Tuesday, 18 August 2020

महामारी में महादेवी वर्मा की कविताएँ {"वेदना की कवयित्री' एवं 'आधुनिक युग की मीरा"} : गोलेन्द्र पटेल {बीएचयू}

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 १.

अलि अब सपने की बात -महादेवी वर्मा 


अलि अब सपने की बात,

हो गया है वह मधु का प्रात:!


जब मुरली का मृदु पंचम स्वर,

कर जाता मन पुलकित अस्थिर,

कम्पित हो उठता सुख से भर,

नव लतिका सा गात!


जब उनकी चितवन का निर्झर,

भर देता मधु से मानस-सर,

स्मित से झरतीं किरणें झर झर,

पीते दृग - जलजात!


मिलन-इन्दु बुनता जीवन पर,

विस्मृति के तारों से चादर,

विपुल कल्पनाओं का मंथर,

बहता सुरभित वात।


 अब नीरव मानस-अलि गुंजन,

कुसुमित मृदु भावों का स्पंदन,

विरह-वेदना आई है बन,

तम तुषार की रात! 

२.

अश्रु यह पानी नहीं है -महादेवी वर्मा 


अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!


यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये,

यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये,

स्वाति को खोजा नहीं है औ' न सीपी को पुकारा,

मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा!

शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती,

प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है।


 अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!


नमन सागर को नमन विषपान की उज्ज्वल कथा को,

देव-दानव पर नहीं समझे कभी मानव प्रथा को,

कब कहा इसने कि इसका गरल कोई अन्य पी ले,

अन्य का विष माँग कहता हे स्वजन तू और जी ले!

यह स्वयं जलता रहा देने अथक आलोक सब को,

मनुज की छवि देखने को मृत्यु क्या दर्पण नहीं है।


 अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!


शंख कब फूँका शलभ ने फूल झर जाते अबोले,

मौन जलता दीप, धरती ने कभी क्या दान तोले?

खो रहे उच्छ्‌वास भी कब मर्म गाथा खोलते हैं,

साँस के दो तार ये झंकार के बिन बोलते हैं,

पढ़ सभी पाए जिसे वह वर्ण-अक्षरहीन भाषा,

प्राणदानी के लिए वाणी यहाँ बंधन नहीं है।


 अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !


किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ,

तिमिर लहराता न बिखरी इंद्रधनुषों की छटाएँ

 समय ठहरा है शिला-सा क्षण कहाँ उसमें समाते,

निष्पलक लोचन जहाँ सपने कभी आते न जाते,

वह तुम्हारा स्वर्ग अब मेरे लिए परदेश ही है ।

 क्या वहाँ मेरा पहुँचना आज निर्वासन नहीं है ?


अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !


आँसुओं के मौन में बोलो तभी मानूँ तुम्हें मैं,

खिल उठे मुस्कान में परिचय, तभी जानूँ तुम्हें मैं,

साँस में आहट मिले तब आज पहचानूँ तुम्हें मैं,

वेदना यह झेल लो तब आज सम्मानूँ तुम्हें मैं !

आज मंदिर के मुखर घड़ियाल घंटों में न बोलो,

अब चुनौती है पुजारी, ये नमन वंदन नहीं है।


 अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

३.

किसी का दीप निष्ठुर हूँ -महादेवी वर्मा 


शलभ मैं शापमय वर हूँ!

किसी का दीप निष्ठुर हूँ!


ताज है जलती शिखा;

चिनगारियाँ शृंगारमाला;

ज्वाल अक्षय कोष सी;

अंगार मेरी रंगशाला ;

नाश में जीवित किसी की साध सुन्दर हूँ!


नयन में रह किन्तु जलती

 पुतलियाँ अंगार होंगी;

प्राण में कैसे बसाऊँ

 कठिन अग्नि समाधि होगी;

फिर कहाँ पालूँ तुझे मैं मृत्यु-मन्दिर हूँ!


हो रहे झर कर दृगों से

 अग्नि-कण भी क्षार शीतल;

पिघलते उर से निकल

 नि:श्वास बनते धूम श्यामल;

एक ज्वाला के बिना मैं राख का घर हूँ!


कौन आया था न जाने

 स्वप्न में मुझको जगाने;

याद में उन अँगुलियों के

 है मुझे पर युग बिताने;

रात के उर में दिवस की चाह का शर हूँ!


शून्य मेरा जन्म था,

अवसान है मुझको सबेरा;

प्राण आकुल से लिए,

संगी मिला केवल अँधेरा;

मिलन का मत नाम ले मैं विरह में चिर हूँ!

४.


कहाँ रहेगी चिड़िया -महादेवी वर्मा 


कहाँ रहेगी चिड़िया?

आंधी आई जोर-शोर से,

डाली टूटी है झकोर से,

उड़ा घोंसला बेचारी का,

किससे अपनी बात कहेगी?

अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी ?

घर में पेड़ कहाँ से लाएँ?

कैसे यह घोंसला बनाएँ?

कैसे फूटे अंडे जोड़ें?

किससे यह सब बात कहेगी,

अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी ? 

५.

कौन तुम मेरे हृदय में -महादेवी वर्मा 


कौन मेरी कसक में नित,

मधुरता भरता अलक्षित?

कौन प्यासे लोचनों में,

घुमड़ घिर झरता अपरिचित?


स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा,

नींद के सूने निलय में!

कौन तुम मेरे हृदय में?


अनुसरण नि:श्वास मेरे,

कर रहे किसका निरन्तर?

चूमने पदचिह्न किसके,

लौटते यह श्वास फिर फिर!


