//कोरोना काल में शुक्ल पर बवाल क्यों//
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औपनिवेशिक काल का यह यह चित्र उस चित्र कुछ ऊपरी हिस्से से मेल खाता है जिसमें आम्बेडकर भी फिरंगी टाई और कोट से शुक्ल की तरह लैस हैं।पहनावे का अंतर सिर्फ इतना है कि आंबेडकर नीचे फूल पेंट पहनते थे और शुक्ल धोती। इसलिए आंबेडकर और शुक्ल दोनों
पर औपनिवेशिक पाश्चात्य चेतना का घर प्रभाव है।उपनिवेशवाद हमारी भलाई के लिए नहीं आया था,अब यह जगजाहिर है।
शुक्ल में प्राच्य जातिवादी साम्प्रदायिक चेतना का भी प्रभाव है।लेकिन इस पर कमोवेश बहस लंबे समय से होती रही है।फिर इसमें नया क्या है?नया है देश काल और उसका प्रोडक्ट।।
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औपनिवेशिक काल का यह यह चित्र उस चित्र कुछ ऊपरी हिस्से से मेल खाता है जिसमें आम्बेडकर भी फिरंगी टाई और कोट से शुक्ल की तरह लैस हैं।पहनावे का अंतर सिर्फ इतना है कि आंबेडकर नीचे फूल पेंट पहनते थे और शुक्ल धोती। इसलिए आंबेडकर और शुक्ल दोनों
पर औपनिवेशिक पाश्चात्य चेतना का घर प्रभाव है।उपनिवेशवाद हमारी भलाई के लिए नहीं आया था,अब यह जगजाहिर है।
शुक्ल में प्राच्य जातिवादी साम्प्रदायिक चेतना का भी प्रभाव है।लेकिन इस पर कमोवेश बहस लंबे समय से होती रही है।फिर इसमें नया क्या है?नया है देश काल और उसका प्रोडक्ट।।
कोरोना काल में बड़ी मानवता की हिफाजत के बजाए जात धरम पर बहस सत्ता और मीडिया कर रहे हैं और हम उसके असर के शिकार मनीषा हो चुके हैं।मुझे दुख है कि हिंदी के ढेर सारे पढ़े लिखे बौद्धिक हंसुआ के विवाह में खुरपी के गीत जैसी कहावत के ट्रैक में फंस गए हैं।यह अमानवीय कर्म भी है।
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बात चली है तो ध्यान रखिए कि यह सनसनी साहित्य में सोशल डिस्टेंसिंग और क्वारन्टीन की उपज है। एकेडमिक जगत पाखण्ड और अवसरवाद के लॉक डाउन का शिकार लंबे समय से है। इसलिए नियति के ये दिन आने ही थे।
हिंदी के कुएं में पानी जैसे जैसे कम होता जाएगा,मेढ़क की टर्र टर्र बढ़ती जाएगी।सच तो यह है कि आलोचना और शोध से छत्तीस के आंकड़े रखनेवाले के एकेडमिक कुल का विस्तार लगातार होता रहा और उसको हमारे योग्य आचार्यों ने बेशर्म बढ़ावा दिया।आज उसकी कूट फसल यह पीढ़ी है।
जब शोध और आलोचना के नाम पर घर धुलाई,कार पोछाई,ओझाई और चेलाई ही करवानी है तो उसका सह उत्पाद ऐसा ही होगा।।
हिंदी के शीर्ष आलोचकों ने विश्व ज्ञान को साधा था,तब कुछ दे गए।जो दे गए चाहे शुक्ल-द्विवेदी हों या नामवर-मैनेजर उनकी जड़ें प्राच्य और पश्चिम की ज्ञान और साहित्य परम्परा में सतर्क ढंग से धंसी हुई है।
दुनिया के दो समकालीन मार्क्सवादी आलोचक टेरी ईगलटन और फ्रेडरिक जेमेसन को पढ़िए तो पता चलता है कि वे अपनी परंपरा से कितने जुड़े हैं।
असहमति का साहस और सहमति का विवेक दोनों हमारे आसपास रणनीति के तहत नष्ट किए गए हैं। जातिवादी और कुलीन ब्राह्मण समुदाय को शुक्ल जी पसंद हैं तो यह दोनों का दुर्भाग्य है और इसी कारण दलित को शुक्ल जी से घृणा है तब भी दोनों की बदनसीबी है।
वस्तुतः नवकुल नक्काल की भड़ैती ही उनका साहित्यिक शगल है।एक कहावत है यथा गुरु तथा चेला/मांगे गुड़ दे ढेला।
मुझे तो इस बहस में सनसनी,उत्तेजना,अनपढपन और तथ्यहीनता ही ज्यादा दिख रही है।जिस बहस का मूल ही अनपढपन और अवसरवादी सनसनाहट का शिकार हो उसके अतिरिक्त विस्तार का नतीजा रिक्त ही होगा।
कोरोना महामारी की विकट घड़ी में जिस तरह सत्ता जात धरम की राजनीति से मानवता को घायल कर रही है,उसी का बाई प्रोडक्ट यह उथला एकालाप है।जहाँ देखिए हिंदी के मास्टर और एकेडमिक जगत से परमकुंठा पालने वाले कथित लेखक मच्छर गान गाए जा रहे हैं।न राग न लय, फिर भी प्रलय!!!...
