Sunday, 7 February 2021

हमारा समय हमारी कविता By स्वप्निल श्रीवास्तव || जनपक्षधर और लोक जीवन-राग की कविताएं : कवि स्वाप्निल श्रीवास्तव By डॉ.अवनीश मिश्र | मुक्तिपथ

हमारा समय हमारी कविता By स्वप्निल श्रीवास्तव || जनपक्षधर और लोक जीवन-राग की कविताएं : कवि  स्वाप्निल श्रीवास्तव By डॉ.अवनीश मिश्र



https://youtu.be/PD7WfDD2BOo

 वक्ता-परिचय

कवि : स्वप्निल श्रीवास्तव


जन्म : 5 अक्तूबर 1954, मेहनौना, सिद्धार्थनगर, उत्तर प्रदेश


भाषा : हिंदी


विधाएँ : कविता, कहानी, यात्रा संस्मरण


मुख्य कृतियाँ


कविता संग्रह : ईश्‍वर एक लाठी है, ताख पर दियासलाई, मुझे दूसरी पृथ्‍वी चाहिए, जिंदगी का मुकदमा, जब तक है जीवन


 


सम्मान


भारतभूषण अग्रवाल पुरस्‍कार,  फिराक सम्‍मान 


संपर्क


510, अवधपूरी कालोनी, अमानीगंज, फैजाबाद – 224001



*नोट 💐👌👏

जनपक्षधर और लोक जीवन-राग की कविताएं : कवि  स्वाप्निल श्रीवास्तव


('हमारा समय हमारी कविता' शृंखला में इस बार के आमन्त्रित कवि हैं श्री स्वप्निल श्रीवास्तव। वे 31 जनवरी को शाम 4 बजे से 'मुक्तिपथ' पर अपनी कविताओं का पाठ और बातचीत करेंगे। इस अवसर पर यह आलेख युवा अध्येता डॉ.अवनीश मिश्र ने लिखा है। वे कविता की वस्तुनिष्ठ आलोचना करते हैं। डॉ. मिश्र इन दिनों केंद्रीय विद्यालय में अध्यापन करते हैं। इस अवसर पर लिखे गए इस लेख के लिए हम उनके प्रति आभारी हैं।)


समकालीन हिन्दी कविता में स्वाप्निल श्रीवास्तव नवें दशक के एक  सशक्त हस्ताक्षर कवि हैं। जिनकी कविताएं अपने समकाल के महत्त्वपूर्ण सवालों से व्यापक सरोकार रखतीं हैं। वे बराबर एक वैचारिक हस्तक्षेप व प्रतिरोध करती दिखाई देती हैं। उसके साथ ही लोक जीवन व जगत से भी कवि का गहरा संबंध परिलक्षित होता है।कवि स्वाप्निल श्रीवास्तव के अब तक कविता के पाँच संग्रह : "ईश्‍वर एक लाठी है, ताख पर दियासलाई, मुझे दूसरी पृथ्‍वी चाहिए, जिंदगी का मुकदमा, जब तक है जीवन" प्रकाशित हो चुके हैं। 

स्वाप्निल श्रीवास्तव का काव्य संसार विविधताओं और बहुरंगी छटा से भरा है। उनकी कविताओं की अंतर्वस्तु में आया लोक, जीवन से नाभिनालबद्ध है, वे वहीं से अपनी रचनाओं के लिए उपजीव्य ग्रहण करते हैं। उसकी ग्राह्यता अपने परिवेश से समाविष्ट होकर उद्बुद्ध होती है। स्वाप्निल का समय लोक से शिष्ट में संक्रमण का समय है। आधुनिकता से उत्तर आधुनिकता का और पत्राचार से यातायात व संचार का समय है। सत्ता और साम्प्रदायिक शक्तियों के उभार व गठबंधन का समय है। जनांदोलनों के उभार का समय है। उस समय एक कवि छोटे से शहर में जिन्दगी के दोराहे पर खड़े आम आदमी की पीड़ा, अपने समय में हो रहे षडयंत्र के प्रति सचेत दृष्टिकोण, किसान जीवन, सुमधुर आत्मीय लोक, जीवन राग और प्रेम के उल्लासपूर्ण भावों से भरा संवेनात्मक सृजन करता है। उनकी कविता में बहुत सी खिड़कियां हैं, किसी भी खिड़की से प्रवेश करने पर आपको निराशा हाथ नहीं लगेगी।  बुध्द की धरती पर पैदा हुए कवि स्वाप्निल की कविताओं में लोक और जीवन का एक देशज राग बजता है। वे जीवन को आस्तिक दृष्टिकोण से देखने वाले आस्थावादी कवि हैं। उनके यहाँ बुध्द और कबीर जैसे एकमेव हो गये हों।किसी भी परिवार की इकाई पति-पत्नी और माता पिता किस तरह आपसी समझदारी से एक मकान को घर में रुपान्तरित कर देते हैं। जीवन के ताने बाने को वे अपने श्रम, त्याग व समर्पण से सिरजते हैं। अस्तु -ताना बाना~


