोई और इसाई

सच पूछो तो इस धरती के जाये सब 

आपस में हैं भाई–भाई

सिर्फ आज बता दो हमको 

माँ को मौसी से उलझा कर 

क्या सुकून पाओगे 

आखिर तुम किसके होगे

किसका अपना कहलाओगे ?

कुछ तो शरम करो बीते पर 

कुछ तो शरम करो 

पुण्य–भूमि भारत पर कुछ तो रहम करो। •••

6/7/2020



11.

*बहुरे हैं दिन*


 *बहुरे हैं दिन इन के* 

    *बहुरे हैं दिन*

*आज मुखौटों के* 

 *आये हैं, आये हैं*

 *अच्छे दिन आज मुखौटों के।* 

   *चिढ़ते थे हम, कुढ़ते थे हम* 

 *आपस में खूब झगड़ते थे हम* 

 *चेहरा ढके  मुखौटों से* 

 *लेकिन दिन बहुरे आखिर इनके भी*

 *बालिग चेहरा ढके मुखौटों के*

 *घूरों के दिन बहुरे हैं* 

 *आए हैं, आए हैै*

  *अच्छे दिन आए *हैं* 

**आज मुखौटों के*

   *बहुरे हैं दिन घूरो के*       

*६/७/२०२०*



12.

*"बिग बॉस से नहीं छिपेगा कुछ"


 कई–कई करोड़ आंखें हैं उनकी 

कई अरब बाहें भी 

छाती और अंकवार का विस्तार?

न पूछे आप 

आप के पास नहीं है कोई फिता 

जो कर सके पैमाइश ठीक–ठाक

विराट के नए अवतार हैं ये 

सम्भन कर रहे आप 

जीये उनकी मर्जी से 

उनकी मर्जी से

मरने को भी तैयार रहें आप 

तनिक बौने दिखते हैं तो क्या हुआ? 

बामन के अवतार हैं ये

धरती के नए भगवान हैं ये

हमारे तो सब कुछ हैं

"बिग—बॉस" है ये,

उनकी नींद सोए

उनकी जागे जागें 

पत्नी को भी चूमें 

तो उनसे पूछ कर 

बच्चों को दुलारे 

तो उनसे पूछ कर

सब कुछ छोड़ दें उनके भरोसे 

बड़े भाग्यवान हैं आप

आप–आप 

आप हैं भारतवासी! 

भूलें मत

‘आप के भगवान हैं ये

आप के बिग बॉस हैं ये’                 

               ५ जुलाई २०२०



13.

विडंबना 

 

अपने बैकुंठ की रक्षा में

हमारे इर्द-गिर्द

रोज़-रोज़

रचते हुए भी एक नया नर्क

तुम हमारे हो प्रभु !

 

14.

उगो

 

तुम्हारे इन्तज़ार में

अंधी हो रही हैं दिशाएं

काले भंवर में

चक्कर काट रही है पृथ्वी

 

उगो

कि झूमते दिखें

खेत-खेत नये अंकुर

 

उगो कि ताल-ताल खिलें

सहस्र-दल नेह-कमल

 

उगो कि तुम

दिशाओं की आंख हो सूरज !

 

उगो

कि तुम

पृथ्वी का प्यार हो सूरज !


★★★★★★★★★★★


''बहे स्नेह की धार जगत में

मानवता की जय हो

बीते कलह बिसारे हम सब

नया वर्ष मंगलमय हो''

©ध्रुवदेव मिश्र पाषाण



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नाम : गोलेन्द्र पटेल

{काशी हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र}

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