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बात चली है तो ध्यान रखिए कि यह सनसनी साहित्य में सोशल डिस्टेंसिंग और क्वारन्टीन की उपज है। एकेडमिक जगत पाखण्ड और अवसरवाद के लॉक डाउन का शिकार लंबे समय से है। इसलिए नियति के ये दिन आने ही थे।
हिंदी के कुएं में पानी जैसे जैसे कम होता जाएगा,मेढ़क की टर्र टर्र बढ़ती जाएगी।सच तो यह है कि आलोचना और शोध से छत्तीस के आंकड़े रखनेवाले के एकेडमिक कुल का विस्तार लगातार होता रहा और उसको हमारे योग्य आचार्यों ने बेशर्म बढ़ावा दिया।आज उसकी कूट फसल यह पीढ़ी है।
जब शोध और आलोचना के नाम पर घर धुलाई,कार पोछाई,ओझाई और चेलाई ही करवानी है तो उसका सह उत्पाद ऐसा ही होगा।।
हिंदी के शीर्ष आलोचकों ने विश्व ज्ञान को साधा था,तब कुछ दे गए।जो दे गए चाहे शुक्ल-द्विवेदी हों या नामवर-मैनेजर उनकी जड़ें प्राच्य और पश्चिम की ज्ञान और साहित्य परम्परा में सतर्क ढंग से धंसी हुई है।
दुनिया के दो समकालीन मार्क्सवादी आलोचक टेरी ईगलटन और फ्रेडरिक जेमेसन को पढ़िए तो पता चलता है कि वे अपनी परंपरा से कितने जुड़े हैं।
असहमति का साहस और सहमति का विवेक दोनों हमारे आसपास रणनीति के तहत नष्ट किए गए हैं। जातिवादी और कुलीन ब्राह्मण समुदाय को शुक्ल जी पसंद हैं तो यह दोनों का दुर्भाग्य है और इसी कारण दलित को शुक्ल जी से घृणा है तब भी दोनों की बदनसीबी है।
वस्तुतः नवकुल नक्काल की भड़ैती ही उनका साहित्यिक शगल है।एक कहावत है यथा गुरु तथा चेला/मांगे गुड़ दे ढेला।
मुझे तो इस बहस में सनसनी,उत्तेजना,अनपढपन और तथ्यहीनता ही ज्यादा दिख रही है।जिस बहस का मूल ही अनपढपन और अवसरवादी सनसनाहट का शिकार हो उसके अतिरिक्त विस्तार का नतीजा रिक्त ही होगा।
कोरोना महामारी की विकट घड़ी में जिस तरह सत्ता जात धरम की राजनीति से मानवता को घायल कर रही है,उसी का बाई प्रोडक्ट यह उथला एकालाप है।जहाँ देखिए हिंदी के मास्टर और एकेडमिक जगत से परमकुंठा पालने वाले कथित लेखक मच्छर गान गाए जा रहे हैं।न राग न लय, फिर भी प्रलय!!!...
जो रचनाएँ पूजनीय हो चुकी हैं उनको शिक्षण संस्थाओं में नहीं पढ़ाना चाहिए। शिक्षा तर्क करने और विचार व्यक्त करने का अधिकार देती है। जो लोग किसी रचना को पूजनीय मानते हैं उनको यह पहल जरूर करना चाहिए। क्योंकि शिक्षण संस्थानों में पढ़ाये जाने पर बार-बार उनकी उपादेयता पर प्रश्न जरूर होंगे।
जिस समय देश के स्वंतत्रता सेनानी एकजुट होकर साम्राज्यवादी ताकतों से लड़ रहे थे, स्वंतत्रता आंदोलन निर्णायक भूमिका की तरफ कदम बढ़ा रहा था उस समय गाँधी और अंबेडकर में आजादी के स्वरूप को लेकर बहस भी चल रही थी। अंबेडकर अंग्रेजों के साथ ही जातिवादी और सामंतवादी ताकतों के शोषण से वंचित समाज की मुक्ति चाहते थे। ये वही ताकतें थी जिन्होंने वंचित समाज का सदियों से शोषण किया था। गाँधी इसको घर की आंतरिक समस्या मानकर बाद में इसके समाधान की बात कर रहे थे। अंबेडकर वंचित समाज की इस गुलामी को अंग्रेजों से मुक्ति के साथ ही खत्म करने की बात कर रहे थे और निरंतर वंचित समाज की आवाज बनकर संघर्ष कर रहे थे। उस समय यह देखना जरूरी हो जाता है कि साहित्य का आलोचक, इतिहासकार और चिंतक वंचित समाज के बीच से निकलकर आने वाली रचनाओं को किस रूप में देख रहा था। खासकर कबीर और रैदास की रचनाओं के प्रति उसका क्या रुख था। ये वही रचनाएँ हैं जो वंचित समाज की संवेदना और पीड़ा से परिचित कराती हैं। यदि चिंतक और इतिहासकार की दृष्टि में इनकी कविताएँ कविता की सीमा रेखा के बाहर नजर आती हैं तो उस इतिहास और चिंतन पर प्रश्न खड़े करना जरूरी हो जाता है। यदि उस समय का चिंतक और इतिहासकार वंचित समाज के कवियों से नहीं टकरा रहा है और उनकी संवेदना से कोई सरोकार नहीं स्थापित कर रहा है तो स्वाभाविक है कि वह नये तरह के साम्राज्यवाद को रचने की कोशिश कर रहा है। आज यह जरूरी हो जाता है कि उस समय के इतिहास और चिंतन का फिर से सचेत मूल्यांकन किया जाय और उसकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किया जाय। इससे किसी को किसी तरह का परहेज नहीं होना चाहिए।
