रात दो बज कर तीन मिनट हो रहे हैं। मुझे नींद नहीं आ रही है। जबकि मैं बहुत थका हुआ हूँ, फिर भी नींद नहीं आ रही है। क्या आदमी जब अत्यधिक थक जाता है तो उसकी नींद भी थक जाती है? वह आने का नाम नहीं ले रही है। आँखों में अजीब सी बेचैनी है, छटपटाहट है। किसी ने दोपहर में मेरे बारे में जानना चाहा। उस वक्त मैं एक साहित्यिक कार्यक्रम में था। अपने बारे में कुछ भी नहीं बताया। वैसे भी मैं अपने बारे में किसी को कुछ नहीं बताता हूँ। रचनाकारों को तो और भी नहीं। क्योंकि रचनाकार दूसरे की व्यथा को अपनी कथा या काव्य का खनिज बना लेते हैं। वे सम्मानित होते हैं, पुरस्कार पाते हैं, प्रकाशित होते हैं। पुरस्कारराशी पर अपना पूरा अधिकार जताते हैं। वे अपने उपजीव्य व खनिज को भूल जाते हैं जो कि उस पुरस्कारराशी के असली हकदार होते हैं। अरे भाई, आपको सम्मान मिल रहा है फिर भी आपके मन में धन की लालच बनी हुई है। यानी आप सच्चे कवि नहीं हैं, लेखक नहीं हैं। संत कवियों को शायद ही कोई सम्मान या पुरस्कार मिला हो। क्योंकि वे असली कवि थे। रीतिकालीन कवियों में कविकर्म के लिए सम्मान, पुरस्कार व धन वगैरह मिलता था लेकिन उन्हें ही जो अपने राजा को ख़ुश करते थे। आज तो राजा को ख़ुश करनेवाला कवि या लेखक सच्चा सर्जक कहलाने का हक खो देता है। बहुत से खो चुके हैं। बहुत से खो रहे हैं। बहुत से खोने वाले हैं। बहुत से खोयेंगे। खैर, साहित्य का काम क्या है? इसे बताने की जरूरत नहीं है। दुनिया में एक से बढ़कर एक रचनाकार हुए हैं। काफी परिवर्तन हुआ है। लेकिन खनिज वही है जो कल था, आज है और कल रहेगा। बस चयन करने की दृष्टि बदली है। आदिकवि के यहाँ जो दुःख था। वही आज के बिल्कुल ताजे कवि के पास भी है। बस उसका स्वरूप बदल गया है। क्योंकि भाषा के बदलने पर खनिज का स्वरूप स्वतः बदल जाता है। भाषा गतिशील है। उसकी जीवटता उसकी गतिशीलता में होती है। किसी भाषा से उसका भास गायब होने पर, वह मर जाती है। भाषा में भास भाव से होता है। ये भाव स्थायी भाव होते हैं। सभी भावों की जननी अमर जिजीविषा होती है। मेरे भीतर भी वही जिजीविषा है जो मुझे ज़िंदा रखी हुई है।
मैं शब्दों से खेलना जानता हूँ। मैं चाहूँ तो शब्दों के भँवर में आपको फँसा सकता हूँ। पर, ऐसा करूँगा नहीं मैं। क्योंकि आप मेरे भावी जीवनीकार हैं। आपको यह जानने का हक है कि मेरा जन्म कैसे हुआ, किन परिस्थितियों में हुआ, कब हुआ। तो कब से शुरू करूँ अपने बारे में बताना।
आरोही क्रम में अथवा अवरोही क्रम में। आप किस क्रम में जानना चाहते हैं मेरे बारे में। जन्म से ही शुरू करता हूँ। मैं शुरू करने से पहले कुछ बता देना चाहता हूँ। मेरी माता के पिता एक पहाड़ी मजदूर थे लेकिन दादा किसान थे। मेरे नाना जी के पिता बुढउ नाना बहुत ही मोट बुद्धि के थे। मोट का मतलब है कि वे दिमाग से दिव्यांग थे। उनके परिवार वाले उसी का लाभ उठाकर उनकी बीस बीघा जमीन अपने नाम करवा ली। फिर भी शेष दो बीघा पहाड़ की ढलान पर बची हुई थी। उसे वे अपनी बहनोई को लिख दिये थे। लेकिन वे नाना जी एवं उनके तीन अन्य भाई और दो बहनों का मुँह देखकर। दो-तीन वर्षों बाद पुनः नाना जी के नाम कर दिये। पिता कितना भी नालायक क्यों न हो? रामायण देखने वाले अपने पिता का सेवा भक्ति भाव से करते हैं। वैसे भी भारतीय संस्कृति में भी पितृसेवा ईश्वर सेवा के समान माना गया है। मेरे नाना जी भी पितृभक्त थे। वे अपने पिता की खूब सेवा किये। मरते वक्त वे आशीर्वाद दिये