कौन बन्दी कर मुझे अब,

बँध गया अपनी विजय में?

कौन तुम मेरे हृदय में?


एक करूण अभाव में चिर-

तृप्ति का संसार संचित,

एक लघु क्षण दे रहा,

निर्वाण के वरदान शत शत!


पा लिया मैंने किसे इस,

वेदना के मधुर क्रय में?

कौन तुम मेरे हृदय में?


गूँजता उर में न जाने

 दूर के संगीत सा क्या?

आज खो निज को मुझे,

खोया मिला, विपरीत सा क्या?


क्या नहा आई विरह-निशि,

मिलन-मधु-दिन के उदय में?

कौन तुम मेरे हृदय में?


तिमिर-पारावार में,

आलोक-प्रतिमा है अकम्पित,

आज ज्वाला से बरसता,

क्यों मधुर घनसार सुरभित?


सुन रहीं हूँ एक ही,

झंकार जीवन में, प्रलय में?

कौन तुम मेरे हृदय में?


मूक सुख दुख कर रहे,

मेरा नया शृंगार सा क्या?

झूम गर्वित स्वर्ग देता -

नत धरा को प्यार सा क्या?


आज पुलकित सृष्टि क्या,

करने चली अभिसार लय में,

कौन तुम मेरे हृदय में? 

६.

कौन तुम मेरे हृदय में -महादेवी वर्मा 


कौन मेरी कसक में नित,

मधुरता भरता अलक्षित?

कौन प्यासे लोचनों में,

घुमड़ घिर झरता अपरिचित?


स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा,

नींद के सूने निलय में!

कौन तुम मेरे हृदय में?


अनुसरण नि:श्वास मेरे,

कर रहे किसका निरन्तर?

चूमने पदचिह्न किसके,

लौटते यह श्वास फिर फिर!


कौन बन्दी कर मुझे अब,

बँध गया अपनी विजय में?

कौन तुम मेरे हृदय में?


एक करूण अभाव में चिर-

तृप्ति का संसार संचित,

एक लघु क्षण दे रहा,

निर्वाण के वरदान शत शत!


पा लिया मैंने किसे इस,

वेदना के मधुर क्रय में?

कौन तुम मेरे हृदय में?


गूँजता उर में न जाने

 दूर के संगीत सा क्या?

आज खो निज को मुझे,

खोया मिला, विपरीत सा क्या?


क्या नहा आई विरह-निशि,

मिलन-मधु-दिन के उदय में?

कौन तुम मेरे हृदय में?


तिमिर-पारावार में,

आलोक-प्रतिमा है अकम्पित,

आज ज्वाला से बरसता,

क्यों मधुर घनसार सुरभित?


सुन रहीं हूँ एक ही,

झंकार जीवन में, प्रलय में?

कौन तुम मेरे हृदय में?


मूक सुख दुख कर रहे,

मेरा नया शृंगार सा क्या?

झूम गर्वित स्वर्ग देता -

नत धरा को प्यार सा क्या?


आज पुलकित सृष्टि क्या,

करने चली अभिसार लय में,

कौन तुम मेरे हृदय में? 

७.

अलि! मैं कण-कण को जान चली -महादेवी वर्मा 


अलि, मैं कण-कण को जान चली,

सबका क्रन्दन पहचान चली।


 जो दृग में हीरक-जल भरते,

जो चितवन इन्द्रधनुष करते,

टूटे सपनों के मनको से,

जो सुखे अधरों पर झरते।


 जिस मुक्ताहल में मेघ भरे,

जो तारो के तृण में उतरे,

मै नभ के रज के रस-विष के,

आँसू के सब रँग जान चली।


 जिसका मीठा-तीखा दंश न,

अंगों मे भरता सुख-सिहरन,

जो पग में चुभकर, कर देता,

जर्जर मानस, चिर आहत मन।


 जो मृदु फूलो के स्पन्दन से,

जो पैना एकाकीपन से,

मै उपवन निर्जन पथ के हर,

कंटक का मृदु मन जान चली।


 गति का दे चिर वरदान चली,

जो जल में विद्युत-प्यास भरा,

जो आतप मे जल-जल निखरा,

जो झरते फूलो पर देता,

निज चन्दन-सी ममता बिखरा।


 जो आँसू में धुल-धुल उजला,

जो निष्ठुर चरणों का कुचला,

मैं मरु उर्वर में कसक भरे,

अणु-अणु का कम्पन जान चली,

प्रति पग को कर लयवान चली।


 नभ मेरा सपना स्वर्ण रजत,

जग संगी अपना चिर विस्मित,

यह शूल-फूल कर चिर नूतन,

पथ, मेरी साधों से निर्मित।


 इन आँखों के रस से गीली,

रज भी है दिल से गर्वीली,

मै सुख से चंचल दुख-बोझिल,

क्षण-क्षण का जीवन जान चली,

मिटने को कर निर्माण चली! 

८.

क्या जलने की रीत -महादेवी वर्मा 


क्या जलने की रीति, 

शलभ समझा, दीपक जाना।


 घेरे हैं बंदी दीपक को,

ज्वाला की बेला,

दीन शलभ भी दीपशिखा से,

सिर धुन धुन खेला।


 इसको क्षण संताप, 

भोर उसको भी बुझ जाना।


 इसके झुलसे पंख धूम की,

उसके रेख रही,

इसमें वह उन्माद, न उसमें

 ज्वाला शेष रही।


 जग इसको चिर तृप्त कहे, 

या समझे पछताना।


 प्रिय मेरा चिर दीप जिसे छू,

जल उठता जीवन,

दीपक का आलोक, शलभ

 का भी इसमें क्रंदन।


 युग युग जल निष्कंप, 

इसे जलने का वर पाना।


 धूम कहाँ विद्युत लहरों से,

हैं नि:श्वास भरा,

झंझा की कंपन देती,

चिर जागृति का पहरा।


 जाना उज्ज्वल प्रात: 

न यह काली निशि पहचाना। 


९.