बी एच यू बना बौद्धिक हॉटस्पॉट : इसे क्वारंटाइन की जल्द जरूरत है
एक वरिष्ठ हैं सुनते हैं बड़े गरिष्ठ हैं| कविता पर आज तक एक वाक्य भी नहीं लिखा हैं और नई सदी की कविता का इतिहास बनाने चले हैं| यह कोरोना में ही सम्भव है कि जो कविता का एक वाक्य न लिखा हो, वह कविता का इतिहास बनाने निकल पड़ा हो|
दूसरे वरिष्ठ के सशक्त प्रतिरोधी कनिष्ठ हैं| ऐसे कनिष्ठ हैं कि अभी दो दिन शोध में आए हुआ है, और मुझे नहीं लगता कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास को ठीक से पढ़ा भी है, लेकिन करें क्या कि प्रासंगिकता के लिए शुक्ल जी से ही टकरा गए|
दूसरे वरिष्ठ के सशक्त प्रतिरोधी कनिष्ठ हैं| ऐसे कनिष्ठ हैं कि अभी दो दिन शोध में आए हुआ है, और मुझे नहीं लगता कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास को ठीक से पढ़ा भी है, लेकिन करें क्या कि प्रासंगिकता के लिए शुक्ल जी से ही टकरा गए|
अब ये भी कोरोना में ही सम्भव है कि बिना किसी को पढ़े बिना किसी को जाने आप किसी से टकरा जाएं...अब भाई बदनाम तो होंगे क्या नाम भी न होगा?
दुर्भाग्य यह है, कि जैसे कई नौजवान कवि कोरोना काल में वरिष्ठ का शिकार हो गये, वैसे ही कई वरिष्ठ रचनाकर इस काल में कनिष्ठ के शिकार हो गए|
मुझे इसकी चिंता ज्यादे हो रही है कि यदि ये लॉकडाउन आगे बढ़ा तो हिंदी सहित्य का इतिहास किस रूप में समृद्ध किया जाएगा? यह देखने की बात होगी|
सम्भव है कि हिंदी साहित्य को बचाने के लिए हिंदी के प्रशासनिक ढाँचे के लोग आगे आएं और इस लॉक डाउन को जल्दी ख़त्म कराने का प्रयास करें| अन्यथा हिंदी का ऐसा इतिहास लिखा जाएगा जो भूतो न भविष्यत होगा|
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास पर जब विचार-विमर्श , आरोप -प्रत्यारोप, आलोचनाएँ हो ही रहीं हैं, तो कुछ विचार-विमर्श इसपर भी हो कि - आचार्य शुक्ल के इतिहास में कितनी ऐसी नई अन्तरदृष्टियाँ हैं, जिनकों लेकर नये-नये शोध , नये-नये विचार विमर्श और आलोचनाओं के मार्ग प्रशस्त होते हैं । मुझे तो आचार्य शुक्ल से ज़्यादा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की 'हिन्दी
साहित्य की भूमिका' में ऐसे नये शोध ,आलोचना,विमर्श के मार्ग मिलते हैं... मैं हिन्दी के विद्वानों को इस पर अपने विचार रखने के लिये आमन्त्रित करता हूँ।
फेसबुक पर शुक्ल जी पर अब कुछ लिखना उमड़ते उदधि में कागज की नाव तैराने जैसा हो गया है,पर वादा किया था, सो जाति के प्रश्न पर भी अपनी बात रखूंगा |
साहित्य की भूमिका' में ऐसे नये शोध ,आलोचना,विमर्श के मार्ग मिलते हैं... मैं हिन्दी के विद्वानों को इस पर अपने विचार रखने के लिये आमन्त्रित करता हूँ।
फेसबुक पर शुक्ल जी पर अब कुछ लिखना उमड़ते उदधि में कागज की नाव तैराने जैसा हो गया है,पर वादा किया था, सो जाति के प्रश्न पर भी अपनी बात रखूंगा |
