{चर्चित कवि व लेखक : वसंत सकरगाए}
{आज यहाँ अहिन्दी भाषी एवं विदेशी (मारीशस ,सिंगापुर व नेपाल आदि) साहित्य प्रेमियों/साथियों के माँग पर आत्मीय कवि वसंत सकरगाए की कविताएँ प्रस्तुत करते हुए मुझे अत्यंत आनंद की अनुभूति हो रही है...|खैर|}
1).
*जग़ह*
पायदान पर पाँव रखा ही था और
तुम लोगों ने उसे रोक दिया बस में चढ़ने से
कहकर कि सीट खाली नहीं है!
हालाँकि बहुत मिन्नते कीं उसने
किसी से नहीं कहेगा थोड़ा-थोड़ा खिसकने को
तुम्हारी निर्धारित जग़हों के बीच
नहीं बनाएगा कोई जग़ह अपने लिए
मुँह से मुँह मिलाकर
कोई खलल नहीं डालेगा तुम्हारी बातों में
बल्कि तुम्हारी सीट के ऊपर बने केबिन से
तुम्हें ज़रूरत होगी अपने सामान से किसी चीज़ की
तुम्हें ज़हमत नहीं उठानी पड़ेगी
हिचकोले खाते हुए खड़े होने की
उतारकर तुम्हें दे देगा तुम्हारा सामान
एक कृतज्ञ की भाँति
बावजूद इसके कि तुम्हें ज़रा भरोसा नहीं उस पर
मगर एक पक्के भरोसे की तरह वह
तुम्हें थाम लेगा सामान उतारते वक़्त
अपने किसी सहयात्री
पर गिरते समय
पर तुम्हें लगा, रेलिंग पकड़कर खड़ा यह ठूँठ
तुम्हें देखने नहीं देगा
एक-दूसरे को
वह देखता रहा बस को
आँखों से ओझल होने तक
और तुमने पलटकर भी नहीं देखा
एक आदमी कितना वंचित हो गया जीवन से
यह आख़िरी बस थी
और उसे
अपने घर लौटना था!
रचना : 18/10/2021
2).
* मैं अपनी माँ को छल रहा हूँ *
बचपन में जो-जो छल-कपट माँ ने किए मुझसे
अब उसका सारा हिसाब
चूकता कर रहा हूँ माँ से
वे तमाम चीज़ें जो सख़्त नापसंद थीं खाने में मुझको
जिन्हें देखते ही मुँह फेर लेता था दूसरी तरफ़
उसी तरफ़ से कोई ज़ाएकेदार छलावा
ईज़ाद कर लेती थी माँ
मेरी अच्छी सेहत के ख़ातिर
आटे में गूँद देती थी घिसकर रात का गला बादाम
इतना महीन पिसती थी अखरोट की गिरियाँ
कि संभव न था तरकारी के रसे में उसकी शिनाख़्त करना
कटोरे भर-भर खीर पी जाता था
मगर पता नहीं चलता था कि इसमें घुला है
लाल मस्से जैसा चिंरोजी का बीजा
दवाई की शीशियों में अनार-मौसम्बी का रस भर देता हूँ
दूध में घिसकर बादाम
माँ कहती है सिर्फ़ दो मुनक्का और मैं
तवे पर गर्म करते समय
छ: मुनक्कों की बनाता हूँ दो परतें
माँ तुम्हीं तो कहती हो
जैसा देव
वैसी पूजा!
रचना : 15/ अक्टूबर/2021
3).
*स्मृतिशेष बरगद*
किसी ने दिया हो कुछ भी नाम उसे
अनुरूप काम के अपने बनाया हो धाम उसे
पर मुझे बहुत माक़ूल लगा
उसे कहना
प्रतीक्षालय !
अधीन नहीं था वो किसी घर-आँगन का
पर सुनता था दु:ख-सुख
राष्ट्र, समाज और कितने ही बाखल-बरामदों का
कि जटाओं से जिसकी लूम-झूम लेते थे
स्कूल आते-जाते कितने ही बच्चे
कि स्त्रियों ने बाँध रखी थीं
तन पर जिसके कच्चे सूत की पक्की मन्नतें
कि ताज की तरह ही उसके भी तन पर
उकेरे गए कितनी ही मुमताजों के नाम
कि जिसके पत्ते-पत्ते पर गूँजते रहे
परिंदों की प्रणय-लीलाओं के गीत-मधुर
कि चुनावों में उसके देवत्व की लेकर शपथ
दिए गये झूठे आश्वासन
कि राष्ट्रीय समस्याओं पर आड़ से उसकी
शब्दवीरों ने छोड़े तीर भोथरे
कि चाल-ढाल में बेढब निपट लोगों तक ने
बैठकर नीचे उसके कोसा,समय के ढब को कितनी ही बार
कि जिसके साये में पनपी तक नहीं
जातपात धर्मभेद की कोई मीमांसा कभी
और क्या प्रमाण दूँ कि वो था कितना व्यवाहरिक!