क्या पूजन -महादेवी वर्मा 


क्या पूजन,

क्या पूजन क्या अर्चन रे!


उस असीम का सुंदर मंदिर,

मेरा लघुतम जीवन रे,

मेरी श्वासें करती रहतीं,

नित प्रिय का अभिनंदन रे!


पद रज को धोने उमड़े,

आते लोचन में जल कण रे,

अक्षत पुलकित रोम मधुर,

मेरी पीड़ा का चंदन रे!


स्नेह भरा जलता है झिलमिल,

मेरा यह दीपक मन रे,

मेरे दृग के तारक में,

नव उत्पल का उन्मीलन रे!


धूप बने उड़ते जाते हैं, 

प्रतिपल मेरे स्पंदन रे,

प्रिय प्रिय जपते अधर ताल,

देता पलकों का नर्तन रे! 

१०.

जब यह दीप थके -महादेवी वर्मा 


जब यह दीप थके तब आना।


 यह चंचल सपने भोले हैं,

दृग-जल पर पाले मैने, मृदु

 पलकों पर तोले हैं;

दे सौरभ के पंख इन्हें सब नयनों में पहुँचाना!


साधें करुणा - अंक ढली है,

सान्ध्य गगन - सी रंगमयी पर

 पावस की सजला बदली है;

विद्युत के दे चरण इन्हें उर-उर की राह बताना!


यह उड़ते क्षण पुलक - भरे है,

सुधि से सुरभित स्नेह - धुले,

ज्वाला के चुम्बन से निखरे है;

दे तारो के प्राण इन्हीं से सूने श्वास बसाना!


यह स्पन्दन हैं अंक - व्यथा के

 चिर उज्ज्वल अक्षर जीवन की

 बिखरी विस्मृत क्षार - कथा के;

कण का चल इतिहास इन्हीं से लिख - लिख अजर बनाना!


लौ ने वर्ती को जाना है

 वर्ती ने यह स्नेह, स्नेह ने

 रज का अंचल पहचाना है;

चिर बन्धन में बाँध इन्हें धुलने का वर दे जाना! 

११

जाग-जाग सुकेशिनी री! -महादेवी वर्मा


जाग-जाग सुकेशिनी री!


अनिल ने आ मृदुल हौले

 शिथिल वेणी-बन्धन खोले

 पर न तेरे पलक डोले

 बिखरती अलकें, झरे जाते

 सुमन, वरवेशिनी री!


छाँह में अस्तित्व खोये

 अश्रु से सब रंग धोये

 मन्दप्रभ दीपक सँजोये,

पंथ किसका देखती तू अलस

 स्वप्न - निमेषिनी री?


रजत - तारों घटा बुन बुन

 गगन के चिर दाग़ गिन-गिन

 श्रान्त जग के श्वास चुन-चुन

 सो गई क्या नींद की अज्ञात-

पथ निर्देशिनी री?


दिवस की पदचाप चंचल

 श्रान्ति में सुधि-सी मधुर चल

 आ रही है निकट प्रतिपल,

निमिष में होगा अरुण-जग

 ओ विराग-निवेशिनी री?


रूप-रेखा - उलझनों में

 कठिन सीमा - बन्धनों में

 जग बँधा निष्ठुर क्षणों में

 अश्रुमय कोमल कहाँ तू

 आ गई परदेशिनी री? 

१२

जाग तुझको दूर जाना -महादेवी वर्मा 


चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!

जाग तुझको दूर जाना!


अचल हिमगिरि के हॄदय में आज चाहे कम्प हो ले!

या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;

आज पी आलोक को ड़ोले तिमिर की घोर छाया

 जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफ़ान बोले!

पर तुझे है नाश पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!

जाग तुझको दूर जाना!


बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?

पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले?

विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,

क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल दे दल ओस गीले?

तू न अपनी छाँह को अपने लिये कारा बनाना!

जाग तुझको दूर जाना!


वज्र का उर एक छोटे अश्रु कण में धो गलाया,

दे किसे जीवन-सुधा दो घूँट मदिरा माँग लाया!

सो गई आँधी मलय की बात का उपधान ले क्या?

विश्व का अभिशाप क्या अब नींद बनकर पास आया?

अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?

जाग तुझको दूर जाना!


कह न ठंढी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,

आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी;

हार भी तेरी बनेगी माननी जय की पताका,

राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!

है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियां बिछाना!

जाग तुझको दूर जाना! 

१३.

जाने किस जीवन की सुधि ले -महादेवी वर्मा 


जाने किस जीवन की सुधि ले

 लहराती आती मधु-बयार!


रंजित कर ले यह शिथिल चरण, ले नव अशोक का अरुण राग,

मेरे मण्डन को आज मधुर, ला रजनीगन्धा का पराग;

यूथी की मीलित कलियों से

 अलि, दे मेरी कबरी सँवार।


 पाटल के सुरभित रंगों से रँग दे हिम-सा उज्ज्वल दुकूल,

गूँथ दे रेशम में अलि-गुंजन से पूरित झरते बकुल-फूल;

रजनी से अंजन माँग सजनि,

दे मेरे अलसित नयन सार !