"माँ एक करघा थी

जिस पर हम बच्चों को

बुना गया था

पिता कबीर के पद थे

जिसे अन्तरँग क्षणों में

गाया करती थी माँ

उसके गाने से खिलते थे

कपास के फूल

पवित्र होते थे सफ़ेद रँग

माँ ताना थी तो पिता थे बाना

दोनों बुनने का काम करते थे।"


स्वाप्निल श्रीवास्तव के कवि व्यक्तित्व का निर्माण और वैचारिक भावभूमि की तलाश सन् 75 के भारतीय आपातकाल के आस पास से शुरु होती है। यही वह समय है जब इस देश के भीतर की सामाजिक व राजनीतिक स्थितियों में तेजी से परिवर्तन घटित हो रहा था। भारत की आम जनता में आजादी के मोहभंग से उपजी हुई निराशा ने आपातकाल के बाद उसे तोड़कर रख दिया था। राजनीतिक रुप से यह अलोकतांत्रिक और अराजक किस्म का समय था। इस दौर में आम आदमी की व्यापक अनदेखी हुई। समाज से बहुत सारे नैतिक मान मूल्यों तिरोहित हो रहे थे जिससे मनुष्य और मनुष्य के बीच में भेद कर पाना मुश्किल था। सांमती शक्तियां अपने ताकतवर रुप में उपस्थित हैं और फिलहाल उनके खिलाफ हवा का रुख भी नहीं था। यह ऐसा समय था कि गहन नैराश्य के स्याह में डूबी हुई आम जनता में भय ,आशंका व अविश्वास घर कर गया था। यहाँ कवि कविता के कथ्य से अपने पुरखे कवि मुक्तिबोध से जुड़ता हुआ दिखाई देता है। मसलन-'यह एक ऐसा समय था'~


"अजीब सा समय था

कोई किसी से बोलता नहीं था

न इशारे से बात करता था

उन्हें डर था कि उन्हें देखा जा रहा है

जगह–जगह जासूसी कैमरे छिपा

दिये गये थे

हवाओं की तरह आसपास

मुखविर थे

जो बोलने के लिये विख्यात थे

उन्होंने मुखौटे पहन लिये थे

लिखने वालों ने कलमदान को अपनी

कलम सौंप दी थी

स्याही बनाने वालों ने किसी दूसरे पेशे

का चुनाव कर लिया था

आदेश न मानने वालों को एकांतवास

में भेज दिया गया था

यह एक ऐसा समय था जब हमें

अपने सांसो से भय लगने

लगा था ।" 


या - हमलावर ~


"जिन हमलावरों ने उसकी हत्या की थी

वे उसकी अन्तिम यात्रा में शामिल थे

हत्यारों को जानती थी पुलिस

वे राजनेताओं के क़रीब थे

नगर के लोग उनसे परिचित थे

उनके दुस्साहस के सामने छोटा था

लोगों का साहस

जो हत्यारों के ख़िलाफ़ बोलता था

वह मारा जाता था।"