कि बेटा वे बेमान कभी सुखी नहीं रहेंगे। किन्तु तुम सब उन धोखेबाज़ों से बेहतर जीवन जीयोगे। वही हो भी रहा है। कहते हैं न कि मरते हुए व्यक्ति की जिह्वा पर सरस्वती का वास होता है। यमराज के पास होने से उस वक्त उसकी आत्मा पवित्र हो जाती है। नानाजी की दोनों बहनों का विवाह नहीं हुआ था। तभी उनके पिता मर गए। लेकिन नाना का विवाह हो गया था। नानी जी बहुत ही सज्जन एवं मातृ-वत्सल महिला थीं। वे अपनी ननदों एवं बेटियों और देवरों के लिए माँ थीं। जबकि नाना जी की माँ जीवित थीं।
बचपन में ही नाना जी का विवाह हुआ था। अठारह-बीस की उम्र में दो बेटों एवं तीन बेटियों के पिता बन गए थे। पहले बड़ा बेटा था, उसके बाद तीन लगातार बेटियाँ। फिर एक बेटा। यह क्रम था उनकी संतानों का। वे बचपन से ही पहाड़ों में काम करते थे। वे पहले गिट्टी फोड़े। फिर बोल्डर काटे । फिर पटिया निकालने लगे। वे कुछ कमा कर व कर्ज लेकर पहले अपनी दोनों बहनों की पारी-पारा शादी की। फिर अपने तीनों छोटे भाइयों का भी पारी-पारा ब्याह किये। कर्ज में डूब गए थे। तभी उनके भाई अलगौझे हो गए। उनका बड़ा बेटा (बड़े मामा) लाड-प्यार की वजह से बिगड़ गये थे। सोचा विवाह कर देंगे तो वे सुधार जाएंगे। काम-धाम करने लगेंगे। वे अपनी बड़ी बेटी (बड़ी मौसी) की और बड़े बेटे की शादी एक ही साथ कर दिये। लेकिन विवाह के बाद बेटा भी अलग हो गया। तब मेरी माँ की शादी नहीं हुई थी। वे बहुत ही कर्ज में डूबे हुए थे। रात-रात तक पहाड़ में काम करते थे। अधिक श्रम करने से आदमी कम उम्र में बूढ़ा हो जाता है। वे भी चालीस की उम्र में साठ के दिखते थे। पहाड़ अधिक तोड़ने से उन्हें भस्सी लग गई थी। डॉक्टर की सलाह थी कि वे पहाड़ में काम न करें। लेकिन पहाड़ी मजदूर पहाड़ तोड़ने के अलावा और क्या कर सकते हैं। कुछ नहीं। वे मजबूरी में पहाड़ तोड़ते रहें। फेफड़ा खराब होने की वजह से खटिया पकड़ लिए। उस वक्त उनका छोटा बेटा अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर पहाड़ में गिट्टी फोड़ने लगा। ऋण-कर्जा लेकर किसी तरह माँ की शादी हुई। शादी भी कुछ दिलचस्प ही है। पिता जी के पिता (यानी मेरे दादाजी) नानाजी को दूसरे का खेत और अपना बिका हुआ खेत सब जोड़-जाड़कर प्रेत्यक बच्चे पर पाँच बीघा बता कर शादी के लिए मना लिये। मेरे पिता तीन भाई हैं। आप सोच सकते हैं कि मेरे माता-पिता का ब्याह कैसे हुआ होगा। विवाह के पूर्व से मेरे पिता जी रीढ़ का विकलांग हैं और मेरी माँ बचपन से शारिरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ हैं। मेरी माँ अपनी शादी के समय रूप से स्वस्थ हृष्ट-पुष्ट हट्टी-कट्टी सुंदर युवती थीं। तसवीर देखकर लगता ही नहीं है कि मेरी माँ एक मजदूर की बेटी हैं।
ऐसा लगता है जैसे कोई राजकुमारी हैं। नानी अधिया-टुकड़िया खेती-बाड़ी करती थीं। ऊख पाँच-पाँच बीघा अधिया बोया जाता था। और कुछ पैसे पर भी। सभी मिलकर खेतों में काम करते थे। माँ और छोटी मौसी में काम को लेकर खूब लड़ाइयाँ होती थीं। कभी-कभी झोटा कबरौवल भी हो जाता था। बहरहाल वे जब अपनी स्मृति में जाती हैं तो बहुत दुखी होती हैं। बड़ी मौसी की मृत्यु मेरे जन्म से पहले ही हो गयी थी। इसलिए उनकी गोदी में खेलने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला। छोटी मौसी की शादी करने के बाद नाना जी चल बसे। छोटे मामा जी मौसी का गौना कराये। मौसी के गौना के साल ही वे दसवीं कक्षा की परीक्षा दिये थे लेकिन वे फेल हो गए। उनकी