साथियों, शुक्ल जी वैसे ही हिंदी साहित्येतिहास का पक्का ढांचा खड़ा कर रहे थे जैसे उसी दौर में म. प्र.द्विवेदी हिंदी भाषा का पक्का ढांचा बना रहे थे |यह दौर हिंदी भाषा और साहित्य के स्थिरीकरण का है, तो स्वाभाविक है कि इसका लक्ष्य 'शिक्षित जनता 'को ही होना था,ठेठ अपढ लोक में बहावमिलना था, ठहराव नहीं|यह हमें जानना चाहिए कि शुक्ल जी के यहां 'शिक्षित जनता' का मतलब सीधे तौर पर परंपरागत ज्ञानधारी होने से था यानी वेद-पुराणादि के ज्ञान से था, और तरह की पढ़ाई उनकी 'शिक्षित जनता 'में शामिल नहीं है|और उस समय वेदपुराण काव्यशास्त्र कौन जानता था? ब्राह्मण या चंद उच्चसोपानिक वर्ण के लोग|इसीलिए शुक्ल जी का पूरा दृष्टि पथ वर्णव्यवस्था की इन्हीं ऊंची जातियों को लेकर खड़ा हुआ|
दूसरे वे भारतीय रसवाद के गहरे असर में थे|रसवाद आस्वाद को महत्व देता है |आस्वादन के लिए 'सहृदय'होना अनिवार्य है |सहृदयता की भी शर्त वही 'शिक्षित जनता 'पूरी करती थी |इसीलिए जातिव्यवस्था( चिंतामणि भाग-4)जैसा विचारोत्तेजक निबंध लिखने वाले शुक्ल जी लोक की 'प्रकृति भावधारा' की ताकत को समझते हुए (द्वितीय उत्थान :काव्यखंड) भी पुराणवादी शिक्षित जनता की पूंछ नहीं छोड़ पाते|
शुक्ल जी ने जो कवियों की जाति का जरूर से जरूर उल्लेख किया है यह उन्हें साहित्येतिहास लेखन की परंपरा में शिवसिंह सेंगर के यहां से मिलता है |जो लोग यह समझते हैं कि शुक्ल जी का इतिहास मौलिक है, वे कुछ नहीं जानते|शुक्ल जी ने इतिहास लेखन का पैटर्न ग्रियर्सन,मिश्रबंधु और बंग्ला के इतिहास लेखक दिनेशचंद सेन से लिया, शोध पूरा का पूरा मिश्रबंधुओं के विनोद व सभा की रिपोर्ट से लिया, हां आलोचना दृष्टि में मौलिकता है|कवि परिचय लिखते लिखते शुक्ल जी जो मूल्यवान टिप्पणियां करते चलते हैं यह आदत 'शिवसिंह सरोज' में मुसलसल मौजूद है, भले सरोजकार का बोध शुक्ल जी के स्तर का नहीं है |
उन्हें जातिवादी कहते समय यह भी ध्यान देना चाहिए कि मिश्रबंधु और शुक्ल जी का इतिहास दोनों नवजागरण की ही उपज हैं, नवजागरण ऊपरी तौर पर जाति वगैरह का खण्डन करता है, पर उसके झंडाबरदार चूंकि ऊंची जातियों से आये थे, सो उनके दृष्टिपथ में वर्णवाद का घुसना स्वाभाविक था, जो शुक्ल जी के साथ भी हुआ|यही कारण है कि शुक्ल जी की दृष्टि उलझी हुई नजर आती है |उनके भक्त और आलोचक दोनों अपनी सुविधानुसार कोटेशन तलाश सकते हैं |मेरे विचार से सांप्रदायिक नहीं थे,और जहां हुए हैं, वहां औपनिवेशिक दृष्टि का शिकार होने के नाते हुए हैं |वे अपनी समझ में जातिवादी नहीं हैं पर संस्कार,परंपरा और अपने द्वारा बनाई गयी साहित्य की मान्यताओं की फँसरी के जहां जहां शिकार होते हैं जातिवादी या कहें वर्णवादी हो उठते हैं|
दूसरे वे भारतीय रसवाद के गहरे असर में थे|रसवाद आस्वाद को महत्व देता है |आस्वादन के लिए 'सहृदय'होना अनिवार्य है |सहृदयता की भी शर्त वही 'शिक्षित जनता 'पूरी करती थी |इसीलिए जातिव्यवस्था( चिंतामणि भाग-4)जैसा विचारोत्तेजक निबंध लिखने वाले शुक्ल जी लोक की 'प्रकृति भावधारा' की ताकत को समझते हुए (द्वितीय उत्थान :काव्यखंड) भी पुराणवादी शिक्षित जनता की पूंछ नहीं छोड़ पाते|
शुक्ल जी ने जो कवियों की जाति का जरूर से जरूर उल्लेख किया है यह उन्हें साहित्येतिहास लेखन की परंपरा में शिवसिंह सेंगर के यहां से मिलता है |जो लोग यह समझते हैं कि शुक्ल जी का इतिहास मौलिक है, वे कुछ नहीं जानते|शुक्ल जी ने इतिहास लेखन का पैटर्न ग्रियर्सन,मिश्रबंधु और बंग्ला के इतिहास लेखक दिनेशचंद सेन से लिया, शोध पूरा का पूरा मिश्रबंधुओं के विनोद व सभा की रिपोर्ट से लिया, हां आलोचना दृष्टि में मौलिकता है|कवि परिचय लिखते लिखते शुक्ल जी जो मूल्यवान टिप्पणियां करते चलते हैं यह आदत 'शिवसिंह सरोज' में मुसलसल मौजूद है, भले सरोजकार का बोध शुक्ल जी के स्तर का नहीं है |