आपातकाल से लेकर उत्तर आपातकाल के दौर तक का समय रचनात्मकता व लेखन के लिए सबसे कठिन समय था। कवि इस तरह के कुचक्रों और शोषणकारी षडयंत्रों को भलीभाँति पहचानता है। कवि स्वाप्निल अपने नाम के बरक्स यथार्थ के हर रेशे को उघाड़कर उसके भीतर से कालिमा को पहचानने वाले कवि हैं। इस स्याह समय में हत्या, आत्महत्या और मौत में फ़र्क करना बहुत दुश्कर है। रात के अंधेरे में किस तरह हत्याकांड को एक स्वाभाविक मृत्यु में तब्दील कर दिया जा रहा है। लेकिन हत्या सिर्फ हत्या को बढ़ावा देती है और हत्यारे की नियति भी उसे हत्या की तरफ ले जाती है। यह हमारे समय और समाज की सबसे बड़ी विडंबना है कि हत्यारे खुलेआम घूम रहें हैं और हत्या और गायब हो जाने वाले लोगों पर किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। इस तरह का हत्यारा मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय और राजेश जोशी की भी कविताओं में आता है। बहरहाल, समय भले ही और कठिन हो गया हो परन्तु हत्या के तरीके और ज्यादा आसान हो चले हैं।  यथा -फ़र्क कविता में देंखें।


"बहुत-सी मौतें हत्या की तरह होती है

उसे हम अन्त तक नही जान पाते

आदमी की मृत्यु स्वाभाविक दिखती है

यह पता नही चलता उसे कितने सलीके से

मारा गया है

उसकी मृत्यु सिर्फ़ मृत्यु दिखाई देती है ।

कुछ दिनो बाद लोग हत्या और मृत्यु का फ़र्क

भूल जाते है ।

इतिहास में ऐसी बहुत सी मौतें दर्ज हैं

जो वास्तव में हत्याएँ हैं ।

जो हत्याएँ करते हैं उन्हें भी मार दिया

जाता है ।"


  या  'गायब होने वाले आदमी के बारे में।'


"वह बाज़ार को बहुत ध्यान से देख रहा था

जैसे अपने घोंसले के लिए कोई जगह

खोज रहा हो

वह चिड़िया नहीं आदमी था, शायद वह

यहाँ बसना चाहता हो

विडम्बना देखिए, वह बसने के पहले ही

उजड़ गया।"


स्वाप्निल श्रीवास्तव वस्तुतः किसान जीवन चेतना, किसानी सभ्यता और लोक जीवन के अप्रतिम कवि हैं, जहाँ पर उनकी कविता की जड़ें गहरे पैबस्त हैं। उनकी कविता में मां की बोरसी की आग भी है और कछार के किनारे बगुले भी हैं, आम की गुठली भी है और परिंदे व बारिश भी है, अपने पुरखे किसानों के पगचिह्न भी है तो लाठी भी है; जो उनकी कविता के वृहत्तर आयाम को द्योतित करती है। कविता के भीतर इस विस्तृत फ़लक का प्रकटीकरण उस संस्कृति में गहराई तक धँसें बिना संभव नहीं है। उनकी कविता का भूगोल ही असल रुप से कवि का वास्तविक संसार है। मसलन गेंहूँ कविता~


"गेंहूं  के  पौधे  .घुघरूं   की  तरह 

बजते  हैं तो  मुझे  याद  आती  है

खलिहान  में  चलती  हुई  माँ


मां  कहती  थी  -गेंहूं  सबसे  स्वादिष्ट

अनाज  है 

शंख  की  तरह  सुघड़  दाने  मां  को 

पसंद  थे


रोटी  का  स्वाद खेत  से  शुरू होता  है

जब  वह  नही  पहुंच  पाता  है 

भूखे  आदमी  के  मुंह  तक  

तब  भूखा  आदमी  भूकम्प  की  तरह

पूरे  ग्लोब  पर  उठता  है 

और  सारी  चीजें  उसके  इशारे  पर 

नाचने  लगती  है।"


स्वाप्निल जी की कविताओं में बहुआयामी तेवर है। उनकी कविताएं जितनी अपनी संवेदना और शिल्प में सरल व सहज दिखाई देती हैं, अपनी अर्थवत्ता में वे उतनी ही बेधक हैं। भावबोध और वैचारिकी में उनकी कविताओं का पक्ष और मानी स्पष्ट है। पश्चिमी साहित्यकारों की तरह उनके यहाँ भी आत्मीय प्रेम और जीवन संघर्ष का रुपक साथ साथ चलते दिखाई देतें हैं। उनकी कविताएं प्रेम, स्नेह और आकांक्षा से उत्पन्न होती है और दुःख, जिज्ञासा और संघर्ष में और भी खिलती व निखरती चली जातीं हैं। हर तरह के राग-द्वेष, कुंठा और तृष्णा जैसे भाव तिरोहित हो जाते हैं, इसी से निखरता है जीवन और इसी जीवन की अभिव्यक्ति है कविता। जनपक्षधरता और गहन भाव संवेदना में उनकी कविताएं अपने समकालीन परम्परा के दो कवियों राजेश जोशी और अरुण कमल से मिलती हैं। वसंत का उल्लसित भाव कवि के मिज़ाज का परिचायक है, जिसे उसके स्वभाव से अलग नहीं किया जा सकता। उदास मौसमों के खिलाफ वह और निडर व उत्साहित हो उठता है। उनके यहाँ वसंत क्रांति का प्रतीक है।

बकौल - स्वाप्निल श्रीवास्तव - वसंत आएगा~


"वसन्त आएगा इस वीरान जंगल में जहाँ

वनस्पतियों को सिर उठाने के ज़ुर्म में

पूरा जंगल आग को सौंप दिया गया था

वसन्त आएगा दबे पाँव हमारे-तुम्हारे बीच

सम्वाद कायम करेगा उदास-उदास मौसम में

बिजली की तरह हँसी फेंक कर वसन्त

सिखाएगा हमें अधिकार से जीना।"


स्वाप्निल अपनी कविता में कल्पना के उड़ान बनिस्बत यर्थाथ की ठोस भूमि पर विचरण करते हैं जिससे कवि का अपनी जड़ों से उसका जैविक व भौतिक संबंध बना रहे।स्वाप्निल श्रीवास्तव की कविताओं में भूमंडलीकरण और बाजारवाद के बढ़ते प्रसार व बिकने की चिंताएं भी हैं और गांवों से विस्थापित लोगों का दर्द भी है। साथ ही मनुष्यता के बिकने की वाज़िब चिंतना भी। मनुष्य अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं की नियति का मारा है। भौतिकवादी लोलुपता उसे कहीं भी सूकून नहीं दे सकती है। जब तक वह अपनी इन्द्रियों पर विजय नहीं पा लेता। ऐसे में उसे कांक्रीट के जंगलों और बाज़ारवाद के व्यामोह से दूर रहना होगा, अन्यथा परिणाम सामने है।

 जैसे- विस्थापन~


"जो गाँव में रहते हैं 

वे नगर में जाने के लिए बेचैन हैं 

नगर के नागरिक 

महानगर में बसने के लिए हैं लालायित 

छोटी जगह पर अब कोई नहीं चाहता रहना 

सबको चाहिए बड़ी जगह 

ज़मीन पर रहने के लिए कोई राज़ी नहीं है।"


या- बिकना ~ 


"जो कभी नहीं बिके थे

वे इस बार के बाज़ार में बिक गए

सौदागर ने उनकी जो क़ीमत मुकर्रर की

वह उनकी औक़ात से ज़्दाया थी

इसलिए वे ख़ुशी- ख़ुशी बिक गए

इस ख़रीद- फरोख़्त में दलालों ने

ख़ूब माल और शोहरत कमाई

अपनी सात पुश्तों का इन्तज़ाम

कर लिया।"


कवि स्वाप्निल जी के यहाँ संबंधों के निर्वाह, मिलन की इच्छा और दरवाजे पर किसी आगन्तुक के आने का दस्तक भी है और स्मृतियों का एक भरा पूरा संसार भी है। ईश्वर एक लाठी है,खरीदारी, विस्थापन, लेटरबाक्स, तितलियां,नंगे लोग, हँसना, बंदूक, मलबे,दस्तक, बुनकर स्त्रियाँ और प्रूफरीडर आदि कविताएं कवि के भौगोलिक विस्तार और भाव प्रसार की परिचायक हैं। मनुष्य जीवन की बहुत सारी उत्पत्तियाँ व आविष्कार उसके दिमाग की उपज है। क्योंकि दिल और दिमाग से बहुत सारे काम किये जाते हैं। चुनांचे कवि दिमाग को उत्तम विचारों की जगह मानता है न कि कूड़ेदान। इस माने में उनकी कविता बराबर एक वैचारिक हस्तक्षेप की मांग करती हैं। यथा- सही जगह~


