"जोंक"
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रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान ;
तब रक्त चूसते हैं जोंक!
चूहे फसल नहीं चरते
फसल चरते हैं
साँड और नीलगाय.....
चूहे तो बस संग्रह करते हैं
गहरे गोदामीय बिल में!
टिड्डे पत्तियों के साथ
पुरुषार्थ को चाट जाते हैं
आपस में युद्ध कर
काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!
प्यासी धूप
पसीना पीती है खेत में
जोंक की भाँति!
अंत में अक्सर ही
कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं
सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!
इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान
सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!
(रचना : ०८-०७-२०२०)
तड़प
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देखो!
इस अंधेरे में
चमगादड़ लौट रहे हैं
अपने नयन से अपने नीड़
और उनके हमसफ़र उल्लू भी!
अन्य पंक्षी
दिन के पथिक कैसे पहुँचेंगे अपने घोसला???
पूछ रही बहेलिया की बेटी
प्रसव-पीड़ा से लेटी
संसद के पथरीली पथ पर पिता से।...
बापू
क्या मेरा पुत्र पहुँच पायेगा घर???
इसे अभी धरती पर आये
कुछ ही क्षण हुए हैं
मेरे पेट में चार दिन से चूहे दौड़ रहे हैं
सूख चुकी है छाती
चाम चिचोर रहा है मेरा बच्चा।
चमचमाती धूप में आत्मा चौंधिया
सिसक सिसक कर रो रही है
दर्ज़नों दर्द देह में ढो रही है इस महारंक-रूप में
चुपचाप चीख सून रहे हैं नये नेता
नाक पर रुमाल डाल कर
हाय! और क्या कहूँ असहाय
मैं देखता रहा "तड़प"।।
(२५-०५-२०२०)
३.
कविता जनतंत्र के अखाड़े में
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एक मेंढक टर-टराए
तो दूसरे का टरटराना स्वभाविक क्रिया है
उमस है
तो उम्मीद है बारिश का
भले ही बादल आएं और चले जाएं
खेत से दूर बहुत दूर
बंजर मरूस्थल हृदय के पास।
बेलमुर्गी चीं-चीं चीख रही है
जलकुंभी में छिप कर
एक दिल्ली के आदमी से डर
जो अभी अभी आया है गांव में
खेतिहर के वोट के ख़ातिर
चिड़ियों को चना देने बाकी को दाना
खेतिहरिन को लाई पसंद है
खाना नहीं!
एक कमीना देख रहा है
कूशे में टिटिहरी का अंडा
सुन रहा है हु-टि२-टि३...
गंवईं गवाह हैं
उक्त प्रतिरोध की ध्वनि कानों-कान जायेगी
कचहरी।
कचहरी के दिवारों से टकरा
लौट आयेगी प्रतिध्वनि कविता के शरण में
कविता बगावत करेगी
बहादूरों से
जनतंत्र के अखाड़े में।
(रचना : १ जुलाई ,२०२०)
४.
सरसराहट संसद तक बिन विश्राम सफ़र करेगी
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तिर्रियाँ पकड़ रही हैं
गाँव की कच्ची उम्र
तितलियों के पीछे दौड़ रही है
पकड़ने की इच्छा
अबोध बच्चियों का!
बच्चें काँचे खेल रहे हैं
सामने वृद्ध नीम के डाल पर बैठी है
मायूसी और मौन
मादा नीलकंठ बहुत दिन बाद दिखी है
दो रोज़ पहले मैना दिखी थी इसी डाल पर उदास
और इसी डाल पर अक्सर बैठती हैं चुप्पी चिड़ियाँ!
कोयलिया कूक रही है
शांत पत्तियाँ सुन रही हैं
सुबह का सरसराहट व शाम का चहचहाहट चीख हैं
क्रमशः हवा और पाखी का
चहचहाहट चार कोस तक जाएगी
फिर टकराएगी चट्टानों और पर्वतों से
फिर जाएगी ; चौराहों पर कुछ क्षण रुक
चलती चली जाएगी सड़क धर
सरसराहट संसद तक बिन विश्राम किए!