उन्हें जातिवादी कहते समय यह भी ध्यान देना चाहिए कि मिश्रबंधु और शुक्ल जी का इतिहास दोनों नवजागरण की ही उपज हैं, नवजागरण ऊपरी तौर पर जाति वगैरह का खण्डन करता है, पर उसके झंडाबरदार चूंकि ऊंची जातियों से आये थे, सो उनके दृष्टिपथ में वर्णवाद का घुसना स्वाभाविक था, जो शुक्ल जी के साथ भी हुआ|यही कारण है कि शुक्ल जी की दृष्टि उलझी हुई नजर आती है |उनके भक्त और आलोचक दोनों अपनी सुविधानुसार कोटेशन तलाश सकते हैं |मेरे विचार से सांप्रदायिक नहीं थे,और जहां हुए हैं, वहां औपनिवेशिक दृष्टि का शिकार होने के नाते हुए हैं |वे अपनी समझ में जातिवादी नहीं हैं पर संस्कार,परंपरा और अपने द्वारा बनाई गयी साहित्य की मान्यताओं की फँसरी के जहां जहां शिकार होते हैं जातिवादी या कहें वर्णवादी हो उठते हैं|
इसमे किसी को सन्देह नही होना चाहिए कि रामचंद्र शुक्ल जी की जो किताब है खासकर "इतिहास " की वो किताब आउटडेटेड हो चुकी है। उन्होंने इस किताब में जो भी कोलॉज निर्मित किये हैं। वो अब कोई मायने नही रखता। लेकिन फिर भी वो कौन सी मज़बूरी है, या मानसिकता है, जो इसे "अकेडमिक दुनिया" से अलग नही कर पा रहा।अब आप ये भी कह सकते हैं कि बहुत सारी किताब लिखी जा चुकी है आप उन्हें पढ़िए, लेकिन यकीन मानिए अगर इस किताब से अकेडमिक दुनिया मे प्रश्न नही पूछा जाता तो मैं इसे नही पढता। क्योंकि इनकी जो किताब है, "हिंदी साहित्य का इतिहास" उसका कोई भी आधार अब स्थायित्व नही रखता। सभी निर्मूल हो चुका है। अगर आप चाहे तो इस ग्रन्थ को "मरे हुए लाश" के तरह पीठ पर रखकर चल सकते हैं। लेकिन अकेडमिक दुनिया से इस किताब को बाहर किया जाना चाहिये। आप विहाग वैभव के 2 से 3 शब्दों के आधार पर एक विक्षिप्त मानसिकता के बता सकते हैं तो उसी आधार पर शुक्ल जी को ये क्यो नही कह कहते कि उनका भी इतिहास ग्रन्थ "जातिवादी" और "वर्गवादी" मानसिकता के तहत लिखा गया। शुक्ल जी कंही पर भी जब कवियों का परिचय देते है तो वह "जाति" और वर्ग जैसे शब्दों को जोड़ देते हैं।
कुछ उदाहरण देता हूँ। ऐसे उदाहरण बहुतेरे है।
-- भूषण को लेकर उनका वक्तव्य
उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिंदू जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गई।"
--हिंदू जाति के प्रतिनिधित्व कर्ता के रुप में
शिवाजी और छत्रसाल की वीरता का वर्णनों को कोई कवियों की झूठी ख़ुशामद नहीं कह सकता।"
-- "वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं।"
--कबीर के बारे में
कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों की कट्टरता को दूर करने का जो प्रयास किया। वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं।"
--सूरदास को लेकर
"इस परम्परा में मुसलमान कवि हुए हैं। केवल एक हिन्दू मिला है।"
आखिर कोई बतायेगा ये किस प्रकार की इतिहास दृष्टि है।मैं तो उनकी इस किताब को "विसंगतियों का इतिहास" कहना पसन्द करूँगा। जो ज्यादा उपयुक्त है।अगर आप यह कहना चाह रहे हैं कि उस समय की परिस्थिति कुछ और थी। तो ठीक है इस समय और परिस्थिति अब बदल चुकी है,और इनकी यह किताब भी अप्रसांगिक साबित हो चुकी है। हाँ ये कर सकते हैं कि इसे "मरे हुई लाश" के तरीके उपयोग किया जा सकता है। जो ज्यादा उपयुक्त है।
