सृष्टि में केदारनाथ सिंह' इसी नाम से 'चौपाल' का विशेषांक आया है। प्रिय कामेश्वर प्रसाद सिंह ने बहुत महत्वपूर्ण और बड़ा काम किया है। मेहनत दिखती है।व्यवस्थित ढंग से सामग्री प्रस्तुत की गयी है। कवि गुरू केदार की स्मृतियाँ, मित्र मंडली में केदार, घर-परिवार में केदार, कृतियों में कवि केदार, कवि का संसार, कसौटी पर कविता-एक कविता:एक आलोचक, कविताओं में कवि, धरोहर और पत्र शीर्षक अनेक खंडों में लगभग छह सौ पृष्ठ की सामग्री। अपने संपादकीय में कामेश्वर प्रसाद सिंह केदारनाथ सिंह को याद करते हुए कहते हैं कि वे अब भी हैं, अपने होने की बहुत-बहुत सी जगहों पर, उतने ही जीवंत, उतने ही सजग, उतने ही उत्फुल्ल। होकर भी न होने की तरह और न होकर भी होने की तरह।
कामेश्वर जी की इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि यह अंक उनके न होने के बाद उनको महसूसने के रोमांचक आमंत्रण की तरह है। यूं तो केदारनाथ सिंह पर बातें तब तक होती रहेंगी, जब तक कविता पर बातें होती रहेंगी लेकिन इस अंक में उन्हें और उनकी कविता को समझने की एक बड़ी और व्यापक कोशिश दिखाई पड़ती है। इसमें एक आलेख मेरा भी है।
कामेश्वर जी की इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि यह अंक उनके न होने के बाद उनको महसूसने के रोमांचक आमंत्रण की तरह है। यूं तो केदारनाथ सिंह पर बातें तब तक होती रहेंगी, जब तक कविता पर बातें होती रहेंगी लेकिन इस अंक में उन्हें और उनकी कविता को समझने की एक बड़ी और व्यापक कोशिश दिखाई पड़ती है। इसमें एक आलेख मेरा भी है।
जड़ों की ओर वापसी के लिए 'विद्रोह'
सुभाष राय
यथास्थिति, जड़ता, विनाश और तबाही के विरुद्ध न केवल मनुष्य बल्कि प्रकृति भी निरन्तर सक्रिय रहती है। धरती पर जीवित-अजीवित, नदी, जंगल, पहाड़, वनस्पति तथा जीवन के अन्य अनगिनत रूपों में आंतरिक स्तर पर एक उद्वेलन, आंदोलन चलता रहता है, जिसकी दिशा हमेशा बदतर से बेहतर, असुंदर से सुंदर की ओर रहती है। कई बार बदलाव की यह प्रक्रिया अचानक शुरू होती है और बहुत तीव्र गति से आगे बढ़ती है, एक ‘विद्रोह’ की शक्ल में। ‘विद्रोह’ शब्द जीवन में तमाम अर्थों में व्यक्त होता आया है। दुनिया भर की अनेक भाषाओं में लेखकों, कवियों, रचनाकारों के लिए यह एक आकर्षक और सम्मोहक शब्द रहा है। इस पर सैकड़ों कविताएं लिखी गई हैं, इसे तरह-तरह से समझने और व्याख्यायित करने की कोशिशें भी की गई हैं। केदारनाथ सिंह जी ने भी इसी शब्द शीर्षक से एक कविता लिखी है, ‘विद्रोह।' आइए पहले वह कविता पढ़ते हैं-
आज जब घर में घुसा/ तो वहां अजब दृश्य था/ सुनिये-मेरे बिस्तर ने कहा/ यह रहा मेरा इस्तीफा/मैं अपने कपास के भीतर/ वापस जाना चाहता हूँ। उधर कुर्सी और मेज का/ एक संयुक्त मोर्चा था/ दोनों तड़पकर बोले-/ जी हां, अब बहुत हो चुका/ आप को सहते-सहते/ हमें बेतरह याद आ रहे हैं/ हमारे पेड़ और उसके भीतर का/ वह जिंदा द्रव/ जिसकी हत्या कर दी है आप ने। उधर आलमारी में बंद/ किताबें चिल्ला रही थीं / खोल दो-हमें खोल दो/ हम जाना चाहती हैं अपने / बाँस का जंगल और मिलना चाहती