भी पढ़ाई छुट गई। फिर कुछ वर्षों बाद उनकी शादी हुई। तीस की उम्र में वे भी चल बसे। उनकी एक बेटी और दो बेटे हैं। जरा कल्पना कीजिए कि मेरी माँ यह जानने के बाद क्या सोची होगी कि उनका जिन से शादी हुआ है, वह विकलांग है। जब नानी को पता चला कि मेरे पिता जी विकलांग हैं तब नानी ने कहा कि बच्ची गगरी ठनठनही निकलने पर चार बार बदली जाती है। लेकिन माँ ने पिताजी के साथ रहना स्वीकार कर लिया। मैं पैदा भी नहीं हुआ था। माँ केवल एक बार ससुराल आयी थी। वह चाही होती तो उसकी शादी कहीं और हो जाती। परंतु, उसने पिताजी को अपना परमेश्वर घोषित कर दिया। उसने इस विसंगति को अपना भाग्य स्वीकार कर लिया। जबकि पिताजी माँ को खूब पिटते थे। उन्हें और दहेज चाहिए था।
मैं जब पूछता हूँ कि तूने पिताजी को छोड़ क्यों नहीं दिया। वे तो तुम्हें बहुत कष्ट दे रहे थे! पिताजी एक नंबर के गजेड़ी व जुआड़ी थे। वे गजेड़ी तो अब भी हैं। भले ही मुझसे या मेरे भाइयों से डरते हों। हाँ, उत्तर में माँ कहती है कि मैं यही सोचती थी कि कहीं दूसरा इनसे भी बुरा निकल जाए। तब मेरा क्या होगा? तुम्हारे नाना तो कर्ज के बोझ से दबकर दम तोड़ चुके थे। इसलिए मैंने सोच लिया कि अब मैं अन्य जगह शादी नहीं करूँगी। चाहें तुम्हारे पिताजी मुझे सम्मान से अपनाते या नहीं अपनाते। तुम्हारे नानाजी तुम्हारे दोनों मामाओं से कहे थे कि वे मेरे लिए पहाड़ के पास एक कोठरी बनवा देगें। जब मैं दूसरी बार गौने आई, तब तुम मेरे पेट में थे। तुम...,विपत्ति के दिनों में तुम्हारा जन्म हुआ। मैं तुम्हें लेकर बरधवानी (घास-फुस की गौशाला) में रहती थी। बरसात में बहुत दिक्कत होती थी। तुम्हारे पिता तुम्हारे लिए दूध नहीं लेते थे। मैं बीमार थी। मुझे दूध होना बंद हो गया था। तब ई बड़की माई अपनी बकरिया का दूध चोरी से रात में देती थीं। उन दिनों इनके घर से तुम्हारे बड़े बढ़का बाउओं के घर से झगड़ा हुआ था। तुम्हारे पिताजी अपने भाइयों के सुनते थे। उन्हीं के मानते थे। कभी-कभी लगता था कि तुम्हें लेकर किसी कुँएं या नदी-नार में कुद जाऊँ। पर, मैं पता नहीं क्यों सोचती थी कि तुम मेरे लड़के हो। मेरी आँखों का तारा हो, मेरा ख़ून हो। यदि लड़की होते तो अब तक जीवित नहीं रहती। तुम से मेरा बेड़ा पार जाएगा लेकिन तुम्हारे पिताजी को बुढ़ापे में समझ में आएगा। रात में मैं तुम्हें लेकर कुद-मरने गयी थी। लेकिन सोचते-सोचते भोर हो गया। पड़ोस की महिलाएँ खेत की ओर जाने लगी थीं। दिशा जाना या खेतों की ओर जाना एक गुप्त मुहावरा है। हम दोनों को एक-दो औरतें देख भी लीं। जब वे पूछीं यहाँ क्या कर रही हो फलाने बो? तब मैंने कहा कि मदार के नीचे तुम्हें नहवाने लाई हूँ। उस दिन सुबह छह बजे तुम्हें लेकर तुम्हारी नानी के घर निकल गई। आधी दूरी (लगभग बीस किमी.) पैदल चली। पैसे थे नहीं। भूख लगी थी। तब तुम्हें रास्ते में अपनी एक सहेली के घर ले गई। संयोग से उसके यहाँ गाय का दूध था। तुम्हें पिलाई। फिर वहाँ से तुम्हारी छोटी मौसी के यहाँ गई। वहाँ उसी दिन रात को अपने घर (नानी के यहाँ) तुम्हें ले के पहुँची। तब तुम तीन महीने के थे। जब तुम साल भर के हो गये। तब तुम्हारे पिताजी घुमते-घामते तुम्हें देखने आयें। बस, तुम्हें देखकर वे वापस लौट आयें। फिर एक बार जाड़ा के दिनों में तुम्हारे लिए स्वेटर-पैजामा लेकर आये थे। उसके बाद पाँच साल के लिए तुम मेरे लिए लव-कुश रहे। मैं तुम्हारे लिए सीता। मैं तुम्हें लेकर ठोकर खाती रही। जानते हो?