तारक-लोचन से सींच सींच नभ करता रज को विरज आज,

बरसाता पथ में हरसिंगार केशर से चर्चित सुमन-लाज;

कंटकित रसालों पर उठता

 है पागल पिक मुझको पुकार!

लहराती आती मधु-बयार !! 

१४.

जीवन विरह का जलजात -महादेवी वर्मा 


विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात!


वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास

 अश्रु चुनता दिवस इसका; अश्रु गिनती रात;

जीवन विरह का जलजात!


आँसुओं का कोष उर, दृग अश्रु की टकसाल,

तरल जल-कण से बने घन-सा क्षणिक मृदुगात;

जीवन विरह का जलजात!


अश्रु से मधुकण लुटाता आ यहाँ मधुमास,

अश्रु ही की हाट बन आती करुण बरसात;

जीवन विरह का जलजात!


काल इसको दे गया पल-आँसुओं का हार

 पूछता इसकी कथा नि:श्वास ही में वात;

जीवन विरह का जलजात!


जो तुम्हारा हो सके लीला-कमल यह आज,

खिल उठे निरुपम तुम्हारी देख स्मित का प्रात;

जीवन विरह का जलजात! 

१५.

जो तुम आ जाते एक बार -महादेवी वर्मा 


जो तुम आ जाते एक बार


 कितनी करूणा कितने संदेश

 पथ में बिछ जाते बन पराग

 गाता प्राणों का तार तार

 अनुराग भरा उन्माद राग


 आँसू लेते वे पथ पखार

 जो तुम आ जाते एक बार


 हंस उठते पल में आर्द्र नयन

 धुल जाता होठों से विषाद

 छा जाता जीवन में बसंत

 लुट जाता चिर संचित विराग


 आँखें देतीं सर्वस्व वार

 जो तुम आ जाते एक बार 

१६.
तम में बनकर दीप -महादेवी वर्मा 

उर तिमिरमय घर तिमिरमय
 चल सजनि दीपक बार ले!

राह में रो रो गये हैं
 रात और विहान तेरे
 काँच से टूटे पड़े यह
 स्वप्न, भूलें, मान तेरे;
फूलप्रिय पथ शूलमय
 पलकें बिछा सुकुमार ले!

तृषित जीवन में घिर घन-
बन; उड़े जो श्वास उर से;
पलक-सीपी में हुए मुक्ता
 सुकोमल और बरसे;
मिट रहे नित धूलि में
 तू गूँथ इनका हार ले !

मिलन वेला में अलस तू
 सो गयी कुछ जाग कर जब,
फिर गया वह, स्वप्न में
 मुस्कान अपनी आँक कर तब।
 आ रही प्रतिध्वनि वही फिर
 नींद का उपहार ले !
चल सजनि दीपक बार ले ! 

१७.
तेरी सुधि बिन -महादेवी वर्मा 

तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।

 कम्पित कम्पित,
पुलकित पुलकित,
परछा‌ईं मेरी से चित्रित,
रहने दो रज का मंजु मुकुर,
इस बिन शृंगार-सदन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।

 सपने औ' स्मित,
जिसमें अंकित,
सुख दुख के डोरों से निर्मित;
अपनेपन की अवगुणठन बिन
 मेरा अपलक आनन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।

 जिनका चुम्बन
 चौंकाता मन,
बेसुधपन में भरता जीवन,
भूलों के शूलों बिन नूतन,
उर का कुसुमित उपवन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।

 दृग-पुलिनों पर
 हिम से मृदुतर,
करूणा की लहरों में बह कर,
जो आ जाते मोती, उन बिन,
नवनिधियोंमय जीवन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।

 जिसका रोदन,
जिसकी किलकन,
मुखरित कर देते सूनापन,
इन मिलन-विरह-शिशु‌ओं के बिन
 विस्तृत जग का आँगन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।

१८.
दीपक अब रजनी जाती रे -महादेवी वर्मा 

दीपक अब रजनी जाती रे

 जिनके पाषाणी शापों के
 तूने जल जल बंध गलाए
 रंगों की मूठें तारों के
 खील वारती आज दिशाएँ
 तेरी खोई साँस विभा बन
 भू से नभ तक लहराती रे
 दीपक अब रजनी जाती रे

 लौ की कोमल दीप्त अनी से
 तम की एक अरूप शिला पर
 तू ने दिन के रूप गढ़े शत
 ज्वाला की रेखा अंकित कर
 अपनी कृति में आज
 अमरता पाने की बेला आती रे
 दीपक अब रजनी जाती रे

 धरती ने हर कण सौंपा
 उच्छवास शून्य विस्तार गगन में
 न्यास रहे आकार धरोहर
 स्पंदन की सौंपी जीवन रे
 अंगारों के तीर्थ स्वर्ण कर
 लौटा दे सबकी थाती रे
 दीपक अब रजनी जाती रे 

१९.
धूप सा तन दीप सी मैं -महादेवी वर्मा 

धूप सा तन दीप सी मैं!

उड़ रहा नित एक सौरभ-धूम-लेखा में बिखर तन,
खो रहा निज को अथक आलोक-सांसों में पिघल मन
 अश्रु से गीला सृजन-पल,
औ' विसर्जन पुलक-उज्ज्वल,
आ रही अविराम मिट मिट
 स्वजन ओर समीप सी मैं!

सघन घन का चल तुरंगम चक्र झंझा के बनाये,
रश्मि विद्युत ले प्रलय-रथ पर भले तुम श्रान्त आये,
पंथ में मृदु स्वेद-कण चुन,
छांह से भर प्राण उन्मन,
तम-जलधि में नेह का मोती
 रचूंगी सीप सी मैं!

धूप-सा तन दीप सी मैं! 