है/ अपने बिच्छुओं के डंक/ और सांपों के चुंबन से। पर सबसे अधिक नाराज थी/ वह शाल, जिसे अभी कुछ दिन पहले/ कुल्लू से खरीद लाया था/ बोली-साहब/ आप तो बड़े साहब निकले/ मेरा दुम्बा भेड़ा मुझे कब से पुकार रहा है/ और आप है कि अपनी देह की कैद में/ लपेटे हुए हैं मुझे। उधर टीवी और फोन का बुरा हाल था/ जोर-जोर से कुछ कह रहे थे वे/ पर उनकी भाषा मेरी समझ से परे थी/ कि तभी नल से टपकता पानी तड़पा-/ अब तो हद से गयी साहब/ अगर सुन सकें तो सुन लीजिए/ इन बूंदों की आवाज-/ कि अब हम यानी आपके सारे के सारे कैदी/ आदमी की जेल से मुक्त होना चाहते हैं। अब कहां जा रहे हैं-/ मेरा दरवाजा कड़का/ जब मैं बाहर निकल रहा था।
नल से टपकता पानी केदारनाथ सिंह से जो कहना चाहता है, उसे समझने के लिए पहले हमें धरती की ओर, उसकी पीड़ा की ओर झांकना होगा। पृथ्वी अपनी धुरी से खिसकने के कगार पर है। जब भी वह अपनी धुरी से खिसकती है, अनतिक्रम्य विनाश लेकर आती है। बड़ी-बड़ी सभ्यताएं नष्ट हो जाती हैं, सतह के नीचे दफन हो जाती हैं। असंख्य जीवन, वनस्पतियां विलुप्त हो जाते हैं, धरती के गर्भ में उनकी काली जली हुई स्मृति भर रह जाती है। क्या सचमुच पृथ्वी करोड़ों वर्षों से चल रही एक बैलगाड़ी की तरह है, जिसकी धुरी को मरम्मत की जरूरत है? परन्तु धरती तो अपनी मरम्मत खुद ही करती रहती है, फिर ऐसी स्थिति क्यों आयी? वह अपनी मरम्मत करने में विफल क्यों हो रही है? क्या हुआ है जो नींद में पहाड़ रात-रात भर रोते रहते हैं? क्यों नदी अब घर में नहीं रह गयी है, कहां है जो दिखती नहीं? बाघ को क्यों डर लगता है कि एक दिन वह भी मार डाला जायेगा? सचमुच बहुत खतरनाक स्थिति है। तापमान बढ़ रहा है। समुद्र दिन-ब-दिन गरम हो रहा है। उसकी लहरें तटों से टकरा रही हैं। किनारे बसे खूबसूरत शहरों में प्रवेश कर रही हैं। पिछले कुछ दशकों में समुद्र के सीने पर बसे कई सुंदर द्वीप या तो डूब गये या डूबने के कगार पर है। बारिश अब मौसम के रास्ते नहीं आती। मौसम कई बार आसमान में टकटकी लगाये गुजर जाता है और एक बूंद भी नहीं गिरती। कई बार इतनी बारिश होती है कि गांव के गांव बह जाते हैं, डूब जाते हैं, सैकड़ों लोग मारे जाते हैं। आंधियां भी अब पहले जैसे कहां आती हैं। लेकिन वे जब भी आती हैं, विनाश की अनगिनत तस्वीरें छोड़ जाती है। जंगल रहे नहीं। जितने बचे हैं, वहां रहने वाले जीवों के लिए पर्याप्त नहीं। उन्हें जब जंगल में खाने को नहीं मिलता, वे बस्तियों की ओर निकल आते हैं, तबाही मचाते हैं। पेड़ों में पहले जैसे फूल नहीं आते, फल नहीं लगते। परागण करने वाले छोटे-छोटे जीव, कीड़े-मकोड़े धीरे-धीरे विलुप्त हो रहे हैं। आधी सदी पहले सुबह-सुबह पक्षियों का जो संगीत सुनायी पड़ता था, अब कहां रहा। आदमी मंगल पर या अन्य ग्रहों पर अपनी पृथ्वी ढृूढ़ रहा है। सोचता है कि पृथ्वी पर प्राकृतिक कारणों से या मनुष्य की करतूतों से कभी बड़ा धमाका हुआ तो वह उड़कर दूसरे ग्रह पर चला जायेगा। यहां पृथ्वी पर पानी अब दुर्लभ होने के कगार पर है। केदारनाथ सिंह यह सारा विनाश, सारा ध्वंस बहुत उदास मन से देखते हैं। उसे अपनी कविताओं में दर्ज करते हैं। उन्हें पता है कि उन्हें तो इसी धरती पर रहना है, चिड़ियों की उड़ान के साथ। इसलिए वे उम्मीद नहीं छोड़ते। कभी किसी बिंदु पर शायद मनुष्य को समझ में आ जाय। वह अपने मूल की ओर लौट चले।