वो एक जीवंत प्रतीक्षालय था
कुछ ग्रामीण बस-यात्रियों का
अंधाधुंध विकास के हाथों
जिबह किया गया जिसे
दिन दहाड़े एक दिन
फ़िलहाल जो बस-यात्री हैं विस्थापित
उनके लिए प्रस्तावित है
प्रायोजक किसी निजी बड़ी कम्पनी का यह विज्ञापन
कि आकर्षक रंग-रोगन और सुविधाओं से लैस
बनेगा एक प्रतीक्षालय
स्मृतिशेष उस विराट बरगद की जग़ह
जिसकी उखड़ी-बिखरी यहाँ-वहाँ पड़ी जड़ों में
उखड़-बिखर गई हैं हाल-फ़िलहाल
प्राकृतिक बोध, परम्परा की मजबूत जड़ें
एक अदृश्य में दृष्टिगत और स्पष्ट है जो
आसन्न किसी नए भ्रष्टाचार की
जड़रहित अमरबेल की अदृश्य जड़ें
जो जमती हैं प्रायः
किसी विराट चरित्र को काटकर ही
खड़े-खड़े
देखते-देखते ही।
('निगहबानी में फूल' से)
4).
*मेरे तकिए में डाकिया रहता था*
पिंजारे के पास अपना तकिया ले जाता हूँ और कहता हूँ धून दो इसके कपास का रेशा-रेशा
अर्से से परेशान हूँ कि कहाँ ग़ायब हो गया पता नहीं
कि इसके भीतर कभी एक डाकिया रहता था
पिंजारे की हैरत भरी नज़रों को खूब समझता हूँ
मगर अब बड़ा मुश्किल है उसे समझा पाना
कि इस तकिए से निकलकर एक डाकिया
अक्सर मेरे सपनों में आता था
पत्र-पत्रिकाओं का एक पुलिंदा
स्वीकृत-अस्वीकृत रचनाओं की चिट्ठियाँ
और छपी रचनाओं का मानदेय
मनीऑर्डर फॉर्म पर दस्तख़त लेकर दे जाता था
वह तो वापस चला जाता था लेक़िन
उसके दिए रुपये और चिट्ठियों को अक्सर
अपने इसी तकिए के नीचे रख लेता था
और अपनी इसी ख़ुशबू में छुपकर
एक डाकिया मेरे तकिए में रह जाता था
दूसरों के सुख-दुख बाँटते-बाँटते
कभी फुर्सत में होता तो अपना दुखड़ा सुनाता था
कि चढ़ना-उतरना होता है दस-दस माले
सुरसा की तरह बढ़ते इस शहर के मुँह में
उसकी हैसियत मच्छर जैसी
इस मोहल्ले में ऐसा कौन था जिसे वह नहीं जानता था
और पूरा मोहल्ला उसे जानता था
वह हर घर का पारिवारिक सदस्य होता था
ईमेल व्हाट्सएप मैसेज मैसेंजर और
ऑनलाइन पेमेंट के इस दौर में
अर्सा हुआ दिखा नहीं डाकिया
आता होगा तो सिक्युरिटी-गार्ड ले लेता है चिट्ठी-पत्री
एक डाकिया कभी मेरे तकिए में रहता था
और अक्सर मेरे सपनों में आता था
रचना : 09/10/2021
5).
*मैं तुम्हारा अपराधी हूँ माँ!*
अस्पताल के बिस्तर पर
यह जो रह-रहकर तुम चीख़ रही हो माँ!
हड्डियों के दर्द से तड़पकर
इस दर्द से बावस्ता
कितनी ही तारीख़ें चीख़ रही हैं मेरे भीतर
और मेरी पलकें भींग रही हैं बारहा
और कितना ज़ालिम खूँखार यह दर्द तुम्हारा
कि देखते ही तान देता है
अस्थिरोग विशेषज्ञ पर बंदूक
और वह हाथ खड़े कर देता है
मैं तुम्हारी प्रथम प्रसव-पीड़ा का कारण
कि मेरे जन्म के दौरान
तुम्हारी हड्डियों में पैबस्त हुआ होगा यह दर्द पहली बार
मानो टूट ही गई थी
तुम्हारी देह की एक-एक हड्डी
तुम्हारी हड्डियों रक्त माँस-मंजा से निर्मित
कि चीख़ना चाहूँ तो चीख़ नहीं पाता हूँ
इतना लाचार बेबस निरुपाय
मैं तुम्हारा अपराधी
मुझे क्षमा कर दो
माँ!