(रचना : ०७-०८-२०२०)
५.
तिर्रें-तिर्रियों-तितलियों के साथ
बच्चों को खेलते देख ताज़े हो जाते हैं पके उम्र
बचपन की स्मृतियों में खो जाते हैं
बुढवा-बुढिया!
सनई फूली है
नेनुआ-तरोई चढ़ी हैं झोपड़ी पर
बाड़ा हर है
और पीले चेहरों के ख़ुशी पीले पुष्प खिले हैं!
मक्का-मकई झूम रही हैं
गोहरा ढो रही हैं बहूएं
हल्दी-सूरन सोह रही है दादी
नीम पर चढ़े करैलों के कविताएँ सुना रहा हूँ दादा को!
( रचना : ०९-०८-२०२०)
६.
कविता के लिए
अज्ञेय आकाश से शब्द उठाते हैं
केदारनाथ धूल से
श्रीप्रकाश शुक्ल रेत से
पहला धूल है या फूल ;
कह नहीं सकता
ताकना तुम
तर्क के तह में "सत्य" दिखेगा
दूसरा गुलाब है
गंध आ रही है
नाक में
तीसरा नदी का नाव।
७.
◆रक्षाबंधन◆
एकजुआर रोती रोज़
नून-तेल-ईंधन नहीं
रोटी का पेट से बंधन
चूल्हा ताक रहा है - "भूख"
तवा उदास कड़ाही का दुख
डकची को सुना रहा है
चौका-बेलना बिलख रहे हैं
सून्ठा-सिल सिसक रही हैं
आँखें हरहरा नदी बन बही हैं
गरीब के गालों पर गंगा।
कुएँ का पानी विकल्प है
बच्चों के जीवन के लिए
आज नैहर जाना है - प्राणनाथ स्वर्ग से लौट आओ
बच्चों को नानी के घर
मिलेगा हलवा-पूरी मिठाई
सब उल्लास से उछल रहे हैं
भाईया पहले अपने ससुराल जाएंगे
फिर लौट कर आएंगे शाम को लेने
साँझ हो गई मामा कब आएंगे माँ
उम्मीद वक्त मांगता है बेटी
बस थोड़ा और इंतजार करो सब
मामा आ गए मामा आ गए बड़े मामा आ गए...
मुन्नी कैसी हो?
ठीक हैं
रात हो गई
दीदी रास्ते में गाड़ी खराब हो गई थी
सारे दुकान बंद थें "लॉकडाउन लगा है चारों ओर"
आदमी घर में रहते रहते लंगड़ हो गए हैं
चलो जल्दी करो माई फोन करवा रही है
विधवा बहन विशेष धागों के साथ पहूँची मायके
भौजाई बोली मिठाई नहीं केवल "रक्षाबंधन" है
(रचना : ०१-०८-२०२०)
८.
धूप का रोटियाँ
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हे श्रमिक!
लोकतंत्र के आँगन में
देखा मैंने
श्रम को सोखती
भूखी-प्यासी धूप
पसीना पी-पी परिश्रम से
सेक रही है - "रोटियाँ" ;
लोकसभा व लोकसेवा के मच्छरों के लिए
जो खून चुसते हैं
क्या उनसे उक्त रोटियाँ पचेगी
उनके अंतिम समय में।
(रचना : २९-०७-२०२०)
९.
मेंढ़क के टर-टर में कजरी व कविता
मेंढकएँ टर-टर के भाषा में कहते हैं
लड़ो नहीं
लोकतंत्र आ नहीं सकता
तुम्हारे पगडंडियों पर पैदल
लंगड़ है।
नहर-नाली टूट-फूट-पट चुकी हैं
सूखे हैं सारे सरोवर
ट्यूबवेलों को जले हुए कई साल हो गए
जहाँ मायूस मेंढ़क टर-टर करता था एक कविता
दोहराता था कजरी
जिसे सुनने जाता था रात में कुआँ के पास
उछल-उछल कूद-कूद फुदक-फुदक....