२०.
मैं नीर भरी दुख की बदली! -महादेवी वर्मा 

मैं नीर भरी दुख की बदली!

स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
 क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
 नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली!

मेरा पग-पग संगीत भरा
 श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
 नभ के नव रंग बुनते दुकूल
 छाया में मलय-बयार पली।

 मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
 चिन्ता का भार बनी अविरल
 रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!

पथ को न मलिन करता आना
 पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
 सुख की सिहरन हो अन्त खिली!

विस्तृत नभ का कोई कोना
 मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
 उमड़ी कल थी, मिट आज चली! 

२१.

पूछता क्यों शेष कितनी रात? -महादेवी वर्मा 

पूछता क्यों शेष कितनी रात?

छू नखों की क्रांति चिर संकेत पर जिनके जला तू
 स्निग्ध सुधि जिनकी लिये कज्जल-दिशा में हँस चला तू
 परिधि बन घेरे तुझे, वे उँगलियाँ अवदात!

झर गये ख्रद्योत सारे,
तिमिर-वात्याचक्र में सब पिस गये अनमोल तारे;
बुझ गई पवि के हृदय में काँपकर विद्युत-शिखा रे!
साथ तेरा चाहती एकाकिनी बरसात!

व्यंग्यमय है क्षितिज-घेरा
 प्रश्नमय हर क्षण निठुर पूछता सा परिचय बसेरा;
आज उत्तर हो सभी का ज्वालवाही श्वास तेरा!
छीजता है इधर तू, उस ओर बढता प्रात!

प्रणय लौ की आरती ले
 धूम लेखा स्वर्ण-अक्षत नील-कुमकुम वारती ले
 मूक प्राणों में व्यथा की स्नेह-उज्ज्वल भारती ले
 मिल, अरे बढ़ रहे यदि प्रलय झंझावात।

 कौन भय की बात।
 पूछता क्यों कितनी रात? 

२२.
प्रिय चिरन्तन है -महादेवी वर्मा 

प्रिय चिरंतन है सजनि,
क्षण-क्षण नवीन सुहासिनी मै!

श्वास में मुझको छिपाकर वह असीम विशाल चिर घन
 शून्य में जब छा गया उसकी सजीली साध-सा बन,
छिप कहाँ उसमें सकी
 बुझ-बुझ जली चल दामिनी मैं।

 छाँह को उसकी सजनि, नव आवरण अपना बनाकर
 धूलि में निज अश्रु बोने में पहर सूने बिताकर,
प्रात में हँस छिप गई
 ले छलकते दृग-यामिनी मै!

मिलन-मन्दिर में उठा दूँ जो सुमुख से सजल गुण्ठन,
मैं मिटूँ प्रिय में, मिटा ज्यों तप्त सिकता में सलिल कण,
सजनि! मधुर निजत्व दे
 कैसे मिलूँ अभिमानिनी मैं!

दीप सी युग-युग जलूँ पर वह सुभग इतना बता दे
 फूँक से उसकी बुझूँ तब क्षार ही मेरा पता दे!
वह रहे आराध्य चिन्मय
 मृण्मयी अनुरागिनी मैं!

सजल सीमित पुतलियाँ, पर चित्र अमिट असीम का वह
 चाह एक अनन्त बसती प्राण किन्तु असीम-सा वह!
रजकणों में खेलती किस
 विरज विधु की चाँदनी मैं? 

२३.
बताता जा रे अभिमानी! -महादेवी वर्मा 

बताता जा रे अभिमानी!

कण-कण उर्वर करते लोचन
 स्पन्दन भर देता सूनापन
 जग का धन मेरा दुख निर्धन
 तेरे वैभव की भिक्षुक या
 कहलाऊँ रानी!
बताता जा रे अभिमानी!

दीपक-सा जलता अन्तस्तल
 संचित कर आँसू के बादल
 लिपटी है इससे प्रलयानिल,
क्या यह दीप जलेगा तुझसे
 भर हिम का पानी?
बताता जा रे अभिमानी!

चाहा था तुझमें मिटना भर
 दे डाला बनना मिट-मिटकर
 यह अभिशाप दिया है या वर;
पहली मिलन कथा हूँ या मैं
 चिर-विरह कहानी!
बताता जा रे अभिमानी! 

२४.
बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ -महादेवी वर्मा 

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ!
नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में,
प्रलय में मेरा पता पदचिन्‍ह जीवन में,
शाप हूँ जो बन गया वरदान बंधन में
 कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ!
बीन भी हूँ मैं...

नयन में जिसके जलद वह तृषित चातक हूँ,
शलभ जिसके प्राण में वह निठुर दीपक हूँ,
फूल को उर में छिपाए विकल बुलबुल हूँ,
एक होकर दूर तन से छाँह वह चल हूँ,
दूर तुमसे हूँ अखंड सुहागिनी भी हूँ!
बीन भी हूँ मैं...

आग हूँ जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के,
शून्य हूँ जिसके बिछे हैं पाँवड़े पलके,
पुलक हूँ जो पला है कठिन प्रस्तर में,
हूँ वही प्रतिबिम्ब जो आधार के उर में,
नील घन भी हूँ सुनहली दामिनी भी हूँ!
बीन भी हूँ मैं...

नाश भी हूँ मैं अनंत विकास का क्रम भी
 त्याग का दिन भी चरम आसिक्त का तम भी,
तार भी आघात भी झंकार की गति भी,
पात्र भी, मधु भी, मधुप भी, मधुर विस्मृति भी,
अधर भी हूँ और स्‍िमत की चांदनी भी हूँ 

२६.
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल! -महादेवी वर्मा 

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
 प्रियतम का पथ आलोकित कर!

