प्रेम में मेहनतकश मजदूर किसानों के "श्रम-सौंदर्य-संवेदना" के सर्जक नवोदित 'जन-ज़मीन' के कवि कुमार मंगलम रणवीर केदारनाथ अग्रवाल के जनपदीय चेतना से जुड़ अपने परिवेश को देखते हैं :-
मुझे इश्क तुमसे है
जैसे आम आदमी को
अपनी माटी से होता है...
पसीने की बूंद से लहू तक
सौंप कर जमीं को करता है
आगाध प्रेम!...
मैं सड़क पर चलते नागरिकों को
देखता हूँ उपेक्षा की नज़र से और
आजीवन गंवई आदमी बन कर!...
कोरोना के कहर काल में मनुष्य अपने घरों में जहाँ एक ओर बंद हैं तो दूसरी ओर पूर्वजों के "श्रम सदन" (अर्थात् पितृ संपत्ति ज़मीन) से गहराई से जुड़ गए हैं। वे आने वाली भावी पीढ़ी के लिए एक भवन का निर्माण करना चाहते हैं जिसमें संघर्ष के साथ सुख सदैव उपस्थित रहे मरते उम्मीद को उपजाने के लिए। निम्नलिखित दृष्टटव्य देेखने योग्य हैं :-
शरीरिक श्रम और कमाय धन से
बनाय मकान मे ईट-बालू-छड़-सिमेंट केवल नहीं होता..!
होता हैं एक बाप के लिए सपना
होता हैं संघर्षरत इंसान का आखिरी संकल्प जो अपनी दूसरी पीढ़ी को देना चाहता हैं...!
मकान से इक रोज बनता हैं घर
घर मे रह रहे परिवार पर टिका होता हैं सब....!
जहाँ खटिया पर बैठे अधेड़ देखते
हैं आखिरी पल घर को बागबाँ होते हुए वह सीधा स्वर्ग को जाते हैं और जिस घर मे कलह का हो जाए वास वह
घर ही नरक हो जाता हैं।
श्रम को जिंदा रखने के लिए घर को जिंदा रखें,
घर को जिंदा रखने
के लिए खुद को जिंदा रखें...
भूलने वाली बात नहीं!
हमारे जिंदा रहने पर हमारा राष्ट्र जीवंत रह सकेगा!
श्रम को जीवित रखना चाहता है कवि नयी पीढ़ी नये जीवन के लिए... हमारा राष्ट्र गाँँवों का राष्ट्र है। आज भी गांव में किसानों के घर कैसा होता है यह आप जानते हैं। मजदूरों के भूख को चिन्हित करते हुए उपर्युक्त कविता में कहा गया है कि रोटी के लिए "श्रम" को जिंदा रहना चाहिए। अर्थात् घर बनते रहना चाहिए।
इस पूंजीवादी दूनिया में रिश्तों को अहमियत को दर्ज करते हुए कवि रम्य रत्न पंक्तियाँ प्रस्तुत करता है :-
चकाचौंध सी दुनिया मे
सम्पूर्ण लेख पत्र पत्रिकाओं में....
©गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू
www.youtube.com/golendragyan/
घर मे रह रहे परिवार पर टिका होता हैं सब....!
जहाँ खटिया पर बैठे अधेड़ देखते
हैं आखिरी पल घर को बागबाँ होते हुए वह सीधा स्वर्ग को जाते हैं और जिस घर मे कलह का हो जाए वास वह
घर ही नरक हो जाता हैं।
श्रम को जिंदा रखने के लिए घर को जिंदा रखें,
घर को जिंदा रखने
के लिए खुद को जिंदा रखें...
भूलने वाली बात नहीं!
हमारे जिंदा रहने पर हमारा राष्ट्र जीवंत रह सकेगा!
श्रम को जीवित रखना चाहता है कवि नयी पीढ़ी नये जीवन के लिए... हमारा राष्ट्र गाँँवों का राष्ट्र है। आज भी गांव में किसानों के घर कैसा होता है यह आप जानते हैं। मजदूरों के भूख को चिन्हित करते हुए उपर्युक्त कविता में कहा गया है कि रोटी के लिए "श्रम" को जिंदा रहना चाहिए। अर्थात् घर बनते रहना चाहिए।
इस पूंजीवादी दूनिया में रिश्तों को अहमियत को दर्ज करते हुए कवि रम्य रत्न पंक्तियाँ प्रस्तुत करता है :-
चकाचौंध सी दुनिया मे
उबना सामान्य बात हैं..
विवश हो सोचता हूं मैं
मेरी कौन सी जात हैं..!
रिश्ते से ऊब जाना
अपनो से दूर जाना
क्या खास बात हैं...!
ब्रांड की दुनिया मे
तुम मुझे क्या छोड़ जाओगे!
मैं 'नटराज' पेंसिल तोड़कर
मुझे तुम "रोटोमैक"लाओगे!
माँ -बहन-भाई-दोस्त-यार
तुम सब बाजार मत होना...!
भाव के रिश्ते हैं अखबार के
इश्तेहार मत होना...!
अंगुली पकड़ना सरखुशी से
पर कभी धारदार हथियार मत होना!
विवश हो सोचता हूं मैं
मेरी कौन सी जात हैं..!
रिश्ते से ऊब जाना
अपनो से दूर जाना
क्या खास बात हैं...!
ब्रांड की दुनिया मे
तुम मुझे क्या छोड़ जाओगे!
मैं 'नटराज' पेंसिल तोड़कर
मुझे तुम "रोटोमैक"लाओगे!
माँ -बहन-भाई-दोस्त-यार
तुम सब बाजार मत होना...!
भाव के रिश्ते हैं अखबार के
इश्तेहार मत होना...!
अंगुली पकड़ना सरखुशी से
पर कभी धारदार हथियार मत होना!
सम्पूर्ण लेख पत्र पत्रिकाओं में....
©गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू
www.youtube.com/golendragyan/
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