मनुष्य समझता है कि उसने बहुत प्रगति कर ली है। उसने पहाड़ों को रौंदकर उन पर सड़कें बिछा दी हैं। नदियों को बांध लिया है। जंगलों को सूखी कटी लकड़ियों के ढेर में, घर में सजाने वाली चीजों में बदल दिया है। अपनी सुख सुविधाओं के हजार साधन जुटा लिये हैं। मौसम के विरुद्ध खुद को सुरक्षित रखने की तरकीबें ढूंढ ली है। समुद्र को कैद कर लिया है। पृथ्वी के गर्भ को चीरकर सारे कीमती संसाधन निकाल लिये हैँ और उसे अपने विकास की रफ्तार तेज करने में लगा दिया है। वह इस अंधाधुंध विकास के परिणाम को नहीं देख पा रहा। उसे चिंता नहीं है कि विकास के जहरीले धुएं ने ओजोन की परत में जो छेद कर दिया है, उससे सूरज की जानलेवा किरनें जमीन तक पहुंच रही है। उसे चिंता नहीं कि उसने हरे जंगलों को काटकर वहां जिस तरह कंक्रीट के बदरंग जंगल खड़े कर दिये हैं, उससे जंगल के असली रहवासियों का घर छिन गया है और तमाम जीवों एवं वनस्पतियों का जीवन खतरे में पड़ गया है। प्रकृति संतुलनधर्मा है। उसके साम्राज्य में हर जीवन की, हर वनस्पति की अपनी भूमिका है। सब अन्योन्याश्रित है। सब एक दूसरे के काम आते हैं। किसी एक का होना किसी दूसरे के होने का कारण है। यह बिल्कुल न समझा जाये कि कुछ जीव खत्म हो जायेंगे तो भी ऐसे ही चलने वाला है। यह एक चेन की तरह है, जो एक जगह भी टूटी तो पूरी बिखर जायेगी। एक तितली मरती है तो कई पौधों में फल नहीं आते। केदारनाथ सिंह की कविताएं प्रकृति, पृथ्वी और जीवन के पक्ष में खड़ी है। वे धरती पर जीवन के संतुलन के सूत्र को ठीक से समझते हैं। वे इस मर्म को जानते हैं कि सबका रहना जरूरी है, किसी का भी अस्तित्व किसी अन्य के विरुद्ध नहीं है और सभी मिलकर एक विराट अस्तित्व की रचना करते हैं। उस अस्तित्व में कोई भी सूराख धरती की धुरी को डांवाडोल कर सकता है, प्रकृति के संतुलन को डगमगा सकता है। वे इसीलिए बार-बार जड़ों की ओर, मूल की ओर, बीज की ओर लौटने की हिमायत करते हैं। वे यह भी जानते हैं कि सबसे बड़ी बाधा बाजार है। वह बीच में खड़ा है, रास्ते में खड़ा है। वे चुपके से बाजार को खबर हुए बगैर चावल से, नमक से और पुदीने से मिलना चाहते हैं। उन्हें कविता और बाजार की हल्की सी टक्कर भी रोमांचित करती है। वे गांव से शहर आते हैं पर शहर में चैन से रह नहीं पाते। लौटकर बार-बार गांव आते हैं। वे जानते हैं कि गाँव विकास के ध्वंस से अभी भी थोड़े बहुत बचे हुए है। अभी भी वहां जीवन है, प्रेम है, हवा है, पानी है। सांस है बची हुई। उन्हें विकास की शुष्क ऊंचाई पसंद नहीं। यह कितना खतरनाक है कि शहर की सारी सीढ़ियाँ मिलकर जिस महान ऊंचाई तक जाती है, वहां कोई नहीं रहता। वे समझ रहे हैं कि एक विकसित और सभ्य कहे जाने वाली दुनिया सर्वाधिक क्षुद्र, असहनशील, स्वार्थी और असभ्य होगी। वह केवल मनुष्य के लिए ही नहीं समूची धरती के लिए खतरनाक होगी, सबको नष्ट कर देगी।