सौरभ फैला विपुल धूप बन
 मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु-तन!
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु गल-गल
 पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!

तारे शीतल कोमल नूतन
 माँग रहे तुझसे ज्वाला कण;
विश्व-शलभ सिर धुन कहता मैं
 हाय, न जल पाया तुझमें मिल!
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ में देख असंख्यक
 स्नेह-हीन नित कितने दीपक
 जलमय सागर का उर जलता;
विद्युत ले घिरता है बादल!
विहँस-विहँस मेरे दीपक जल!

द्रुम के अंग हरित कोमलतम
 ज्वाला को करते हृदयंगम
 वसुधा के जड़ अन्तर में भी
 बन्दी है तापों की हलचल;
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल!

मेरे निस्वासों से द्रुततर,
सुभग न तू बुझने का भय कर।
 मैं अंचल की ओट किये हूँ!
अपनी मृदु पलकों से चंचल
 सहज-सहज मेरे दीपक जल!

सीमा ही लघुता का बन्धन
 है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन
 मैं दृग के अक्षय कोषों से-
तुझमें भरती हूँ आँसू-जल!
सहज-सहज मेरे दीपक जल!

तुम असीम तेरा प्रकाश चिर
 खेलेंगे नव खेल निरन्तर,
तम के अणु-अणु में विद्युत-सा
 अमिट चित्र अंकित करता चल,
सरल-सरल मेरे दीपक जल!

तू जल-जल जितना होता क्षय;
यह समीप आता छलनामय;
मधुर मिलन में मिट जाना तू
 उसकी उज्ज्वल स्मित में घुल खिल!
मदिर-मदिर मेरे दीपक जल!
प्रियतम का पथ आलोकित कर! 

२७.
मिटने का अधिकार -महादेवी वर्मा 

वे मुस्काते फूल, नहीं
 जिनको आता है मुरझाना,
वे तारों के दीप, नहीं
 जिनको भाता है बुझ जाना

 वे सूने से नयन, नहीं
 जिनमें बनते आँसू मोती,
वह प्राणों की सेज, नही
 जिसमें बेसुध पीड़ा, सोती

 वे नीलम के मेघ, नहीं
 जिनको है घुल जाने की चाह
 वह अनन्त ऋतुराज, नहीं
 जिसने देखी जाने की राह

 ऐसा तेरा लोक, वेदना
 नहीं,नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं, नहीं
 जिसने जाना मिटने का स्वाद!

क्या अमरों का लोक मिलेगा
 तेरी करुणा का उपहार
 रहने दो हे देव! अरे
 यह मेरे मिटने का अधिकार! 

२८.
मैं बनी मधुमास आली! -महादेवी वर्मा 

मैं बनी मधुमास आली!

आज मधुर विषाद की घिर करुण आई यामिनी,
बरस सुधि के इन्दु से छिटकी पुलक की चाँदनी
 उमड़ आई री, दृगों में
 सजनि, कालिन्दी निराली!

रजत स्वप्नों में उदित अपलक विरल तारावली,
जाग सुक-पिक ने अचानक मदिर पंचम तान लीं;
बह चली निश्वास की मृदु
 वात मलय-निकुंज-वाली!

सजल रोमों में बिछे है पाँवड़े मधुस्नात से,
आज जीवन के निमिष भी दूत है अज्ञात से;
क्या न अब प्रिय की बजेगी
 मुरलिका मधुराग वाली? 

२९.
व्यथा की रात -महादेवी वर्मा 

यह व्यथा की रात का कैसा सवेरा है?

ज्योति-शर से पूर्व का
 रीता अभी तूणीर भी है,
कुहर-पंखों से क्षितिज
 रूँधे विभा का तीर भी है,
क्यों लिया फिर श्रांत तारों ने बसेरा है ?

छंद-रचना-सी गगन की
 रंगमय उमड़े नहीं घन,
विहग-सरगम में न सुन
 पड़ता दिवस के यान का स्वन,
पंक-सा रथचक्र से लिपटा अँधेरा है ।

 रोकती पथ में पगों को
 साँस की जंजीर दुहरी,
जागरण के द्वार पर
 सपने बने निस्पृह प्रहरी,
नयन पर सूने क्षणों का अचल घेरा है ।

 दीप को अब दूँ विदा, या
 आज इसमें स्नेह ढालूँ ?
दूँ बुझा, या ओट में रख
 दग्ध बाती को सँभालूँ ?
किरण-पथ पर क्यों अकेला दीप मेरा है ?

यह व्यथा की रात का कैसा सबेरा है? 

३०.
यह मंदिर का दीप -महादेवी वर्मा 

यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो
 रजत शंख घड़ियाल स्वर्ण वंशी-वीणा-स्वर,
गये आरती बेला को शत-शत लय से भर,
जब था कल कंठो का मेला,
विहंसे उपल तिमिर था खेला,
अब मन्दिर में इष्ट अकेला,
इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!

चरणों से चिह्नित अलिन्द की भूमि सुनहली,
प्रणत शिरों के अंक लिये चन्दन की दहली,
झर सुमन बिखरे अक्षत सित,
धूप-अर्घ्य नैवेद्य अपरिमित
 तम में सब होंगे अन्तर्हित,
सबकी अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो!

पल के मनके फेर पुजारी विश्व सो गया,
प्रतिध्वनि का इतिहास प्रस्तरों बीच खो गया,
सांसों की समाधि सा जीवन,
मसि-सागर का पंथ गया बन
 रुका मुखर कण-कण स्पंदन,
इस ज्वाला में प्राण-रूप फिर से ढलने दो!