यदि तुम आशिक हो तो और भी सुनो
जब जुगनूँ जगत पर चमकते थे चमचम चमचम
तब हवा को किशोरियों का होठ चुमते देखा था
फेफड़ा उस वक्त चुम रहा था हवा को
आज हवा में विरहाग्नि अधिक है
इसके बाह्य स्पर्श से जले रहे हैं देह
अंतः से हृदय ; हरेक आशिकों का
कर्ज़ से लदे कृषक कहते हैं मेंढ़क से
प्रेम-म्रेम छोड़ो ; बादल को बुलाओ
बादल तुम्हारे टर-टर में त्राहि-त्राहि सुनते हैं
हमारे कराह नहीं ,आंतरिक आह नहीं....
(रचना : १९-०७-२०२०)
१०.
मुसहर मित्र के घर
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लाल के लिए
मुसहरिन माता के मटके में पक रहा है
तोमड़ी का लाल तण्डुल
जिसे कृषक झरनहवाँ धान कहते हैं।
लाल मेरा मुसहर मित्र है
अभी अभी लौट कर आया है भूख के भयंकर जंगलों से
जहाँ जाने पर पेट के भीतर जम जाते हैं बबलू के पेड़
उड़ने लगते हैं रेगिस्तानी पंक्षी।
लाल के पिता चूहे भून रहे हैं
उसके चाचा चार गोहटों के तेल नीकाल रहे हैं
उसकी चाची घोंघे ताल रही हैं
ड्योढ़ी पर बैठी दादी दौरी बीन रही है
छोटे छोटे बच्चे चेहरे पर नाक-पोटा चिपोरे
चूल्हे की ओर ताक रहे हैं
मैं उसके दादा के स्मृतियों में ढुँढ रहा हूँ
समय के लिए उलाहना
तिरपाल के नीचे नाली का गंध
क्यों...???
(रचना : २७-०७-२०२०)
११.
१.
जब आकाश से गिरते हैं
पूर्वजों के संचित आँसू
तब खेतिहर करते हैं मजबूत
अपनी मेंड़
मेड़ तो मजबूत हुई नहीं
पर फरसी-फरसा लाठी-लाठा झोटी-झोटा मारी-मारा उठा-पटक....
अंत में थाने!
२.
रोपनी के समय
रोटी के लिए
संडा जब कबारते हैं मजदूर
तब रक्त चूसती हैं - "जोंक"
दोहरे दोहित दलित दुबली पतली देह
विश्राम जब करती हैं बिस्तरे पर
तब शेष शोणित - "खटमल"
३.
मेंड़ पर सोए शिशु को च्यूँटे काट रहे हैं
चीख सुन रहे हैं मालिक मौन
मजदूरनी माँ कहती है शांत रह लल्ला
अभी एक पैड़ा और बचा है
रोप लेने दे
बच्चे के पास पहुंचा तो देखा
एक दोडहा व दो बिच्छूएँ
एक केकड़ा थोड़ा दूर
पैर में काट लिया है बर्र
घिंनाते-घिंनाते उसे उठाया
वह अपने मल-मूत्र से तरबतर था
तुरंत बर्रों के मंत्रों का पाठ किया
फिर अपनी चाची को बुलाया -
बिच्छू झाड़ीफूकी
चमरौटी से बुलाया बुढउ दादा को -
जो दोडहा झाड़ेफूके
बिच्छू-दोडहा तो तसल्ली के लिए झाड़ा गया
गाँव में सभी को पता है कि कुछ मंत्र जानता हूँ मैं
(बर्र-भभतुआ-थनइल-नज़र-रेघनी...)
सीखा तो बिच्छू-साँप का भी था
पर उसे तभी भूल गया जब विज्ञान का विद्यार्थी था
जो स्मृतियों में जीवित हैं उसे भी भूल गया
ऐसा कहता हूँ मैं।
मंत्रों से आँखें कचकचाएँ
होठों की हँसी हृदय में हर्ष से हहराएँ
फूंकने पर केश लहराएँ
कर्षित कली का मेंड़ पर
आज मुझे लग रहा है मंत्र सीखना सार्थक रहा
हे समय!