केदारजी अपने चारों ओर बहुत ही गहरी नजर रखते हैं। जब विस्थापन का दौर हो, जब सारी चीजें अपनी जड़ों से छूट रही हों, जब सबके सब अपनी पहचान खो रहे हों, तब मनुष्य का भी अपने मूल यानी मनुष्यता से विलग हो जाना लाजिमी है । यह होता रहा है, आज भी हो रहा है। विकास की गति जितनी तेज हुई है, मनुष्य उतना ही लालची, पाखंडी और दंभी हो गया है। उसे अपने सिवा किसी और की परवाह नहीं है। उसने संवेदना, करुणा, प्रेम, दया सब कुछ छोड़ दिया है। उसने अपने मूल को तिलांजलि दे दी है। वह किसी के दुख से दुखी नहीं होता, किसी की पीड़ा से आहत नहीं होता। उसने अपनी सामूहिकता, सामाजिकता खो दी है। वह नितांत अकेला हो गया है और इसीलिए बहुत ही क्रूर, अमानवीय और असहिष्णु भी। वह अपनी जड़ों से अलग ही नहीं हुआ है, उस पर कुल्हाड़ी भी चला रहा है। वह नहीं जानता कि जिस दिन जड़ें पूरी तरह कट गयी, वह इस तरह गिरेगा कि फिर कभी उठ नहीं पायेगा। केदारनाथ सिंह इस संकट को समझ रहे हैं, इसीलिए वे अपनी जड़ों की बात करते हैं। लोक की, गांव की, नदी, पहाड़, जंगल की, पानी की, हवा की बात करते हैं। प्रख्यात आलोचक अरुण होता लिखते हैं, 'केदार जी की कविता अपनी जड़ों से उत्पन्न होती है। उससे ऊर्जा पाती है और उसके बल पर समय और समाज को विनिर्मित करती है। नागार्जुन, त्रिलोचन की तरह केदार जी का अपनी जड़ों के प्रति अपार लगाव है। जनपदीय चेतना से संबद्धता है। इसीलिए रोज-ब-रोज हमारी आंखों से दिखने वाली चीजें जो अक्सर हमसे छूट जाती हैं। यानी जिन पर नजर नहीं जाती, उन्हें यह कवि बड़ी शिद्दत के साथ प्रस्तुत कर देता है। उनमें छिपे जीवन रहस्य के मर्म को उद्घाटित कर देता है। ऐसा कर पाना कवि के अपनी मिट्टी, जमीन, जल, नदी, पेड़-पौधों से गहरी संपृक्तता का परिणाम है।'
स्पष्ट जीवन दर्शन और रचना दृष्टि के बिना कोई बड़ा कवि नहीं हो सकता। केदारजी को समग्रता में पढ़ने पर पता चलता है कि उनकी अभिव्यक्ति में जहां जीवन से गहरे सरोकार की गूँज है, वहीं एक रचनात्मक दार्शनिक सौंदर्य की निरन्तरता भी है। वे गांव से शहर आ जाते हैं लेकिन गांव उनके भीतर बना रहता है। वह शहर में रहते हैं पर गांव में बसते हैं। जब भी समय मिलता है, गांव लौटते हैं। उनके समय में भी बाजार गांव को बदल रहा था। इस बदलाव में गांव की संस्कृति से, जीवन से बहुत सारी चीजें गायब हो रही थीं। केवल गांव आकर वे संतुष्ट नहीं होते। वे गांव में पैदा हो रही रिक्ति को बार-बार देखते हैं और गायब हो रही चीजों की ओर लौटते हैं। तुलसी का चौरा, वहां दीप जलाना, चिड़ियों का आंगन में उतरना, चहचहाना, पेड़ों पर या घरों में उनका घोंसला बनाना, कुआ-बावड़ी, यह कोई नास्टैल्जिया नहीं बल्कि एक समृद्ध, भरी-पूरी संस्कृति को सूखते हुए देखने की तरह है। केदारनाथ सिंह जानते थे कि स्थानीयता ही हमारी पूंजी है और यह स्थानीयता हमारी बोली में है, हमारी कृषि संस्कृति में, हमारे ग्राम्य जीवन के राग-रंग में, उल्लास में, उत्सव में है। ये सब ख़त्म हुआ तो हमारे पास कुछ बचेगा नहीं, हमारी अपनी धरती भी नहीं। बाजार लगातार लोकल को ग्लोबल से विस्थापित करने की कोशिश में जुटा है। वह गांव के खान-पान, रहन-सहन, बोली-भाषा, गीत-संगीत, इन सबको अपने आकर्षक किन्तु खोखले उपादानों से रिप्लेस कर देना चाहता है। यह पूंजी का षडयंत्र है और इसके खिलाफ हम तभी लड़ पायेंगे, जब अपनी समृद्ध स्थानीयता को सुरक्षित, संरक्षित रख सकेंगे। इसी अर्थ में केदार जी हमेशा उस तरफ लौटते हैं, जहां से चीजें गायब से रही है। इसे यथास्थिति बरकरार रखने के प्रयास के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। आखिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि हम अपनी संस्कृति के साथ आधुनिकता को स्वीकार करें। आधुनिक होने का मतलब अपनी लंबी स्मृति से, अपनी उत्सवधर्मी संस्कृति से कट जाना नहीं है बल्कि परिष्कार के साथ उसका स्वीकार है। हम अंग्रेजी छोड़ें लेकिन अपनी बोली-भाषा से हीन होकर नहीं। हम नये स्वाद, नयी गंध को स्वीकार करें लेकिन अपने गांव के स्वाद, गंध की अस्वीकृति की कीमत पर नहीं। अगर हमने ऐसा नहीं किया तो हमारी स्मृति, संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन की बहुलता नष्ट हो जायेगी। यह एक ऐसा बुनियादी स्वर है जो केदार जी के व्यक्तित्व में है, उनके कृतित्व से भी। आशय यह है कि एक सतत विद्रोह उनके कविता संसार में मौजूद है। ‘विद्रोह’ कविता में उसका एक खास रूप ज्यादा मुखरता से व्यक्त हुआ है।
मनुष्य ने अपने पर्यावरण को जितना नुकसान पहुंचाया है, उसकी भरपाई लगभग नामुमकिन है। वह प्रकृति के साथ सहचर की भूमिका में रहता तो उसे कोई कठिनाई नहीं होती। धरती पर जितने भी जीव है, प्रकृति ने उन सबके लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराया है। अगर वे सभी अपनी जरूरत भर का प्रकृति से लें तो धरती को, पर्यावरण को कोई क्षति नहीं होगी। प्रकृति अनंतकाल तक सबका पोषण करती रहेगी। लेकिन दुखद बात यह है कि मनुष्य ने, समृद्ध देशों ने अपने लिए संसाधनों का जखीरा जमा करने, अपने ऐश्वर्य के साधन जुटाने के लिए प्रकृति का जो अंधाधुंध दोहन किया है, उससे पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचा है। केदार जी घर में, घर के बाहर इसे लगातार महसूस करते हैं। कविता में वे इसे अनोखे ढंग से कलात्मक नाटकीयता के साथ प्रस्तुत करते हैं। एक दिन जब वे अपने ही घर में घुसे तो एकदम अलग दृश्य था। उनको सवालों की बौछार का सामना करना पड़ा। मेज, कुर्सी, दरवाजे, पुस्तकें, नल का पानी, शाल, फोन सभी अपनी बात, अपनी पीड़ा कहना चाह रहे थ्रे। कहना तो वे बहुत दिनों से, वर्षोँ से, दशकों से चाह रहे थे लेकिन किन्हीं कारणों से कह नहीं पाते थे। पीड़ा, यातना सहने की भी एक सीमा होती है। एक दिन हद हो गयी। उनसे रहा नहीं गया और विद्रोह कर दिया सबने एक साथ। केदार जी मानवीकरण को इस कविता में एक खास उपकरण की तरह इस्तेमाल करते हैं। घर में रखी सारी चीजें जीवित वस्तुओं की तरह व्यवहार करती है। वे केदारजी को घेर लेती है। शायद वे स्वयं ही स्वयं के प्रश्नों से घिरा हुआ महसूस