झंझा है दिग्भ्रान्त रात की मूर्छा गहरी
 आज पुजारी बने, ज्योति का यह लघु प्रहरी,
जब तक लौटे दिन की हलचल,
तब तक यह जागेगा प्रतिपल,
रेखाओं में भर आभा-जल
 दूत सांझ का इसे प्रभाती तक चलने दो! 

३१.
वे मुस्कराते फूल नहीं -महादेवी वर्मा 

वे मुस्कराते फूल नहीं
 जिनको आता है मुरझाना
 वे तारों के दीप नहीं
 जिनको भाता है बुझ जाना

 वे नीलम के मेघ नहीं
 जिनको है घुल जाने की चाह
 वह अनंत ऋतुराज नहीं
 जिसने देखी जाने की राह

 वे सूने से नयन नहीं
 जिनमें बनते आँसू मोती
 यह प्राणों की सेज नहीं
 जिसमें बेसुध पीड़ा सोती

 ऐसा तेरा लोक वेदना
 नहीं नहीं जिसमें अवसाद
 जलना जाना नहीं नहीं
 जिसने जाना मिटने का स्वाद

 क्या अमारों का लोक मिलेगा
 तेरी करुणा का उपहार
 रहने दो हे देव अरे
 यह मेरा मिटने का अधिकार 

३२.
हे चिर महान्! -महादेवी वर्मा 

हे चिर महान्!
महादेवी वर्मा
 हे चिर महान्!

यह स्वर्ण रश्मि छू श्वेत भाल,
बरसा जाती रंगीन हास;
सेली बनता है इन्द्रधनुष
 परिमल मल मल जाता बतास!
पर रागहीन तू हिमनिधान!

नभ में गर्वित झुकता न शीश
 पर अंक लिये है दीन क्षार;
मन गल जाता नत विश्व देख,
तन सह लेता है कुलिश-भार!
कितने मृदु, कितने कठिन प्राण!

टूटी है कब तेरी समाधि,
झंझा लौटे शत हार-हार;
बह चला दृगों से किन्तु नीर
 सुनकर जलते कण की पुकार!
सुख से विरक्त दुख में समान!

मेरे जीवन का आज मूक
 तेरी छाया से हो मिलाप,
तन तेरी साधकता छू ले,
मन ले करुणा की थाह नाप!
उर में पावस दृग में विहान! 


युवा कवि गोलेन्द्र पटेल

साहित्यिक परिचय :-

महादेवी वर्मा (1907-1987)
(26 मार्च, 1907, फ़र्रुख़ाबाद —11 सितम्बर, 1987, प्रयाग(
-आधुनिक साहित्य की मीरा
@रेखाचित्र
अतीत के चलचित्र (1941)
स्मृति की रेखाएँ (1943)
@संस्मरण
पथ के साथी (1956, अपने अग्रज समकालीन साहित्यकारों पर)
मेरी परिवार (1972, पशु-पक्षियों पर)
संस्मरण (1983)
@ललित निबंध
क्षणदा (1956)
चुने हुए भाषणों का संग्रह
संभाषण (1974)
@कहानियाँ
गिल्लू

@निबन्ध

विवेचनात्मक गद्य (1942)

श्रृंखला की कड़ियाँ (1942, भारतीय नारी की विषम परिस्थितियों पर)

साहित्यकार की आस्था और अन्य निबन्ध (1962, सं. गंगा प्रसाद पांडेय, महादेवी का काव्य-चिन्तन)

संकल्पिता (1969)

भारतीय संस्कृति के स्वर (1984)।

चिन्तन के क्षण

युद्ध और नारी

नारीत्व का अभिशाप

सन्धिनी

आधुनिक नारी

स्त्री के अर्थ स्वातंत्र्य का प्रश्न

सामाज और व्यक्ति

संस्कृति का प्रश्न

हमारा देश और राष्ट्रभाषा

@महत्वपूर्ण पंक्तियां

सौन्दर्य परिचय -स्निग्ध खंड है और सत्य विस्मय भरा अखण्ड।

काव्य या कला का सत्य जीवन की परिधि में सौन्दर्य के माध्यम द्वारा व्यक्त अखण्ड सत्य है।

कवि का दर्शन दीवन के प्रति उसकी आस्था का दूसरा नाम है।

आस्था मानव के युगान्तर से प्राप्त दार्शनिक लक्ष्य पर केन्द्रित रागात्मक दृशटि है।

छायावाद तो करुणा की छाया में सौन्दर्य के माध्यम से व्यक्त होने वाला भावात्मक सर्ववाद ही रहा है और उसी रूप में उसकी उपयागिता है।

*महादेवी ने स्वयं लिखा है, ”मां से पूजा और आरती के समय सुने सूर, तुलसी तथा मीरा आदि के गीत मुझे गीत रचना की प्रेरणा देते थे। मां से सुनी एक करुण कथा को मैंने प्रायः सौ छंदों में लिपिबद्ध किया था। पडौस की एक विधवा वधू के जीवन से प्रभावित होकर मैंने विधवा, अबला शीर्षकों से शब्द चित्र् लिखे थे जो उस समय की पत्र्किाओं में प्रकाशित भी हुए थे। व्यक्तिगत दुःख समष्टिगत गंभीर वेदना का रूप ग्रहण करने लगा। करुणा बाहुल होने के कारण बौद्ध साहित्य भी मुझे प्रिय रहा है।“

‘‘हिन्दी भाषा के साथ हमारी अस्मिता जुडी हुई है। हमारे देश की संस्कृति और हमारी राष्ट्रीय एकता की हिन्दी भाषा संवाहिका है।’’


