शिष्य का शब्द : आत्मकथ्य - 2
'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार (यानी 'अज्ञान') और 'रु' शब्द का अर्थ है प्रकाश (यानी 'ज्ञान')। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म स्वरूप प्रकाश है, वह गुरु है। यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि गुरु का उक्त तात्पर्य उस युग का है जब एक 'गुरु' स्वयं एक 'गुरुकुल' होता था। समय के साथ शिक्षा की खेती करने की अनेक पद्धतियाँ विकसित हुई हैं। परंतु खेत दिन-प्रतिदिन छोटे होते जा रहे हैं और ज्ञान की खेती करने वाले सुकुमार, एकदम सुकुवार। तेजी से मिट्टी की उर्वरता नष्ट हो रही है। शिक्षक और शिष्य के संबंधों का सुमन मुरझा रहा है। इस मुरझाते हुए सुमन के संदर्भ में मुझे अपने प्रिय कवि ज्ञानेंद्रपति की कविता 'वे जो' की याद आना, यहाँ कोई अनायास नहीं है बल्कि वर्तमान की दशा का दबाव है। इस कड़वी सच्चाई को व्यक्त करनेवाली कवि कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :-
"वे जो 'सर' कहाते हैं
धड़ भर हैं
उनकी शोध-छात्राओं से पूछ देखो"
बुद्धि हर व्यक्ति के पास होती है। पर सद्बुद्धि सबके पास नहीं होती है। यह तब तक प्राप्त नहीं होती है जब तक कि व्यक्ति को किसी का मार्गदर्शन प्राप्त न हो जाये। एक बात यह भी है कि गुरु के अनुभव से जब शिष्य के अनुभव का रैखिक मिलन होता है तब उसके सोचने-समझने की दायरा बहुत बढ़ जाता है और उसकी सृजनात्मक शक्ति भी पहले की अपेक्षा काफी बढ़ जाती है। उसकी सचेतनता उसकी रचनात्मकता को परिष्कृत करती रहती है। उसके संस्कार का संसार अपनी सभ्यता और संस्कृति से उर्जा पाकर फैलने लगता है। इसके फैलने से उसके (शिष्य) भीतर की मनुष्यता जागृत होती है। जो उसे मानवीय बनाती है और यही मानवीयता सृष्टि की संवेदना को संजोकर जिंदगी की नदी को स्वच्छ रखती है। जिसमें वैचारिकता की नाव बौद्धधर्मी खेना सीखाते रहते हैं जीवन भर।
किसी भी परिस्थिति में किसी भी तरह की समस्याओं और उलझनों से निपटने के लिए गुरुमंत्र ही वह सार्थक व सर्वोत्तम साधन है। जिसके द्वारा व्यक्ति आसानी से उन पर विजय प्राप्त कर सकता है। हर गुरु साधारण में असाधारण होता है क्योंकि उनके पास शक्तित्रयी (आत्मशक्ति, स्पर्शशक्ति व वाक्यशक्ति) है और यही शक्तियाँ उन्हें ईश्वर से भी बढ़कर सिद्ध करती हैं। जिसे संत कवियों ने बेखूबी से अपनी रचनाओं में दर्ज किये हैं। इस संदर्भ में कबीरदास का आगामी दोहा तो जगत प्रसिद्ध है ही। "गुरु गोविन्द दोऊ खड़े,काके लागूं पायं / बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोविन्द दिया दिखाय ।।"
बहरहाल, मेरी दृष्टि में मेरे गुरु भी उन्हीं ऋषियों की तरह हैं जो अपने समय के सर्वशक्तिमान शिक्षक रहे हैं। मेरे गुरु भी अपने आप में गुरुकुल हैं और मेरे शिक्षक भी अपने आप में शिक्षालय हैं। एक संस्था हैं। जहाँ शिक्षा और दीक्षा दोनों ही आधुनिकता के रंग में रंगी हुई हैं। कला, साहित्य और संस्कृति का त्रिवेणी संगम हैं। अक्सर मैं इस संगम पर सुनता हूँ उनके मुख से निकला हुआ ब्रह्म स्वरूप शब्द! अतः मेरे गुरु मेरे समय के शब्द हैं।
मैं उनकी प्रशंसा नहीं कर रहा हूँ। न ही उनका मूल्यांकन। और न ही यहाँ कोई अतिशयोक्ति है। न ही मेरे पास कोई चाटुकारिता की भाषा है। मैं तो बस सत्यता की सीमा में अपनी बात रख रहा हूँ। उनकी सक्रियता ही उनकी सदाचारिता और साधुता की पहचान है। वे सतर्क के साँचे में वर्णित अनुभूतियों को मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से उच्च स्तर (भूमि) पर ले जाने का भागीरथ प्रयास तो करते ही हैं। साथ ही साथ शुन्य की संवेगी कंपनता का साक्षात्कार भी कराते हैं। अतः मैं यह कह सकता हूँ कि मेरे गुरु सहज और उदात्त होने के साथ साथ ज्ञाता और दाता भी हैं।
उनकी क्यारी की फसलें लहलहाती हुई नज़र आ रही हैं। उसमें उगे हुए गेहूँ और गुलाब का संगीतमय संवाद स्पष्ट रूप से सुना जा सकता है। उनकी आँखों की ज्योति निराशा में आशा का गीत गुनगुनाती हुई सूर्य की किरण की तरह जगत का तमस दूर कर रही है और तब तक करती रहेगी जब तक सृष्टि रहेगी।
©गोलेन्द्र पटेल
{संपादक : गोलेन्द्र पटेल}नाम : गोलेन्द्र पटेल
{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com
No comments:
Post a Comment