करते हैं। प्रकृति को क्षतिग्रस्त करने का अपराध चाहे जिसने किया हो, जिन व्यक्तियों ने, जिन समूहों ने, जिन देशों ने, एक संवेदनशील मनुष्य के नाते कवि स्वयं को भी उस अपराध के लिए दोषी पाता है, स्वयं को उस अपराध में शामिल देखता है। उसने ऐसा अपराध क्यों किया, अब भी क्यों कर रहा है, उसके पास कोई जवाब भी नहीं है। वैसे तो यह एक छोटी सी कविता है लेकिन इसकी अर्थ संभावना इसे बहुत दूर तक ले जाती है। यह एक वैश्विक प्रतिरोध की कविता की शक्ल में खड़ी दिखती है। शब्दों के छोटे आयतन के भीतर विराट अर्थ दीप्ति के कारण यह एक बड़ी और समृद्ध कविता का रूप धारण कर लेती है। केदार जी की कविताओं पर बहुत बातें हुई है। उनकी छोटी-छोटी कविताएं अपने अकाट्य अर्थ वैभव के कारण बार-बार उद्धृत की जाती रही हैं लेकिन ‘विद्रोह’ को कभी इस नजीरिये से नहीं देखा गया। इसमें जिस तरह प्रकृति एवं पृथ्वी के साथ मनुष्य के छल को उजागर किया गया है, वह अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस कविता में पर्यावरण के खिलाफ क्रूरता से भिड़ंत के लिए एक बड़ा आंदोलन बनने की सामर्थ्य है।
केदार जी की कविताओं पर बात करते हुए प्रख्यात आलोचक अरूण होता ‘विद्रोह’ की भी चर्चा करते हैं और कहते हैं, 'इस कविता के विद्रोह के मूल में अपनी जड़ से मिलने की प्रबल आकांक्षा है। कवि ने अपनी संदेवना को व्यापक बनाते हुए यह चिन्हित किया है कि विद्रोह का एका केवल मनुष्य में ही नहीं होता है बल्कि विस्तर, कुर्सी, मेज, किताबें, शाल, टीवी, नल से टपकती पानी की बूंदों में भी होता है। मनुष्य के कारागार से सभी मुक्त होना चाहते हैं। सचमुच उम्दा कविता है यह।' ‘विद्रोह’ कविता इतनी सघन और मार्मिक अभिव्यक्ति से सम्पन्न है कि एक पाठ में इसका बहुत कम हिस्सा खुलता है। कई बार पढ़ने पर यह कविता खुद ही खुद को खोलती जाती है। कविता घर की वस्तुओं से कवि की सामान्य बातचीत से शुरू होती है। सवाल बढ़ते जाते हैं और गंभीर होते जाते हैं। कविता खत्म होने के पहले की एक महत्वपूर्ण पंक्ति पर नजर डालें, कितना तीखापन है उसमें।
अगर सुन सकें तो सुन
लीजिए
बूंदों की आवाज-
कि हम सब आपके सारे के सारे कैदी
आदमी की जेल से
मुक्त होना चाहते हैं
यहां ‘आप’ और ‘मनुष्य’, इन दो शब्दों में अर्थ विस्तार का एक अद्भुत संदर्भ है। पहले ‘आप’ केदार जी के लिए संबोधित है लेकिन दूसरी पंक्ति में ही केदार जी केवल आप नहीं रह जाते, वे पूरी मनुष्य जाति का प्रतिनिधि बन जाते हैं। आदमी ने सारी धरती को एक जेल में बदल दिया है। जंगल, पहाड़, नदी, प्रकृति की सारी संपदा का वह अपना आर्थिक वैभव बढ़ाने में क्रूरतापूर्वक इस्तेमाल कर रहा है। आधुनिकता और सभ्यता के नाम पर चल रहे विश्वव्यापी उद्योग निर्माण अभियान में प्रकृति के इन उपादानों का भयंकर दुरुपयोग हो रहा है। प्रकृति इतनी पीड़ा में है कि उसके तमाम हिस्से मनुष्य के चंगुल से छूटकर अपनी जड़ों की ओर लौट जाना चाहते हैं। पानी अपने स्रोत से अलग रहकर भी उससे अलग नहीं महसूस करता, मेज, कुर्सी खुद को पेड़ से अलग नहीं समझते, विस्तर खुद