जिसका समय ख़राब होता है उसका भाई-बंद भी साथ नहीं देते हैं। मैं दिन भर दूसरों के खेतों में बन्नी-मजूरी करती थी। तुम्हें मेंड़ पर सुला देती थी। दूसरे गाँव में रोपनी करने जाती थी। एक बार तुम्हें बहुत पिरकियाँ हो गयी थीं और ऊपर से तुम हगते बहुत थे। माई के यहाँ की दवाई काम नहीं कर रही थी। परेशान होकर तुम्हें दवाई के लिए लेकर मैं अपने बड़का भइया के ससुरार गई थी। मैं तभी का उनके ससुराल गई हूँ। उनकी साँस (माई) मुझे बहुत मानती थीं। वहीं की दवाई से तुम सही हुए, स्वस्थ हुए। लगभग साढ़े पाँच साल बाद तुम्हारे पिताजी सम्मान के साथ मँड़ई से करकट छाने के बाद हम दोनों को साथ लाये। कुछ दिन बाद फिर वही नटंकी। तुम्हारे पिताजी काम-धाम करते नहीं थे। कभी देवघर, त कभी मइहरमाई, त कभी विन्ध्याचल, त कभी बम्बई घूमते थे। लुंगी-गमछा पर ही अपने दोस्तों के साथ गुप्ताधाम चले जाते थे। एक बार तुम्हारे पिताजी कहें कि वे भीटे (घर से एक मिल दूर) पर से भंटा (बैगन) तोड़ कर लाते हैं। लट्टी-चोखा बनेगा। 'ये बाबू हम तवन अहरा सुलगा देहली। उ तवन लुंगी-गमछा पर गुप्ताधाम चल गइलन। ई त अइसन इनसान हयन। बेटवा मरे या मेहरिया मरे इनके रंग में कउनो फरक ना पड़ी। ई एकदमे फक्कड़ बाड़न। तोनहन दूनो मिला माई के यहाँ भइला। ई दूनो मिला यहाँ।...'
मैं नानी के यहाँ ही एक पहाड़ी स्कूल में पहली कक्षा तक पढ़ा। वहाँ महीने के अंत में चावल-गेहूँ दूसरे गाँव में मिलता था। तब मैं झोला लेकर अपने हिस्से का चावल-गेहूँ लाने के लिए अन्य साथियों के साथ जाता था। फिरंगी वाला लमचूस खरीद कर खाता था। उन्हीं दिनों माँ को भंडारी देवी के दर्शन हेतु अहरौरा (मिर्जापुर) जाना था। माँ मुझे फुसलाकर चली गई। मैं अन्य बच्चों के साथ दिनभर खेलता रहा। जब शाम हुआ तो कुछ बच्चे खिलौने लेकर पास आ गए। अब आप सोच सकते हैं कि मेरे मन में क्या भाव जागृत हुआ होगा और मैंने क्या किया होगा? मेरी माँ भी मेरे लिए लोहे की सिटी लाई थी। जैसा कि ट्रॉफिक पुलिस के पास होता है। ठीक वैसा ही था। इस माथे से बजाता था, तो उस माथे की चिरई-कउआ उड़न छू हो जाते थे। उसको बजा-बजाकर मैं मक्के व बाजरे के खेतों को अगोरता था। फिर अगले साल अपने गाँव पर प्रथम कक्षा में ही पढ़ा। उसके बाद। पिताजी के एक मित्र ने मुझे अपने प्राइवेट स्कूल में दाखिला दिलवाया। मगर मैं भोजन की समस्या की वजह से समय पर नहीं पहुँच पाता था। उसी साल पिताजी महीने भर बीमार हो गये। घर में किसी दिन चूल्हा जलता था, किसी दिन नहीं। खाली पेट पढ़ने का अर्थ आप समझते होंगे।
मैं अपनी कमजोरी कितना दिन छूपाता। एक दिन गुरुजी घर चले आएं। जात के चमार थे। लेकिन पिताजी के अजीज दोस्त थे। घर की हालत देखकर मेरी फीस माँफ कर दी। लेकिन भोजन की समस्या ज्यों की त्यों बनी रही। उसी साल से सरकारी स्कूलों में तीन सौ कुछ रुपये मिलने शुरू हो गये थे। बीच में पता नहीं क्यों वह प्राइवेट स्कूल बंद हो गया। फिर मैं अपने गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ने लगा। लेकिन उस समय तक मैं व्यासजी की कथा सुनने जाने लगा था। इसलिए नहीं कि वे भगवान राम की कथा सुनाते हैं। बल्कि इसलिए कि वहाँ हलवा-पूड़ी पेट भर मिलता था और हम सब प्रसाद घर भी पालीथीन में भर कर लाते थे। आगे चौथी कक्षा से सरकारी स्कूलों में भोजन भी मिलने लगा। भोजन की समस्या खत्म हो गई। हम दोपहर में बारह बजे चापकर खाते थे। एक बार में आठ पहर का काम हो जाता था। आठवीं कक्षा तक ड्रेस व भोजन