@कविता-संग्रह

नीहार (1930)

रश्मि (1932)

नीरजा (1934)

सांध्यगीत (1935)

यामा (1940)

दीपशिखा (1942)

सप्तपर्णा (1960, अनूदित)

संधिनी (1965)

नीलाम्बरा (1983)

आत्मिका (1983)

दीपगीत (1983)

प्रथम आयाम (1984)

अग्निरेखा (1990)

पागल है क्या ? (1971, प्रकाशित 2005)

परिक्रमा

गीतपर्व

पुनर्मुद्रित संकलन

(निम्नलिखित संकलनों में महादेवी वर्मा की नयी कवितायें नहीं हैं, बल्कि पुराने संकलनों को ही नयी भूमिकाओं के साथ पुनर्मुद्रित किया गया है।)

यामा (1940)

हिमालय (1960)

दीपगीत (1983)

नीलाम्बरा (1983)

आत्मिका (1983)

गीतपर्व

परिक्रमा 

संधिनी

स्मारिका

पागल है क्या ? (1971, प्रकाशित 2005)

*महादेवी वर्मा की बाल कविताओं के दो संकलन छपे हैं—

ठाकुरजी भोले हैं

आज खरीदेंगे हम ज्वाला

@बंगाल के अकाल के समय 1943 में इन्होंने एक काव्य संकलन प्रकाशित किया था और बंगाल से सम्बंधित “बंग भू शत वंदना” नामक कविता भी लिखी थी। इसी प्रकार चीन के आक्रमण के प्रतिवाद में हिमालय (1960) नामक काव्य संग्रह का संपादन किया था।


*कुछ प्रतिनिधि कविताएँ

अलि! मैं कण-कण को जान चली 

अलि अब सपने की बात 

अश्रु यह पानी नहीं है

कहां रहेगी चिड़िया 

किसी का दीप निष्ठुर हूँ 

कौन तुम मेरे हृदय में

क्या जलने की रीत 

क्या पूजन क्या अर्चन रे!

क्यों इन तारों को उलझाते? 

जब यह दीप थके 

जाग-जाग सुकेशिनी री! 

जाग तुझको दूर जाना

जाने किस जीवन की सुधि ले

जीवन विरह का जलजात

जो तुम आ जाते एक बार 

जो मुखरित कर जाती थीं

तम में बनकर दीप

तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या!

तेरी सुधि बिन

दिया क्यों जीवन का वरदान

दीपक अब रजनी जाती रे 

दीप मेरे जल अकम्पित

धीरे-धीरे उतर क्षितिज से 

धूप सा तन दीप सी मैं

नीर भरी दुख की बदली

पूछता क्यों शेष कितनी रात? 

प्रिय चिरन्तन है 

बताता जा रे अभिमानी! 

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ 

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!

मिटने का अधिकार 

मेरा सजल मुख देख लेते! 

मैं अनंत पथ में लिखती जो 

मैं नीर भरी दुख की बदली! 

मैं प्रिय पहचानी नहीं 

मैं बनी मधुमास आली! 

यह मंदिर का दीप 

रजतरश्मियों की छाया में धूमिल घन सा वह आता

रूपसि तेरा घन-केश-पाश 

लाए कौन संदेश नए घन

वे मधुदिन जिनकी स्मृतियों की

वे मुस्कराते फूल नहीं 

व्यथा की रात

शून्य से टकरा कर सुकुमार

सजनि कौन तम में परिचित सा 

सजनि दीपक बार ले 

सब आँखों के आँसू उजले 

स्वप्न से किसने जगाया? 

हे चिर महान्!

@

पुरस्कार और सम्मान:-
1934 ‘ नीरजा’ पर ‘सेक्सरिया पुरस्कार
1942 ‘ द्विवेदी पदक’ (‘स्मृति की रेखाएँ’ के लिये)
1943 ‘मंगला प्रसाद पुरस्कार’ (‘स्मृति की रेखाएँ’ के लिये)
1943 ‘ भारत भारती पुरस्कार’, (‘स्मृति की रेखाओं’ के लिये)
1944 ‘यामा’ कविता संग्रह के लिए
1952 उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत
1956 ‘पद्म भूषण’
1979 साहित्य अकादमी फैलोशिप (पहली महिला)
1982 काव्य संग्रह ‘यामा’ (1940) के लिये ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’
1988 ‘पद्म विभूषण’ (मरणोपरांत)
#विशेष:-
-सन् 1955 में महादेवी जी ने इलाहाबाद में 'साहित्यकार संसद' की स्थापना की और पं. इला चंद्र जोशी के सहयोग से 'साहित्यकार' का संपादन सँभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। वे अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका ‘चाँद’ मासिक की भी संपादक रहीं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने प्रयाग में ‘ रंगवाणी नाट्य संस्था’ की भी स्थापना की।
-इन्हे ' वेदना की कवयित्री' एवं 'आधुनिक युग की मीरां' नाम से भी पुकारा जाता है|
-ये प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रचार्य रही हैं|
- रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा- " छायावाद कहे जाने वाले कवियों मे महादेवी जी ही रहस्यवाद के भीतर रही है|"
इनको छायावाद साहित्य की 'शक्ति (दुर्गा)' कहा जाता है|
नोट:- संकलन का नाम हटा कर कॉपी पेस्ट न करे| संकलन को शेयर करे|
- कोई त्रुटि हो तो जरूर बताएं|
corojivi@gmail.com

 



संपादक :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल

शिक्षा : बी.ए. द्वितीय वर्ष में {बीएचयू}

संपर्क सूत्र : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com




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