कर्षित कृषक की होली
देख क्यों सून रहा बोली
चूल्हे पर चढ़े तवे के संग
ईंधन लकड़ी गोईठी दंग
होलिका लपट पीला रंग
लाल ,हरा व सफेद तरंग
भूख के भीतर से उत्पन्न उमंग
पेट में बज रहे नगाड़े को भंग
कर ,हर्षित की तंत्रिका तंत्र को।
दो वक्त के रोटियों के जंग में
अबीर गुलाल से अंग अंग में
फटी झुर्रियाँ दर्द सह रही हैं
धूल ने कहा ध्वनि से
मैं पैरों के नीच था
हवा ने मुझे यहाँ पहुँचाया।
उपर्युक्त दृश्य हैं सड़क के किनारे
और गाँव के कई किसानों का
बटोई में खदकते चावल की
बुद बुदाहट बच्चों के चेहरे पर
चमकता चार चाँद दिखाया।
जिसे देख कह सकता हूँ कि
आज भी कुछ हमदर्दी हैं
जो अपने हिस्से का गोझीया
बाट रहे हैं गरीबों के टोली में
साथ में मीठी खीर मुझे भी
बाटने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
-युवा कवि गोलेन्द्र पटेल
Super nice poem
ReplyDelete