(रचना : ०५-०७-२०२०)
१२.
अंधेरे में रोशनी रोपना
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नहीं रोपना चाहती
नई पीढ़ी
धान का संडा
छोटे हो रहे खेत में!
बंजर सिर्फ आँसुओं से नहीं
रक्त से सिंचा है
जिसे कुदाल-फावड़ा से नहीं
कर्ज़ के कर से कोड़ा है
कर्षित किसान!
हम तैयार हैं
अंधेरे में रोशनी रोपने के लिए
उर्वर उम्मीद को उगाता है
कवि शब्द को उठाता है
सड़क से ; और पहुँचाता है संसद भवन!
वृक्ष पर लटकते लोकतंत्र को देख
प्रायः प्रातः पंक्षी चहचहाना छोड़ देते हैं
पर "कविता" नहीं!
(रचना : ०४-०७-२०२०)
१३.
दुःख-दर्द के दर्पण में संवेदना का प्रतिबिंब हूँ
जो कहता कविता का कर्षित कवित्व बिंब हूँ
भुवन में भावनाओं का भूखा कवि वही हूँ मैं
काव्यशाला में कुछ विशेष बात का बही हूँ मैं
साहित्यिक तर्पण के लिए दहीकौर कहीं हूँ
खुली आँखों में खुला आकाश और मही हूँ
प्रातः पूज्य काव्यपरंपरा गाने वाला छही हूँ मैं
पद्य को गद्य के करीब पहुँचाने वाला नहीं हूँ मैं
कृति कहे आज कवि नहीं कवयित्री की आत्मा हूँ
दया करुणा प्रेम गीत गुलाब गंध की परमात्मा हूँ
बौद्धों के निर्वाण जैनों के कैवल्य की काव्यात्मा हूँ मैं
शब्दों के समुच्चयों में सृष्टि के सत्य की धर्मात्मा हूँ मैं
प्रत्येक प्यासे व्यक्ति के लिए निर्मल सितल सरिता हूँ
काव्याचार्य! काम-क्रोध-मद-मोह से मुक्त कविता हूँ
पुरुषों को पुरुषार्थ पथ पर भेजनेवाला पथप्रदर्शक हूँ मैं
समकालीनता में श्रेष्ठ साहित्यिक दिव्यदृष्टि का दर्शक हूँ मैं
(रचना : ०४-०१-२०२०)
【"कविता का कर्षित कृषक पूत्र हूँ" से】
१४.
काव्य-खेत का खेतीहर हूँ
धान गेहूँ बाजरा रहर हूँ
पूज्य पूर्वजों का वंशजचंद्र हूँ मैं
हिंदी कविता का हरिशचंद्र हूँ मैं
सरसों तीसी चना मटर हूँ
ककरी केराव मसूर टमाटर हूँ
नेनुआ केदुआ चढ़ानेवाला घर हूँ मैं
महाकृति का मधुर स्वर हूँ मैं
मीर्च लेहसुन प्याज चुकंदर हूँ
चौराई पालक धनिया क्षर हूँ
आदेश्वर कवि का अक्षर हूँ मैं
आदि से ही अमर हूँ मैं
आलू गोभी मूली गाजर हूँ
तरबूज़ खीरा बेल कटहर हूँ
आम अमरुद बेर का पेड़ हूँ मैं
पके ताड़ खजुर का पेड़ हूँ मैं
कौमुदी कमल गुलाब गुड़हल हूँ
खाड़ गुड़ चीनी मिश्रित कल हूँ
दिव्य सरिता निर्मल शीतल हूँ मैं
साहित्य का सोमरस जल हूँ मैं
【"कविता का कर्षित कृषक पूत्र हूँ" से】
१५.