स्कूल पर ही मिलते थे। फिर नौंवी कक्षा से बारहवीं कक्षा तक की पढ़ाई मैंने एक राजकीय इंटर कॉलेज से किया। वहाँ भी एक से आठवीं कक्षा तक के बच्चों को भोजन मिलता था। सो, मैं वहाँ भी दोपहर का भोजन कर लेता था। जो प्राइमरी या प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक हैं वे समझ सकते हैं कि क्यों गाँव में कम उम्र के बच्चों को भी उनके माता-पिता पाँच साल का बताकर नाम लिखवा देते हैं। कुछ पैसे के लालच में लिखवाते हैं तो कुछ और। असल में मैंने तो एक से बारहवीं कक्षा तक की पढ़ाई के केवल पेट भर भोजन के लिए किया है।
हांलाकि मैं आठवीं कक्षा तक आते-आते कवि के रूप में स्कूल-कॉलेज में प्रसिद्ध हो चुका था। भोजपुरी में मेरे गीत बिकने लगे थे। और एक बात कि दू हजार पन्द्रह तक मुझे कम से कम दस लोग गोद लेना चाह रहे थे। इनमें शिक्षक से लेकर नेता तक शामिल हैं। मगर, मुझे किसी की बात अच्छी नहीं लगी। मैं अपनी माँ से दूर नहीं रह सकता। माँ मेरी आत्मा है। चाहें ईश्वर स्वयं आ कर आफ़र क्यों न दें! मगर, मुझ पर केवल और केवल मेरी माता-पिता ही हुकूमत कर सकते हैं। शेष अन्य कोई भी नहीं। मुझे पिता की तुलना में माँ से जादा लगाव है। मैं माँ को पिता से श्रेष्ठ समझता हूँ। जब प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ता था, तो नरेगा (मनरेगा) में काम करता था। जिन सड़कों में काम किया था। वे उस समय अठारह फीट चौड़ी थीं। किंतु अब छह फीट हो गई हैं। नालियाँ पट चुकी हैं। नहर नाली में तब्दील हो चुकी है। एक बार नौंवी कक्षा में कॉपी-किताब से भरा हुआ बैग लेकर रामनगर की मजदूरमंडी में खड़ा था, तो वही से दो सौ पचास रुपये प्रति दिन के हिसाब से मकान का डिज़ाइन निकालने चला गया। तब मसाला बनाने नहीं आता था लेकिन उस दिन पता नहीं कैसे अच्छा मसाला बना पाया। कितने एक में कितने सीमेंट पड़ेंगे। सब सही रहा। कहते हैं कि गरीबी महान प्रतिभा की जननी है। जहाँ हालात उसे हुनर सीखा देता है। बीच में मेरे अनुज की तबीयत बिगड़ गई। तब मैं अपने गाँव के एक साथी के साथ पड़ाव की मजदूरमंडी में गया। हम दोनों तीन दिनों तक एक साथ एक ही घर पर काम किये। फिर चौथे दिन मंडी से अलग-अलग मालिकों के साथ गये। संयोग से मैं एक रिटायर्ड कर्नल के यहाँ गया। डिज़ाइन निकालना था। एक हफ्ते तक आराम का काम था फिर लेबरई में जो होता है वही हुआ। गाजीपुर के एक यादव जी थे। वे मेरे हिस्से की सीमेंट-बोरी दो मंजिलें पर चढ़ता थे। वे उसके बदल में मुझसे एक नाप ताड़ी लेते थे। कर्नल पटेल थे, मेरे बिरादर थे। पर, उनके यहाँ जाति के भेदभाव के सूत्र मौजूद थे। वे मुझे अपने गिलास में पानी देते थे। लेकिन यादव जी को कांच के गिलास में। आज भी जब कोई मुझे कांच के गिलास में पानी देता है। कर्नल साहब की छवि सामने आ जाती है। उनका बड़ा बेटा यूपी बोर्ड के हाईस्कूल में पचासी प्रतिशत अंक प्राप्त किया था। वे बहुत ख़ुश थे। समाचारपत्रों में उसकी तसवीर थी। मैं सोच रहा था कि काश मेरे पिता भी पढ़े होते, तो मेरी तसवीर भी समाचारपत्रों में छपती। क्योंकि मैंने भी अच्छे अंक अपनी नौवीं कक्षा में पाया था। एक वर्ष बाद हाईस्कूल में उससे अधिक।