अब वर्तमान में एक नई इतिहास दृष्टि, एक नई सोच की तहत सहित्योइतिहास की रचना की जानी चाहिए! आप कह सकते हैं कि किताबें बहुत सारी लिखी गई है। लेकिन मैं फिर से कहूँगा कि जो भी इतिहास लिखी गई है आज तक वह सिर्फ इनकी ही विचारों का पिष्टपेषण किया गया है। उसमें उनका कोई मौलिक विचार या, स्वतन्त्र तरीका नही है सोचने का, वह इन्ही के माध्यम से अपनी बातों को शुरू करते हैं।अंत तक इन्ही का खंडन-मण्डन करते चले जाते हैं। आज तक सारे सहित्योइतिहास के रचनाकारों ने यही किया। जिनके कारण ही उनकी ये किताब आज तक अपनी अस्तित्व बनाई हुई है। अगर वो एक नई तरीके से सोचते तो आज ये "आउटडेटेड" किताब पढ़ने की आवस्यकता नही होती।
कुछ बयान सुनवाता हूँ आपको! जो पहले ही इनके सामने हथियार डाल देते हैं। बिल्कुल नतमस्तक हो जातें है।
-- रामचन्द्र शुक्ल से सर्वत्र सहमत होना सम्भव नहीं। ..... फिर भी शुक्ल जी प्रभावित करते हैं। नया लेखक उनसे डरता है, पुराना घबराता है, पंडित सिर हिलाता है।
ऐसे बहुतेरे कथन आपको मिल जायेगा। आप ढूंढ सकते हैं। चतुर्वेदी जी से लेकर बच्चन तक, रामविलास से लेकर नामवर जी तक। बहरहाल इसका एकमात्र कारण है इनके विचारों से ही "खण्डन-मण्डन" की शुरआत करना।
कुछ उदाहरण देता हूँ। ऐसे उदाहरण बहुतेरे है।
-- भूषण को लेकर उनका वक्तव्य
उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिंदू जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गई।"
--हिंदू जाति के प्रतिनिधित्व कर्ता के रुप में
शिवाजी और छत्रसाल की वीरता का वर्णनों को कोई कवियों की झूठी ख़ुशामद नहीं कह सकता।"
-- "वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं।"
--कबीर के बारे में
कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों की कट्टरता को दूर करने का जो प्रयास किया। वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं।"
--सूरदास को लेकर
"इस परम्परा में मुसलमान कवि हुए हैं। केवल एक हिन्दू मिला है।"
आखिर कोई बतायेगा ये किस प्रकार की इतिहास दृष्टि है।मैं तो उनकी इस किताब को "विसंगतियों का इतिहास" कहना पसन्द करूँगा। जो ज्यादा उपयुक्त है।अगर आप यह कहना चाह रहे हैं कि उस समय की परिस्थिति कुछ और थी। तो ठीक है इस समय और परिस्थिति अब बदल चुकी है,और इनकी यह किताब भी अप्रसांगिक साबित हो चुकी है। हाँ ये कर सकते हैं कि इसे "मरे हुई लाश" के तरीके उपयोग किया जा सकता है। जो ज्यादा उपयुक्त है।
अब वर्तमान में एक नई इतिहास दृष्टि, एक नई सोच की तहत सहित्योइतिहास की रचना की जानी चाहिए! आप कह सकते हैं कि किताबें बहुत सारी लिखी गई है। लेकिन मैं फिर से कहूँगा कि जो भी इतिहास लिखी गई है आज तक वह सिर्फ इनकी ही विचारों का पिष्टपेषण किया गया है। उसमें उनका कोई मौलिक विचार या, स्वतन्त्र तरीका नही है सोचने का, वह इन्ही के माध्यम से अपनी बातों को शुरू करते हैं।अंत तक इन्ही का खंडन-मण्डन करते चले जाते हैं। आज तक सारे सहित्योइतिहास के रचनाकारों ने यही किया। जिनके कारण ही उनकी ये किताब आज तक अपनी अस्तित्व बनाई हुई है। अगर वो एक नई तरीके से सोचते तो आज ये "आउटडेटेड" किताब पढ़ने की आवस्यकता नही होती।
कुछ बयान सुनवाता हूँ आपको! जो पहले ही इनके सामने हथियार डाल देते हैं। बिल्कुल नतमस्तक हो जातें है।
-- रामचन्द्र शुक्ल से सर्वत्र सहमत होना सम्भव नहीं। ..... फिर भी शुक्ल जी प्रभावित करते हैं। नया लेखक उनसे डरता है, पुराना घबराता है, पंडित सिर हिलाता है।
ऐसे बहुतेरे कथन आपको मिल जायेगा। आप ढूंढ सकते हैं। चतुर्वेदी जी से लेकर बच्चन तक, रामविलास से लेकर नामवर जी तक। बहरहाल इसका एकमात्र कारण है इनके विचारों से ही "खण्डन-मण्डन" की शुरआत करना।
एक और नमूना देखिये-रामस्वरूप चतुर्वेदी जी का