को कपास में देखता है, किताबें बांस के जंगल और विच्छुओं के डंक, सांपों के दंश से खुद को जोड़कर देखती हैं। शाल को याद आ रहा है वो दुम्बा भेड़ा, जिसके शरीर से ऊन उतारा गया है। कितने खूबसूरत तरीके से केदार जी इन सबको जीवित देखते हैं और महसूस करते हैं कि वे सब अपने मूल से अलग होकर दुखी हैं और वापस लौट जाना चाहते हैं। कवि उन्हें मनुष्य के कैदी के रूप में देखना है। कैदी को उसकी इच्छा के विरुद्ध जेल में रखा जाता है। घर में सजाकर रखी गई किसी भी वास्तु की इच्छा नहीं है इस तरह कैद में बने रहने की। हर कैदी की तरह वे भी मुक्त हो जाना चाहती हैं। कोई रास्ता नहीं दिखने पर वे ‘विद्रोह’ पर आमादा हो जाती हैं। पहले केदार जी अपने लिए उनके संबोधन को ‘आपके कैदी’ के रूप में इस्तेमाल करते हैं लेकिन अगली ही पंक्ति में अपने निजत्व को विसर्जित करते हुए कविता को एक बड़े फलक पर ले जाने के लिए ‘मनुष्य की कैद’ कहकर अपनी पीड़ा को सफलतापूर्वक एक वैश्विक धरातल पर ला खड़ा करते हैं। कवि संवाद की स्थिति में नहीं है, सुनने की स्थिति में नहीं है, क्योंकि वह इस पीड़ा को उसके घनीभूत रूप में भीतर तक महसूस करता है। इन पंक्तियों में देखिये-
जी,हां अब बहुत हो चुका
आप को सहते-सहते
हमें बेतरह याद आ रहे हैं
हमारे पेड़ और उनके भीतर का
वह जिंदा द्रव
जिसकी हत्या कर दी है आपने
.... ....... ...... ...... .....
आप तो बड़े साहब निकले
मेरा दुम्बा भेड़ा मुझे कब से पुकार रहा है
और आप हैं कि अपने देह की कैद में
लपेटे हुए हैं मुझे
हम सभी जानते है किस तरह जंगलों को उजाड़ा गया है, किस तरह हरे पेड़ काटे गये हैं, किस तरह जिंदा उनकी हत्या की गयी है। निर्जीव समझी जाने वाली वस्तुओं के माध्यम से गहरे तक संवेदित करने वाली बातें कहलवाकर केदार जी किसी को भी बेचैन कर देते हैं। 'यह रहा मेरा इस्तीफा', ‘दोनों तड़प कर बोले’, ‘किताबें चिल्ला रही थी', 'खोल दो हमें खोल दो,' ‘दुम्बा भेड़ा कब से पुकार रहा है’, ‘नल से टपकता पानी तड़पा,’ 'दरवाजा कड़का' पूरी कविता में क्रियाओं का पीड़ा और गुस्से से भरा हुआ जो सख्त मिजाज दिखता है, वह यह बताने के लिए काफी है कि धरती और प्रकृति के निरन्तर विनाश से कवि कितना दुखी है, कितना क्रुद्ध है। यह कविता जितना कहती है, उसका कई गुना अनकहा छोड़ देती है। कवि घटनाओं और व्यौरों में न जाकर, तथ्यों के ढेर पर लोटने की जगह एक विराट हाहाकार को इस तरह के शब्द सूत्रों में जड़कर पेश करता है कि पढ़कर कोई भी दहल जाये। मुक्तिबोध ने कहा है, कविता केवल ज्ञान से नहीं होती, केवल संवेदना से भी नहीं। ज्ञान की आभा से कोई भी चमत्कृत कर सकता है। इसी तरह केवल संवेदना निष्क्रिय रुदन का कारण बन सकती है। कविता के लिए ज्ञान के साथ संवेदना और संवेदना के साथ ज्ञान की जरूरत होती है। ‘विद्रोह’ की बात करुं तो यह कविता ज्ञान और संवेदना दोनों से लैस है, इसीलिए केवल झकझोरती नहीं, बल्कि कार्रवाई के लिए उकसाती भी है।