"कूड़ा रखने की सही जगह कूड़ेदान है 

अतः इसे दिमाग़ में मत रखिए 

दिमाग़ उत्तम विचार रखने के लिए बने हैं 

खूटियाँ कपड़े टाँगने के लिए बनी हैं 

इस पर ख़ुद को टाँगने की कोशिश मत करिए 

इसी तरह रहने की निर्धारित जगह घर है 

अन्य जगहों पर मत करिए यक़ीन 

अन्यथा दर-ब-दर होने के ख़तरे बढ़ सकते हैं।"


सन् नब्बे के बाद आर्थिक उदारीकरण और सन् 92 में बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना को उस समय के हर रचनाकार ने किसी न किसी रुप में अपनी अभिव्यक्ति दी है। कुँवर नारायण, राजेश जोशी और बाद के कवि अदनान कफील दरवेश ने उस पर बेहतर कविताएं लिखीं और रचीं हैं। ईश्वर जब व्यक्तिगत आस्था का विषय हो गया हो तो धर्म के ठेकेदार पैगम्बर व रहनुमाओं के वेश में जनता को दिग्भ्रमित करने और बरगलाने लगते हैं। कवि स्वाप्निल भी उस घटना से अछूते नहीं रहे, वे भी धर्म की आड़ में चलने वाले इस साम्प्रदायिकता की आग को बखूबी पहचानते हैं। हत्या और जादू जैसे शब्द उनकी कविता में बारहा आते हैं, इस विरोधाभास व तनाव से कविता के तत्वों की अर्थवत्ता और बढ़ जाती है। समाज से सत्य, विनम्रता, नैतिकता, आदर्श जैसे मानवीय मूल्य सब गिर गयें हैं। चारो ओर सिर्फ झूठ का बोलबाला है। ऐसे समय में उनकी कविताएं हमें आश्वस्त करती प्रतीत होती हैं। 

 मसलन- झूठा आदमी~


"झूठा आदमी इतने यकीन के साथ झूठ बोलता है

कि हम उसे सच समझने की गलती करने

लग जाते हैं

वह हमारी बुद्धि हर लेता है

और हमें अपने अनुकूल बना लेता है

झूठा आदमी एक जादूगर की तरह

चमत्कार दिखाता है।"


या- नई खोज कविता देखें।~


"उसने सत्य और अहिंसा की जगह

लोगों के हाथ में त्रिशूल और तलवार

थमा दिया और कहा - तुम्हें एक

धर्मयुद्ध लड़ना है

बचोगे तो जनता तुम्हें अपना

नायक मान लेगी

शहीद हो जाओगे तो तुम्हारे लिए

स्वर्ग के दरवाजे खुल जाएँगे

नए तथ्य बताते हैं कि यह

पागलपन का दौर है

जो सच बोलेगा उसे मार दिया जाएगा।"


सत्ता और साम्प्रदायिकता का जब आपस में गठजोड़ हो जाता है तो समय और समाज का चेहरा विकृत और भयावह हो जाता है। साधारण मनुष्य इसमें घुटने और पिसने को विवश है। उसकी नियति में सिर्फ़ संघर्ष और जद्दोजहद की असंख्य रोड़े हैं। चुनांचे कवि अपने लिए दूसरी पृथ्वी की तलाश में है, जहाँ फ़कत मनुष्य रहते हों और मनुष्यता ही वहाँ का मजहब हो। उनकी कविताएं इस बात तस्दीक़ करती व विश्वास दिलाती हैं और साथ ही हमें आगाह भी करती हैं। द्रष्टव्य- विनम्रता ~


"मैं मनुष्य होना चाहता हूं

और वे मुझे मनुष्यहीन बनाना चाहते हैं

इस आदमखोर समय में लोग एक दूसरे को

भक्ष रहे हैं

क्या हम किसी जंगल में आ गये हैं ?"


यथा- रहनुमा ~ 


"वे हमारे लिये भूख का इलाज नहीं

मजहबी किताबें लेकर आये थे

और कहा था कि मजहब और खुदा

तुम्हारे सारे दुख दूर कर देंगे

धीरे – धीरे टिड्डी दल की तरह

हमारे इलाके में फैल गये

उन्होंने हमारे खेत नहीं हमारे

दिमाग को ढँक लिया था

हम अनाज बोने की तरकीब भूल कर

खेत में मजहब उगाने लगे

यह समझ हमें बहुत दिनों बाद

आयी कि जिन लोगों ने हमे लूटा था

वे हमारे ही रहनुमा थे."