मैं पूर्णतः शाकाहारी हूँ। ताँबे के लोटे में पानी पीता हूँ, कभी-कभी परई में भी और पीतल की थाली में खाता हूँ। हीताई-नताई में चौथी लेकर जाना हो। या फिर खिचड़ी लेकर जाना हो। हर जगह मेरे लिए सादा भोजन ही बनता हैं। ऐसा नहीं है कि मैं शुद्ध भक्त हूँ। मैं भले ही सत्रह वर्षों तक शिव की उपासना की है। जिसमें मैंने प्रारंभिक सात सालों तक शिव का निर्वस्त्र होकर जलाभिषेक किया है। तेइस वर्षों तक शक्ति की उपासना की है। ये सब आगे भी पता नहीं कब तक चलेगा। फिलहाल मैं इसे विषय को भविष्य पर छोड़ता हूँ। मैं चमार के साथ एक ही थाली में खाया हूँ, तो मुस्लिम की थाली में भी खाया हूँ, ब्राह्मण की थाली में भी खाया हूँ, नट की थाली में भी खाया हूँ, डोम की थाली में भी खाया हूँ, गड़ेरिया की थाली में खाया हूँ, पहाड़ी-आदिवासी की थाली में खाया हूँ। मुझे चमार पढ़ायें हैं, तो मुस्लिम भी पढ़ाए हैं, ब्राह्मण भी पढ़ाये हैं, आदिवासी भी पढ़ाए हैं। जिनके साथ थाली में मैं खाया हूँ, वे जीवित हैं। जिनसे शिक्षा ली वे भी जीवित हैं। वे सब आत्मीय हैं। आत्मीयता वह आरी है जो भेदभाव की बेड़ी काट देती है। एक बार भोजन के चक्कर में अट्ठारह मिनट लेट हो गया था। मुझे सर्वविद्या की राजधानी की सबसे बड़ी संस्था की अंग्रेजी की कक्षा से बाहर कर दिया गया था। दुःख हुआ कि सरस्वती इस आचार्या को मेरी कक्षाध्यापिका कैसे नियुक्त कर दीं। अरे भाई, हर कोई विद्या की राजधानी में रहकर ही विद्या ग्रहण नहीं करता है।
कुछ विद्यार्थिगण विद्या की राजधानी से बहुत दूर होते हैं उन्हें बढ़ियाई गंगा तैर कर पार करना होता है। समय तो लगेगा ही। थोड़ा सा लेट हो गए तो क्या हुआ। जो मेरे हिस्से की विद्या होगी। वह मेरे पास आएगी। लेकिन उसे यूँ हीं छिन लेना उस दिन बहुत खला। कम से आप एक बार पूछ ली होतीं कि मैं क्यों लेट हुआ। बहरहाल, मैं अपनी धार्मिकता के संदर्भ में कुछ कह रहा था। वह यह कि मैं धार्मिक नहीं हूँ। लेकिन अपने माता-पिता-गुरु को पूजता हूँ। पूजना दरअसल कविता की भाषा कूजना है। मैं बहुत सारे प्रसंगों को छोड़ दिया हूँ। क्योंकि 'अपने बारे में' ऐसा विषय है जिस पर मैं तब लिखता-बोलता रह जाऊँगा जब तक कि मेरा प्राणांत न हो जाए। मैं मिर्जापुर, इलाहाबाद, वाराणसी (वाराणसी में खासकर 'रामनगर, मलदहिया, सामने घाट, हनुमानघाट, मणिकर्णिका घाट, मडुआडीह, मिर्जामुराद व रोहनिया' के प्रसंग) और चंदौली के ढेर सारे प्रसंगों छोड़ दिया हूँ। बस नाम ले ले रहा हूँ ताकि यहाँ काम करने वाले श्रमिकों के पसीने की बूंदें यह न सोचें कि मैं उनको भूल गया हूँ। मैं हवा को सूँघकर बता सकता हूँ कि किसी दिशा में मेरे मजदूर मित्र श्रमरत हैं।
मैं एक घटना आपको और बताता हूँ। दो हजार सोलह में एक राजकीय बालिका इंटर कॉलेज की प्राचार्या (वरिष्ठ प्रिंसिपल) मुझसे मिलने अचानक मेरे घर आयीं। वे मेरे बारे में मेरी बहन से सुनी थीं। वे मेरे द्वारा लिखित एक गीत ('मइया मोरी नींदियों आवे लीन/कि घोरे-घोरे बदरिया छावे लीन/भोरे-भोरे चदरिया ओढावे लीन/ मन की मँड़इया टप-टप चुअ ता/ तन हमार रुअ ता/ अँखियाँ से बहतारे लोर हो/ हियरा में मचल बाटे शोर हो।...') मेरी बहन से सुन चुकी थीं। वे जब आईं, तब मैं भूमि पर लेटा हुआ था। वे मुझसे काफी सारी बातें कीं। अंततः जाते वक्त पूछा कि मैं भूमि पर क्यों सोता हूँ। तो मेरे बोलने से पहले ही मेरी बहन उनकी जिज्ञासाएँ शांत की। प्रिय भाई! आपकी सहानुभूति के संदर्भ में मुझे अपनी ही कविता 'सहानुभूति 'याद आ रही है। जिसकी पंक्तियाँ हैं :-
न तो मेरे पास घर है
न घर बनाने के लिए ज़मीन
मैं एक निर्वस्त्र आत्मा हूँ
भूख की भाषा में दीन
मेरी रात्रि कभी ढली नहीं
मैंने कभी देखा नहीं दिन
बस भटक रही हूँ जंगल-पहाड़
भटकना मेरी नियति है
ओ सहानुभूति!