केदार जी की कवितई में कला का बड़ा योगदान है। वे जानते थे कि बिना कला के कोई भी कविता संभव नहीं है क्योंकि यह केवल बयान नहीं है, वह लेख या कहानी भी नहीं है। वे कला को कविता पर छा जाने की भी इजाजत नहीं देते थे, उसे अभिव्यक्ति के एक कौशल की तरह ही इस्तेमाल करते थे। ‘विद्रोह’ में भी केदार जी की कलात्मक प्रतिभा का सौंदर्य देखा जा सकता है। कवि अपने घर की चीजों के साथ मृत चीजों जैसा व्यवहार नहीं करता। वह उन्हें जीवंत, बतियाती हुई प्राणवान देखता है। तभी तो वह विस्तर, कुर्सी, मेज, किताब, फोन, टीवी के दुख को, उनकी यातना को और इस तरह समूची प्रकृति की तड़प को सुन पाता है, समझ पाता है। उनके क्रोध, उनकी मुक्ति स्वप्न को महसूस कर पाता है। यह कोई शिकायत नहीं, यह ‘विद्रोह’ है। केदार जी के साथ रहते रहते वे सब आजिज आ गये हैं। केदार जी यानी मनुष्य उनका इस्तेमाल तो करता है लेकिन उनकी पीड़ा नहीं समझता। कभी उनसे पूछता नहीं कि वे कैसे हैं, किसी पीड़ा में तो नहीं है। सब कुछ अनसुना कर दिये जाने पर वे एक साथ धावा बोलते हैं, सवालों की बौछार कर देते हैं। वे महसूस करते हैं कि उन्हें मार दिया गया है। जब बिस्तर कपास में था, मेज-कुर्सी पेड़ में थे, किताबें बांस वन में थीं, शाल दुम्बा की त्वचा पर थी, टीवी और फोन अपने प्राकृतिक स्रोत में थे, बूंदें धरती में, बादल में, नदी में थीं, वे सभी मुक्त थीं, प्रकृति के जीवन द्रव्य से सीधे जुड़ी हुई लेकिन मनुष्य ने उन्हें उनकी सहजता और नैसर्गिकता से काटकर न केवल अपनी कैद में डाल दिया है बल्कि इस तरह प्रकृति को भी क्षत-विक्षत किया है। केदार जी स्वयं ही उनकी तरफ से सवाल करते हैं और उन्हीं सवालों से स्वयं घिर जाते हैं। घबड़ा जाते हैं, सोचते हैं, निकल जाने को। अभी तो निकल लो यार, स्थिति गंभीर है, थोड़ी देर बाद आना। तब तक शायद इनका गुस्सा शांत पड़ जाए। यह नाटकीयता उन्होंने स्वयं रची है। कविता को प्राणवान और प्रभावशाली बनाने के लिए वे पीछे लौटते हैं और निकल जाना चाहते हैं लेकिन दरवाजा उन्हें टोकता है...
अब कहां जा रहे हैं -
मेरा दरवाजा कड़का
जब मैं बाहर निकल रहा था।
यह दरवाजे का टोकना इस कविता की नाटकीयता का शिखर है। ऐसा लगता है कि जिन्हें मनुष्य ने कैद किया हुआ है, वे मिलकर मनुष्य को ही कैद कर लेंगे। खतरा है, दरवाजा कहीं खुद को बंद न कर ले। दरवाजे का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। यह समूचे मनुष्य जगत से प्रकृति का, धरती का प्रश्न है। बताओ, तुमने अपने छोटे स्वार्थ के लिए मुझे इतना नुकसान क्यों पहुंचाया? इस सवाल का जवाब तो देना ही पडेगा। इससे बचना मुश्किल है। कोई रास्ता नहीं भाग निकलने का। जवाब नहीं दिया तो दरवाजा तय करेगा कि उसे खुलना है या बंद हो जाना है। प्रकृति का दोहन जिस खतरनाक स्थिति तक पहुंच गया है, अगर मनुष्य ने इस पूरी प्रक्रिया को पलटने की नहीं सोचा तो धरती पर जीवन के विकास के सारे दरवाजे बंद हो जायेंगे। क्या दुनिया सुन रही है यह आवाज, यह सवाल या बचकर निकल जाना चाहती है? अब बचकर निकलने का कोई रास्ता बचा नहीं है। धरती को, प्रकृति को, जीवन की विविधता को,
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