आठवें नवें दशक की कविता में लोक का भाव संसार कवियों का प्रिय क्षेत्र बन गया था। ज्ञानेन्द्रपति, लीलधर मंडलोई, मदन कश्यप, अष्टभुजा शुक्ल, श्रीप्रकाश शुक्ल, एकांत श्रीवास्तव और स्वाप्निल श्रीवास्तव जैसे कवियों ने अपनी कविता के माध्यम से पुनश्च लोक की महत्ता को स्थापित किया। कवि स्वाप्निल श्रीवास्तव की कविता का मुख्य स्वर उनका अपना लोक संसार है। जहाँ कवि का भावुक मन स्वच्छंद विचरण करता है। लोक उनकी कविता का स्थायी भाव है। हालांकि अब लोक तक शहर,सड़क और बाजार की पहुंच बढ़ती जा रही है। गाँव भी अब ग्लोबल में तब्दील होते जा रहे हैं।  महानगरों के बरक्स छोटे शहरों व कस्बो में रहते हुए कवि ने गाँव और शहर के जीवन को एक साथ साधा है और साथ ही उनके यहाँ प्रकृति और मनुष्य की वाज़िब चिन्ताएं भी हैं। 

जैसे- परिन्दे कम होते जा रहे हैं~


"परिंदे कम होते जा रहे हैं

शहरों में तो पहले नहीं थे

अब गाँवों की यह हालत है कि

जो परिंदे महीने भर पहले

पेड़ों पर दिखाई देते थे

वे अब स्वप्न में भी नही दिखाई देते

सारे जंगल झुरमुट

उजड़ते जा रहे हैं

कहाँ रहेंगे परिंदे

शिकारी के लिए और भी सुविधा है

वे विरल जंगलों में परिंदों को

खोज लेते हैं।"


जैसे - गुठली ~ 


"यह गुठली नही क्रांतिबीज है

जिसमें वृक्षों की अनेकानेक संततियाँ

जन्म लेने के लिए बेचैन हैं

इसके भीतर

वृक्षों की दुनिया को कोलाहल से भरनेवाले

परिंदे छिपे हुए हुए हैं।"


स्वाप्निल श्रीवास्तव की कविताओं में प्रेम के स्वाप्निल लोक संसार के कई तहें हैं, जो उनकी गहन ऐन्द्रीकता की तासीर का पता देती है। उनके यहाँ प्रेम के उदात्त व सात्विक रुप हैं। और उनके उदाहरण भी जीवन जगह की रोजमर्रा से होकर आते हैं। यह निरा वायवीय नहीं बल्कि दुनियावी प्रेम है, जो भौतिकता के बाह्याडंबर से कोसों दूर है। उनके यहाँ दोनों तरफ का प्रेम एक रुपक की तरह है। जैसे दरवाजे और खिड़कियां एक दूसरे की पूरक हैं। उनकी ही तीन कविताओं के मार्फ़त यह बात और स्पष्ट होगी। उनकी कविता में प्रकृति और प्रेम की ऐहिकता का एक अद्भुत संयोग है, जो एक दूसरे में अनुस्यूत है। जैसे नदी में नाव, बाँसुरी में साँस और सुई में धागा एक दूसरे के बिना अधूरे हैं वैसे ही प्रेम के बिना मनुष्य जीवन। प्रेम के लिए नदी का नाव से संबंध इसका सबसे मुफीद व मौज़ू उदाहरण है। 

यथा- भवसागर ~


"जिस नांव को तुम मझधार में

छोड़ कर चली गयी थी

उसे किनारे तक लाने में काफी

समय लगा

कभी नदी में आ जाती थी बाढ़

कभी तूफान का सामना करना

पड़ता था

कभी नदी में इतना कम पानी

हो जाता था कि ठहर जाती थी नांव

मुझे बारिश का इंतजार करना

पड़ता था"


या - जैसे - बाँसुरी~


"मैं बाँस का एक टुकड़ा था

तुमने मुझे यातना दे कर

बाँसुरी बनाया

मैं तुम्हारे आनंद के लिए

बजता रहा

फिर रख दिया जाता रहा

घर के अँधेरे कोने में

जब तुम्हें खुश होना होता था

तुम मुझे बजाते थे

मेरे रोम रोम में पिघलती थीं

तुम्हारी साँसें

मैं दर्द से भर जाया करता था

तुमने मुझे बाँस के कोठ से

अलग किया

अपने ओठों से लगाया

मैं इस पीड़ा को भूल गया कि

मेरे अंदर कितने छेद हैं"