तेरी धड़कन में मेरे लिए गति है?
आज भी मेरे पास न तो ख़ुद का घर, न घर की इच्छा। मैं बचपन में माँ की गोदी में सोया हूँ। बोध होने पर दूसरे के घर। ऐसा नहीं है कि मैं घर नहीं बनवा सकता हूँ। या मैं दू पहिया या चार पहिया नहीं खरीद सकता हूँ। घर बनवा सकता हूँ, खरीद सकता हूँ। लेकिन मुझे फिर से गीतकार बनना पड़ेगा। आत्मा के विरुद्ध मजबूरन एक भाषा में भर्ती भावना की कसौटी पर अश्लीलता की अभिव्यक्ति करनी होगी! माँ को दिया वचन तोड़ना होगा! मेरे सहोदरो! मैं बहुत थक गया हूँ। आज यहीं तक, फिर कभी मेरे बारे में मुझसे सुन लेना। आप सब की आँखें लाल हो गई हैं। उन्हें विश्राम दो। यदि आप और अधिक जानना चाहते हैं तो इन-इन लोगों से संपर्क करें। कुछ नाम - क, ख, ग, घ, ङ, च....। माँ तो कहती हैं कि वे जब बहुत बीमार थीं। तब आप उनकी सहेलियों का स्तनपान किये हैं। अब आप सब शेष बातें माँ और पिता से ही पूछ लेना। एक दिव्यांग साथी का फोन आ रहा है।
मैं बचपन में मिर्जापुर के लालपुर वाले पहाड़ में पत्थर तोड़ा हूँ, गिट्टी फोड़ा हूँ और बोल्डर काटा हूँ। उनमें से कई भूजूर्गों की मौत हो चुकी है। जो मुझे अपना कत्तल (ढोके से छोटा टूकड़ा) देते थे। वे साथी बाहर जा चुके हैं जो मेरे मोटे पत्थर को अपनी चकधारा से चिरते थे। यूपी के बाहर वे कंपनियों में काम कर रहे हैं। कुछ साथी खींच-तानकर दसवीं-बारहवीं तक पढ़ाई किये। फिर उसके बाद छोड़ दिये। मैं उनका प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ, पढ़ रहा हूँ और परास्नातक में पहुँच गया हूँ। मैं कड़ी धूप में हथौड़ा चलाया हूँ। पहाड़ों में बोल्डर काटते समय एक घुट्ठा छटकर मेरे नड़ीहड़ से टकरा गया, तो मानो मेरे प्राण निकलते-निकलते बचे। अभी तक उसके निशान हैं। देखो! ये हैं। अब जब कभी मैं ईंधन के लिए लकड़ी फाड़ता हूँ, चिरता हूँ। तो मैं महसूस करता हूँ कि निशाना वही है। जो पहाड़ में पत्थर तोड़ने का फल है। अभी पुराने लोग मुझे कवि से अधिक पहाड़ी पथिक कह कर पुकारते हैं। उनकी दादी कह रही थीं कि आप उनके साथ जाड़े के दिनों में सवेरे-सवेरे ही घास काटने जाते थे। हाँ, मैं जाता था। मैं बचपन में ख़ूब घास किया हूँ, काटा हूँ और छिला हूँ। मैं अपने गाँव की बूढ़ी औरतों के साथ घास काटने जाता था। वहाँ, जो हमउम्र के लड़के-लड़कियाँ होती थीं। उनके साथ घास-घास खेलता था। घासों से संबंधित कई खेल हैं। जिनको हम सब खेलते थे। हम घासों का विवाह भी कराते थे। बगीचे में घास काटने जाने पर, कभी होलापाती, तो कभी गोटी-सोटी खेलते थे। खेल-खेल में समय छू मंतर हो जाता था। जब काफी समय हो जाता था। तो हम सब नहर में हिलकर महउवाँ-सहउवाँ काट लेते थे। ऐसा हम इसलिए करते थे ताकि मार खाने से बच सकें। मार से बचने के लिए बोरा का भरा होना आवश्यक था। एक दिन होलापाती खेलते वक्त गोधूलि बेला में एक लड़का (कखग) ने मेरा हसुआ चुरा