--"आचार्य का विषय प्रतिपादन जैसा गुरु गम्भीर है उसके बीच उनका सूक्ष्म व्यंग्य और तीव्र तथा पैना हो गया है, घनी-बड़ी मूँछों के बीच हल्की मुस्कान की तरह।"
कौन सी गुरु गम्भीरता कौन --हाँ
---आदिकाल के साथ शुद्ध और अशुद्ध साहित्य के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---भक्तिकाल जो जनवादी चेतना का उभार था उसके साथ ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---रीतिकाल में श्लीलता-अश्लीलता के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---छायावाद के साथ रहस्यवाद के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
छायावाद के बाद बालें प्रकरण पर कुछ भी कहना बेईमानी होगी चाहे वह गद्य विधा हो या पद्य का।
इनके इतिहास की जो किताबों है। उसका दूसरा संस्करण 1940 है। तो निश्चित है। उसके बाद की इतिहास इसमें कम मिलने वाली है।मुमकिन ही नही है।यानि कि करीबन 60 वर्षों का इतिहास गायब, फिर भी इतना ज्यादा प्रासंगिक होना! कितना आश्चर्यजनक है न! मैं आखरी बात कहना चाहूँगा की यह किताब "आउटडेटेड" हो चुकी है। आपको इसे जिस खोह-कंदरा में डालना हो डालें, लेकिन अकेडमिक दुनिया से इसे बाहर करें।
क्योंकि यह मेरे समकालीन नही ठहरता। समकालीन का अर्थ प्रसांगिकता से लें!इस प्रकार, भले ही रैदास और कबीर मध्यकाल के कवि ठहरते हैं। और दुष्यन्त कुमार और राजेश जोशी आधुनिक काल के लेकिन अगर कबीर के विचार हमारे लिए प्रसांगिक है तो भले ही वह मध्यकाल के हों लेकिन वह "मुझे" मेरे समकाल नज़र आते हैं। और अगर राजेश जोशी का विचार पुरातनपंथी है। तो भले ही वह आधुनिक काल के कवि हैं लेकिन वो मेरे लिए समकालीन नही है और अप्रसांगिक भी।
उसी प्रकार कुल-मिलाकर मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि रामचंद्र शुक्ल की जो इतिहास की किताब है वो "आउटडेटेड" हो चुकी है।
--"आचार्य का विषय प्रतिपादन जैसा गुरु गम्भीर है उसके बीच उनका सूक्ष्म व्यंग्य और तीव्र तथा पैना हो गया है, घनी-बड़ी मूँछों के बीच हल्की मुस्कान की तरह।"
कौन सी गुरु गम्भीरता कौन --हाँ
---आदिकाल के साथ शुद्ध और अशुद्ध साहित्य के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---भक्तिकाल जो जनवादी चेतना का उभार था उसके साथ ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---रीतिकाल में श्लीलता-अश्लीलता के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---छायावाद के साथ रहस्यवाद के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
छायावाद के बाद बालें प्रकरण पर कुछ भी कहना बेईमानी होगी चाहे वह गद्य विधा हो या पद्य का।
इनके इतिहास की जो किताबों है। उसका दूसरा संस्करण 1940 है। तो निश्चित है। उसके बाद की इतिहास इसमें कम मिलने वाली है।मुमकिन ही नही है।यानि कि करीबन 60 वर्षों का इतिहास गायब, फिर भी इतना ज्यादा प्रासंगिक होना! कितना आश्चर्यजनक है न! मैं आखरी बात कहना चाहूँगा की यह किताब "आउटडेटेड" हो चुकी है। आपको इसे जिस खोह-कंदरा में डालना हो डालें, लेकिन अकेडमिक दुनिया से इसे बाहर करें।
क्योंकि यह मेरे समकालीन नही ठहरता। समकालीन का अर्थ प्रसांगिकता से लें!इस प्रकार, भले ही रैदास और कबीर मध्यकाल के कवि ठहरते हैं। और दुष्यन्त कुमार और राजेश जोशी आधुनिक काल के लेकिन अगर कबीर के विचार हमारे लिए प्रसांगिक है तो भले ही वह मध्यकाल के हों लेकिन वह "मुझे" मेरे समकाल नज़र आते हैं। और अगर राजेश जोशी का विचार पुरातनपंथी है। तो भले ही वह आधुनिक काल के कवि हैं लेकिन वो मेरे लिए समकालीन नही है और अप्रसांगिक भी।
