Friday, 15 October 2021

कविता का समुज्ज्वल पक्ष और कोरोजीविता (केंद्र में आ. श्रीप्रकाश शुक्ल) : गोलेन्द्र पटेल || भाग-दो

 

2. कविता का समुज्ज्वल पक्ष और कोरोजीविता//

इसकी परिधि पर नहीं बल्कि केंद्र में स्पर्श की स्पर्धा है। जो एक तरह की मनोवैज्ञानिक भूमि का निर्माण करती है। जिसकी मिट्टी मानवता की मिट्टी की तरह उपजाऊ है। इसके बीज 'श्रम', 'संघर्ष', एवं 'प्रयत्न' आदि होने के कारण केवल उग ही नहीं रहे हैं बल्कि विमर्श का विशाल वृक्ष उन 'भूखे', 'थके', 'हारे' आदि लोगों के लिए बन रहे हैं। जो इसके 'फल','फूल' एवं 'छाया' आदि के अधिकारी हैं। इस संबंध में आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल कहते हैं कि "यह जो कोरोजीवी कविता है, प्रतिभा से अधिक, श्रम के महत्व की शिनाख्त करने वाली कविता है।" अर्थात् इसमें श्रम का सौंदर्य और संवेग की सुगंध दोनों एक साथ मौजूद हैं। अतः हम कह सकते हैं कि 'कोरोजीवी कविता' केवल कहने वाली ही नहीं है बल्कि करने वाली भी है।

सभ्यता व संस्कृति के समन्वय का संगीतात्मक रस, राजनीति का द्वंद्वात्मक राग तथा अनुभूति के अनुराग से लबालब भरी है 'कोरोजीवी कविता'। यदि हम जिज्ञासा की भाषा में कहें तो यह कह सकते हैं कि चेतना की चित्रात्मक अभिव्यक्ति ही संकट के समय में सर्जक का मूल स्वर होता है। अतः यह चुनौतियों के विरुद्ध चमक की कविता है। जहाँ उम्मीद की उजाला स्थाई है और वहीं पर 'कोरोजयी कवि' क्रमशः 'लोकधर्मी', 'क्रांतिधर्मी' एवं 'युगधर्मी' के रूप में उपस्थित है। जिसकी मानवीय संवेदना भय की भूमि में हताश, उदास, निराश, दीन-दुखी एवं असहाय मनुष्य के भीतर उम्मीद, उजास, आशा, सम्भावना,एवं जिजीविषा को जन्म देने वाली है। जब-जब मनुष्यता पर आफ़त आयी है कला, साहित्य एवं संस्कृति के शुभचिंतकों ने अपनी अहम भूमिका निभाये हैं। रचनात्मकता का रूप निखरा है और संवेदनशीलता का स्वरूप सार्थकता के साँचे में ढला है। अर्थात् समाज में सृजनात्मक सजगता बढ़ी है।


तीसरी लहर के दौरान महामारी के महासागर में शवों को तैरते हुए तथा श्मशान में चिता के लिए कम पड़ी लकड़ी का दर्दनाक दृश्य को हमने अपनी आँखों से देखा है। दिल और दिमाग को झकझोरने वाले अनेक दृश्य आज भी हमारी पुतलियों में कैद हैं। ट्रेन के पटरियों पर बिखरी लाशों का चित्र हो या प्लेटफार्म पर मृत पड़ी माँ से चिपके शिशु की संवेदना का साक्षात्कार हो या फिर बाढ़ में डूबी दुनिया का दर्शन हो। ये सभी तस्वीरें सत्ता की क्रूरता से कुश्ती करने के लिए उद्धत हैं। जो शब्दों के चित्रों का सामर्थ्य है और कोरोजयी कवि की कालजयी कला भी। महामारी से पूर्व इस भयावह भविष्य का दर्शन करने वाले आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल लिखते हैं कि

"इस सभा में शव के लिए प्रार्थनाएँ की गयीं/.../

ठीक जैसे किसी लेखक की गम्भीर बीमारी में उसके बारे में पुराने पन्ने पलटे जाते हैं/

कि न जाने श्रदांजलि के दो शब्द बोलने का प्रस्ताव कब आ जाय!" ('क्षीरसागर में नींद' / 81)


इस महामारी के मुख में हिंदी के कवि मंगलेश डबराल से लेकर उर्दू के शायर डॉ. राहत इंदौरी तक अनेक साहित्य साधक समा गये हैं। सुबह-सुबह सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि का सुमन समर्पित करना, ऐसा लग रहा था मानो दुःख के दिन सूर्य को अर्घ्य देना है। 


ऐसे में कवि की आत्मा अत्यंत दुखी थी और आँखों में था आँसू का समुद्र। फिर भी वह 'आपदा को अवसर' के रूप न देखकर, बल्कि मन की नवीन दृष्टि से उसे 'कोरोना में क्रियेशन' के रूप देख रहा था तथा महामारियों का मूल्यांकन करते हुए नये सूत्रों के संदर्भों की तलाश कर रहा था। दरअसल, यह तलाशने की प्रक्रिया इस त्रासदी से बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी। जिसकी उपज है 'कोरोजीवी कविता' का सिद्धांत। कुछ गिनेचुने हैं जो बिना विचारे ही विरोध की लाठी लेकर निकल पड़े हैं तो उनके लिए आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल की निम्नलिखित पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :-

"जिसके साथ ठीक से हुआ नहीं जा सकता/

उसके विरोध में कुछ कहा नहीं जा सकता/.../

विरोध की ठीक-ठीक उपस्थिति का इतिहास/

समर्पण के बार-बार अपमानित होने का इतिहास है" ('क्षीरसागर में नींद' / 15)


(©गोलेन्द्र पटेल

15/10/2021)

मो.नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com



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