दिल से दिल का दीपक जला रहा हूँ ।
युवा संदेश साध हाथ हल चला रहा हूँ ।
सृष्टि संकेत शोषितों का सूत्र हूँ मैं
कविता के खेत का कृषक पुत्र हूँ मैँ।
करुणा से उपजा साहित्य का सागर हूं।
महामना मानवता का पुण्य एक घर हूं।
कविता व संगीत के परिवार का सदस्य हूँ मैं।
सार्थक शब्द समुच्चय की उठती हुई लय हूँ मैं।
गन्ना-धान के पत्तों पर पड़ी ओस मणि हूँ ।
गौ गाँव गंगा व गुरु से खड़ा जोश हूँ ।
आज एक आँसू का जन कवि बना हूँ मैं।
जगत जीव दर्द की संवेदना हूँ मैं।
साहित्यकार से पहले विद्यार्थी हूँ
समय और समाज का सारथी हूँ
मनुष्य के मुक्ति का अभिव्यक्ति हूँ मैं।
शिष्याचार्य परम्परा की शक्ति हूँ मैं।
ऊपर सदैव उठने वाला उमंग हूँ
जीवन के जगमग समुद्र की तरंग हूँ
कवियों के प्रयोगशाला का अंग हूँ मैं।
काव्यगुरु श्रीप्रकाश शुक्ल के संग हूँ मैं।
हवनकुण्ड का ह्रस्व स्वर मंत्र हूँ
भविष्य हविष्य हृदय का लोकतंत्र हूँ
कालजयी काव्यकला का तंत्र हूँ मैं।
कविता का कर्षित कृषक पुत्र हूँ मैं।
【"कविता का कर्षित कृषक पूत्र हूँ" से】
१६.
लक्ष्य के पथ जाना है
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लक्ष्य के पथ जाना है
आँधी आये दीप बुझे ;
फिर भी रुक नहीं सकता
मणि है साथ जो!
आगे बढ़ चला
साहित्य के घर चला!
आदित्य की तरह जला
काव्य-परिसर में आ जो पला!
१७.
लोहारिन का लक्ष्य//
सिर के सिस्टम में छुपे
जूँ काट रहे हैं
माथे से टपटप टपटप चू रहा परिश्रम
चिंगारी पैरों पर गिर रही है
हाथों के छाले
हथौड़ा चला रहे हैं
लोहारिन के लक्ष्य पर।
पेट की पुकार सुन
सटीक प्रबल प्रहार
बार बार कर रही भूख
एक वक्त के आहार के लिए।
आग बुझ रही है आँसू से
पत्थर तप कर टूट रहा है
लोहा ढल रहा है समय के साँचे में
हलक माँग रहा है पानी -
सूखे कुएँ से।
(रचना : ०९-०८-२०२०)
१८.
कोहारिन काकी की कला
लटक रहा है
मानस के सिकहर पर
मक्खन से भरा
मथुरा का मार्मिक मटका
इस पर उत्कीर्ण है
कोहारिन काकी की कला।
गंध सूँघ रहा है बम-बिलार
बिल्ली थक कर बैठी है नीचे
मक्खियाँ भिनभिना रही हैं
चूहे चढ़ कर चाट रहे हैं मक्खन
अंततः बम-बिलार फोड़ दिया घर का घड़ा।
पूर्वजों ने ठीक ही कहा है
कला का महत्व मनुष्य जानते हैं
जानवर नहीं।
जानवर तो अपना ही जोतते रहते हैं
काकी ठीक कहती हैं
भूख कला को जन्म देती है।
कुछ भी हो
बम-बिलार बलवान के साथ साथ चतुर भी है
क्योंकि वह मक्खन और चूहे को एकसाथ खा रहा है।
(रचना : ११-०८-२०२०)
१९.
मूर्तिकारिन //
राजमंदिरों के महात्माओं
मौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ
समय की छेनी-हथौड़ी से
स्वयं को गढ़ रही हूँ
चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी!