उसी प्रकार कुल-मिलाकर मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि रामचंद्र शुक्ल की जो इतिहास की किताब है वो "आउटडेटेड" हो चुकी है।
वह सभी दृष्टियाँ जो इतिहास को हिन्दू-मुस्लिम युग्म में देखती है,वे साम्राज्यवादी है और एक हद के बाद साम्प्रदायिक भी हो जाती है।और उस भाषाई समाज में जिसके पुरखों ने इस नयी परिस्थिति के शुरुआती दौर में ही बहुत ही रेडिकल स्टैंड लेते हुये कहा था - "न वेदे न कुराने", ‘‘ना मस्जिद ना देहुरा।‘‘गोरखनाथ की इस विचार-परम्परा को ही कबीर ने ‘ना हिन्दू ना मुसलमान‘ , ‘दोनों राह न पायी‘ जैसी टेक के साथ अनेक बार दोहराया है। इन दोनों कवियों को याद करना इस लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों के टकराव एवं सम्मिलन की ये प्रारंभिक आवाजें हैं।इन आवाजों के साथ बाद के और विशेष रूप से साम्राज्यवाद के खिलाफ ल़डाई के दौर में विभिन्न अनुशासनों में लिख रहे लोगों ने किस तरह का रिश्ता बनाया है,उसका मूल्यांकन होना ही चाहिए।गोरख और कबीर के लिए इन्सान होना पहली शर्त है।उनके लिए समानता और बन्धुता वह बुनियाद है जिसपर भावी मनुष्यता की गगनचुंबी इमारतें खड़ी हो सकती है।नाथ और निर्गुण पंथ में कही गईं इस तरह की बहुत सी बातों के साथ आप किस तरह से संवाद करते है इससे आपकी पक्षधरता निर्धारित होगी।किसी विचारक का मूल्यांकन करते हुए यह भी देखा जाना चाहिए कि उसका समय-सन्दर्भ कैसा है और साथ ही वह अपने समय की अग्रगामी विचार सरणियों के साथ कैसा व्यवहार कर रहा है।
चुनौती :
पिछले दो दशकों में हिन्दी साहित्य में हुए पाँच उल्लेखनीय/महत्वपूर्ण/श्रेष्ठ शोधकार्य : भारत के किसी भी विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभागों में हुए शोधकार्य का नाम बताइये, जिन्हें आज और आने वाले समय में हिन्दी पाठकों,विद्यार्थियों,शोधार्थियों के समक्ष प्रतिमान के रूप में पेश किये जा सकें।
पिछले दो दशकों में हिन्दी साहित्य में हुए पाँच उल्लेखनीय/महत्वपूर्ण/श्रेष्ठ शोधकार्य : भारत के किसी भी विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभागों में हुए शोधकार्य का नाम बताइये, जिन्हें आज और आने वाले समय में हिन्दी पाठकों,विद्यार्थियों,शोधार्थियों के समक्ष प्रतिमान के रूप में पेश किये जा सकें।
रामचंद्र शुक्ल का इतिहास साम्प्रदायिक और जातिवादी इतिहास है।
हिन्दी अकेडमिया को तुरंत इसका विकल्प खोजना चाहिए और इस इतिहास को इतिहास के संग्रहालय में डाल देना चाहिए।
बात जरा अगम्भीर लगे तो भी।
बात जरा अगम्भीर लगे तो भी।
हम सब यह तो मानते ही होंगे कि पढ़ने का असर हमारी चेतना पर होता है। हमारी चेतना का निर्माण हमारे पढ़ने-समझने से भी विकसित होता है। यानी अगर हमारी चेतना प्रगतिशील मूल्यों में भरोसा रखने वाली बनी है तो निश्चित ही उसमें कबीर,रैदास,प्रेमचंद,निराला,मुक्तिबोध जैसे रचनाकारों का योगदान होगा। (जिन्हें नाम छूटने के आरोप लगाना है वे अपने हिसाब से और नाम जोड़ सकते हैं। वे स्वतंत्र हैं।) इसी तरह जो दक्षिणपंथी लोग हैं वे अपने ढंग की किताबें पढ़ते हैं।
अब मूल बात कि क्या आप में से कोई किसी ऐसे व्यक्ति का नाम बता सकता है जो शुक्ल का इतिहास पढ़कर साम्प्रदायिक या जातिवादी हुआ हो?.....
अब मूल बात कि क्या आप में से कोई किसी ऐसे व्यक्ति का नाम बता सकता है जो शुक्ल का इतिहास पढ़कर साम्प्रदायिक या जातिवादी हुआ हो?.....
-युवा कवि गोलेन्द्र पटेल!
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