रचना : 30/सितम्बर/2021
6).
*मेरी प्रिय पुस्तक*
कितनी तो जुगत की और क्या-क्या नहीं किए धतकरम
हाथोंहाथ उठवायी,बिकवायी चेले-चपाटियों से
शोधार्थियों से अकाल पड़वाया
छपे कई-कई संस्करण
क्या संतरी और क्या मंत्री
किसके नहीं लगाए चक्कर
यहाँवहाँ पुस्तक खपवायी
बचा नहीं कोई विश्वविद्यालय-पुस्तकालय
कहाँ नहीं आया पहाड़-झरना
रसूल हमज़ातोव का उकाब बैठाया डाल पर
पिरोये इतने सूत्र जैसे रिल्के की चिट्ठियाँ
और चीफ की दावत का मर्म कहाँ परोसा नहीं
छत्तीस पकवानों से भरे थाल में
दुबका रहा एक कली अचार
चाटुकारिता के लिए
छूटा नहीं कोई सिद्ध आलोचक
तुलसी ग़ालिब टॉलस्टॉय चेखव नेरुदा की
जिसने नहीं दी दुहाई
गढ़े नहीं कसीदे
और इस साहित्य-समर में कौन ऐसा प्रतिस्पर्धी
जहाँ न मिले पानी
ऐसी जग़ह जिसे निपटाया नहीं
पर,हाय री क़िस्मत!
किसी भी पाठक की "प्रिय पुस्तक"
हो न सकी-
'मेरी पुस्तक' !
रचना : 29/09/2021
लिंक :- https://youtu.be/Fb5mddPCT807).
*निर्भीकता एक ज़िद है*
मुझे पता है धँस सकती ज़मीन और
मेरा घर हो सकता है धराशायी
इसका मतलब यह तो नहीं
मैं छोड़ दूँ घर बनाना
मुझे पता है धँस सकती है सड़क
हो जाऊँ जम़ीदोज़,लौटकर न आऊँ घर
इसका मतलब यह तो नहीं
निकलूँ ही नहीं घर से
गोली लगने से एक पक्षी
मर जाता है आसमान में
इसका मतलब यह तो नहीं
पक्षी बंद कर देते हैं उड़ना
हर भय के विरुद्ध एक ज़िद है
निर्भीकता!
रचना : 16/09/2021
■■■★★★■■■
संक्षिप्त परिचय :- कवि वसंत सकरगाए 2 फरवरी 1960 को हरसूद(अब जलमग्न) जिला खंडवा मध्यप्रदेश में जन्म। म.प्र. साहित्य अकादमी का दुष्यंत कुमार,मप्र साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान,शिवना प्रकाशन अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान तथा अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्यिक पत्रकारिता के लिए ‘संवादश्री सम्मान।
-बाल कविता-‘धूप की संदूक’ केरल राज्य के माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल।
-दूसरे कविता-संग्रह ‘पखेरु जानते हैं’ की कविता-‘एक संदर्भ:भोपाल गैसकांड’ जैन संभाव्य विश्विलालय द्वारा स्नातक पाठ्यक्रम हेतु वर्ष 2020-24 चयनित।दो कविता-संग्रह-‘निगहबानी में फूल’ और ‘पखेरु जानते हैं’
संपर्क-ए/5 कमला नगर (कोटरा सुल्तानाबाद) भोपाल-462003
मो.नं. : 9893074173
ईमेल : vasantsakargaye@gmail.com
{ई-सम्पादक : गोलेन्द्र पटेल}★ संपर्क सूत्र :-
नाम : गोलेन्द्र पटेल
{कवि , लेखक व सम्पादक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक ,
काशी हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र}
संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com
■ यूट्यूब चैनल लिंक :-
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■ फेसबुक पेज़ :-
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◆ अहिंदी भाषी साथियों के इस ब्लॉग पर आपका सादर स्वागत है।
◆ उपर्युक्त किसी भी कविता का अनुवाद आप अपनी मातृभाषा या अन्य भाषा में कर सकते हैं।
◆ मारीशस , सिंगापुर व अन्य स्थान(विदेश) के साहित्यिक साथिगण/मित्रगण प्रिय कवि वसंत सकरगाए सर से बेझिझक बातें कर सकते हैं।
◆ कॉमेंट में निम्नलिखित हचटैग करें।
#वसंतसकरगाए #golendragyan
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