सूरज को लगा है गरहन
लालटेनों के तेल खत्म हो गए हैं
चारो ओर अंधेरा है
कहर रहे हैं हर शहर
समुद्र की तूफानी हवा आ गई है गाँव
दीये बुझ रहे हैं तेजी से
मणि निगल रहे हैं साँप
और आम चीख चली -
दिल्ली!
(रचना : १२-०८-२०२०)
२०.
हे महर्षि अगस्त्य!
कोरोजीवी केवल काव्य संज्ञा ही नहीं है
बल्कि संकटों के सप्तसागर को सोखने वाला सूत्र भी है
इसे गढ़ें हैं हमारे काव्यगुरु
समतामूलक साहित्यिक समाज के लिए
जो आम आदमी के आत्मसंघर्ष के आचार्य हैं
एक चिकित्सक की भाँति!
महामारी का नेवाला है मृत्यु
जनता मुँह ताक रही हैं महंगी दवाओं का
सस्ते मंत्र सेहत गिरा रहे हैं - मौन मजदूर
चुप्पियों के गर्भ से जन्मी है कोरोजयी कविता!
सत्ता के विरुद्ध शंखनाद करती कह रही है
मैं हूँ
समकालीन शब्दसत्ता की क्रांतिकारी चेतना!
दुनिया का दिल धड़क रहा है
दिख रही हैं दया-करुणा कैद घरों में
और ममत्व-स्नेह सोशल मीडिया पर
सहृदय साँस नहीं ले पा रहे हैं
बच्चों की रोटियाँ छीन रहे हैं काले कौएं
अभी भी सड़क पी रही हैं राहगीरों के रक्त!
खेतों के हरे फ़सल चर रहे हैं साँड़
नीलगाय हाँक रही हैं खेतिहरिन
रेगिस्तानी जहाज थउस रहे हैं बीच सफ़र में!
बाढ़ आई है चारों ओर
और प्यास से मर रहे हैं पंक्षी
एक चतुर चिड़िया उड़ान भरी है -
दिल्ली की दिशा में
हे महा मुनि!
उसे वहाँ न्याय तो मिला नहीं
अलबत्ता मेरे प्रिय कवि मदन कश्यप हो गए हैं निरीश्वर!
सुभाष राय से लेकर अनिल पाण्डेय तक
सभी काव्य कृषक सोह रहे हैं कोरोजीवी क्यारी
उम्मीद है
नयी सुबह के लिए उगेगी उचित उत्तम उपज
श्रीप्रकाश शुक्ल के संग साथ सींच रहा हूँ मैं भी
कुएँ से पानी खींच रहा हूँ
मौन!
कोरोजीविता का सूत्र हूँ
कविता का कर्षित कृषक पुत्र हूँ मैं!!
(रचना : १४-०८-२०२०)
२१.
चुड़िहारिन //
बूढ़ी पत्तियाँ हर वर्ष
नयी पत्तियों को अपना जगह देती हैं सहर्ष
आकाश का शासक शिकारी है
टहनियों पर चुपचाप बैठी हैं चिड़ियाँ
चुड़िहारिन चिल्ला रही है
संसद के सड़क पर -
चुड़ी ले लो....!
चुचकी चूचुक चूस रहा है शिशु
खोपड़ी का खून पी रही हैं जूँ
चमचमाती धूप चमड़ी जला रही है
चौंधियाई आँखें अचकचा रही हैं
टोकरी में जीवन का बोझ ढो रही है
लोकतंत्र की लोकल लड़की....!
सफ़र अभी शेष है
अँतड़ी में आँधी चल रही है
सूरज ढल रहा है
रात्रि आ रही है
खटिया का खटमल जाग रहे हैं
विश्राम कहाँ करें कर्षिता -
हे बाज़!
चहक कर पूछ रही हैं चुप्पी चिड़ियाँ
उत्तर दो!!
(रचना : १८-०८-२०२०)
©गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू
ईमेल : corojivi@gmail.com
मो.नं. : 8429249326
काव्यगुरु : श्रीप्रकाश शुक्ल
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