गोड़िन //
कुओं की भरकुंडी प्यास रही हैं
चोर खोल ले जा रहे हैं चपाकल
नलकूपों को नगद चाहिए पैसे ;
गोड़िन का गोड़ भारी है
गला सूख रहा है!
निःशुल्क है नदी का पानी
भरसाँय झोंक रही है भूख
आग पी रही हैं आँखें
कउरनी कउर रही है कविता ;
जो दाने ममत्व पाना चाहते हैं
उछल उछल कर जा रहे हैं आँचल में
और जो उचक उचक कर देख रहे हैं माथे पर पसीना
वे गिर रहे हैं कर्ज़ की कड़ाही में
मेरा मक्का मटर भून गया
चना चावल बाकी है!
कोयरी टोला में कोई टेघर गया है
अर्थी का पाथेय -
लाई भून रही हैं
जिसे छिड़कने हैं अंतिम सफ़र में
भूख के विरुद्ध!
सभी दाना भुनाने वाले जा रहे हैं कोयरीटोला
आदमी जवान है
डेढ़ बरस और तीन बरस की बच्चियाँ देह से लिपट कर रो रही हैं
चीख रही हैं चिल्ला रही हैं कह रही हैं उठा पापा जागा पापा.....
उसकी औरत को एक वर्ष पहले ही डँस लिया था साँप
हे देवी-देवताओं!
देहात की देहांत दृश्य देख दिल दहल गया
आह विधवा व्यथा!
गोड़ भी छोड़ गया है गर्भ में प्यार की निशानी
गोड़िन के नयन से निकली है गंगा
प्यासी पथराई उम्मीदों के विरुद्ध!
(©गोलेन्द्र पटेल
रचना : १९-०८-२०२)
corojivi@gmail.com
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