लिया। जब कुछ लोगों के माध्यम से पता चला तो दूसरे दिन उसने उसके बदले में मुझे अपनी पुरानी बाँकी दी। मेरी माता-पिता सीधे हैं। वे बिना विरोध किये। वे चुपचाप बाँकी ले लिए। मेरे परिवार में कई लोग घास करते थे, छिलते थे। अब उनकी पत्नियाँ घास छिलती हैं। मैं बूढी औरतों के साथ घास छिलता था। उसकी वजह से मैं विभिन्न प्रकार की घासों के औषधीय गुणों को जानता हूँ। मैं पचास से अधिक घासों को पहचानता हूँ। मैंने 'निनावाँ' से लेकर 'नोनियाँ' तक पर अनेक कविताएँ लिखी है। हर घास का मेरे जीवन में अपना महत्त्व है। पिताजी आपके प्रशंसा करते नहीं थकते हैं। वे कहते हैं कि आप सीवान में गोबर सइतते थे। हाँ, सइतता था। पर बस एक साल तक सइता। उस साल मेरी गाय को एक विषैले साँप ने काट लिया था। जिसकी वजह से उसकी मृत्यु गई थी। ईंधन के लिए दिक्कतें होती थीं। सो, गोबर सइता। मैं बगीचे में लकड़ियाँ तोड़ा और बिना। मैं उपला (चिपरी) पाथ लेता हूँ और गोइठा भी। मैं गोहरा लगा लेता हूँ। कभी आप किसी गोबर पाथने वाली स्त्री की हथेली देखना। आपको उन हथेलियों में एक महान कला नज़र आयेगी। वैसे मैं मुसहर साथियों के साथ खेतों में गेहूँ-धान के बालों को भी बीना हूँ। मैं गेहूँ के थ्रैशर पर काम किया हूँ। दो हजार बीस में तो एक दिल दहला देने वाली घटना घटी। जिस थ्रैशर पर मैं काम करता था। उस पर एक मजदूर का हाथ कट गया। गेहूँ लगाते वक्त उसका दाहिना हाथ फँसकर अंदर चला गया। उस दर्दनाक दृश्य की उपज है मेरी कविता 'थ्रेसर'।
भइया, चाचाजी बता रहे थे कि आप साइकिल पर सब्जियाँ बेचते थे। हाँ, मैं बेचता था। मैं एक बार लगभग चार बिस्वा बैगन, धनिया, पालक व टमाटर बोया था। उस साल कई लंगोटिया यार भी अपने खेत अगोरते थे। हम सब बरसात में अपने फसलों को निलगाय, घड़रोज, साँड़ व भैंसा से बचाने के लिए रात में मचान पर तिरपाल ओढ़कर बैठते थे। अक्सर मेंड़ में चूल्हा बनाकर कुछ न कुछ बनाया-खाया जाता था। जाड़े में कचालू तो गरमी में लिट्टी-चोखा। एक बार तो मेरे खेत की सारी ककड़ियाँ तित निकल गयीं। तब उस साल दूसरे के खेतों में आधीरात को ऊँट-सियार की कहानी मैंने दुहराया। वैसे भी खाने-पीने के सामानों को गाँव के लोग आपस में बाँटकर खाते हैं। हम अपने किसी परिचित के खेत में एक-दो ककड़ियाँ तोड़ लेते हैं। हर हलधर सहृदय व उदार होता है। लेकिन उनके खेतों में चोरी करना कठिन है। क्योंकि वे कुत्तों के साथ कुत्तों की भाँति सोते हैं। बहरहाल बात यह थी कि जब मैं साइकिल पर सब्जी बेचता था, तो मेरे साथ मेरे पिताजी भी होते थे। गाँव-गाँव में चिल्ला-चिल्लाकर सब्जी बेचने की वजह से काफी लोग मुझे पहचानते हैं। अब तो गीत बचने की वजह से कई पॉवर स्टार, टॉवर स्टार व हिट मशीन भी मुझे जानते हैं, पहचानते हैं।
(©गोलेन्द्र पटेल
26-08-2022)
कवि : गोलेन्द्र पटेल
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