जैसे- कमीज़ ~


"आज आलमारी से मैंने

तुम्हारे पसंद की कमीज निकाली

उसके सारे बटन टूटे हुए थे

तुमने न जाने कहाँ रख दिया

मेरी जिंदगी का सुई धागा

बिना बटन की कमीज

जैसे बिना दाँत का कोई आदमी"


समय और युग में परिवर्तन के साथ मनुष्य और ईश्वर के बीच के संबंधों में भी परिवर्तन अवश्यसंभावी था। ईश्वर अब व्यक्तिगत आस्था के विषय के साथ जो प्रत्यक्ष था, उसे ही उसके स्थानापन्न के रुप में स्वीकार किया। यहाँ किसी अपरोक्ष या मनुष्येत्तर सत्ता के लिए अवकाश न रह गया था। स्वाप्निल की कविताओं में ईश्वर जीवन के साथ लगा हुआ साहचर्य के रुप में आता है। अगरचे जीवन का फ़लसफा इतना आसान नहीं है, कि एक टेक भर से उसे जिया जा सके। अलबत्ता एक लाठी ईश्वर के मानिन्द उसके यहाँ भी मौजूद है। द्रष्टव्य- ईश्वर एक लाठी है।~


"ईश्वर एक लाठी है जिसके

सहारे अब तक चल रहे हैं पिता

मैं जानता हूँ कहाँ कहाँ दरक गई है

उनकी कमजोर लाठी

रात को जब सोते हैं पिता उनके

लाठी के अंदर चालते हैं घुन

वे उनकी नींद में चले जाते हैं।"


स्वाप्निल श्रीवास्तव की कविताओं का शिल्प,अंतर्वस्तु अनुरूप ऊपर से सहल और सरल तो दिखाई देती हैं,परन्तु उसके भीतर एक हाहाकार और उष्णता है। वह जटिलता और दुर्बोधता के आवरण से मुक्त लेकिन निरा सपाटबयानी से अलग एक आंतरिक लय को आत्मसात करके चलती है। जहाँ शिल्प का आवरण कमजोर है वहाँ उनकी कविताएं आश्वस्त करती हैं। कवि स्वाप्निल का ध्यान शिल्प के चमत्कार से ज्यादा कविताओं के अंतर्वस्तु पर टिका है। लोक के बदलते स्वरूप व भाव के अनुसार उनकी भाषा है। उनकी भाषा में खड़ीबोली हिन्दी के साथ ही अवधी और भोजपुरी के भी शब्दों का मेल है। गुठली, लाठी,घुन, कमीज, दरक, ताख, कोठ, दियासलाई,झुरमुट, मझधार, ठहरना,खूँटी, कलमदान इत्यादि जैसे शब्द लोक से होकर आते हैं, जो उनकी कविता में स्वाभाविक रुप से समाहित हो जाते हैं,जिससे उनकी कविता को दूर से ही बिना कवि का नाम लिए पहचाना जा सकता है। प्रतीक ,बिम्ब और मुहावरे उनकी कविता का नैसर्गिक रुप हैं जैसे लाठी को ईश्वर के प्रतीक के रुप में प्रयोग और 'बिना बटन की कमीज जैसे बिना दाँत का कोई आदमी' का उपमान भी द्रष्टव्य है। स्वाप्निल श्रीवास्तव की कविताओं का आस्वाद में लोक का गहरा बयान है। जो कविता के माँग के अनुरूप है। जैसे गमछा के अनुरूप उनकी कविताओं के गंध को भी दूर से पहचाना जा सकता है। जैसे-गमछा~


"फसलें कट चुकी हैं

किसी मजूर का पसीने से

तरबतर गमछा यहाँ

छूटा हुआ है

उसका लड़का ढूँढ़ते हुए

यहाँ आएगा

पसीने की गंध से

पहचान जाएगा कि यह

उसके बाप का गमछा है"


बहरहाल, कवि स्वाप्निल श्रीवास्तव की कविताएं अपने समय समकाल को उद्घाटित करती चलती हैं। वे लोक से संबंध्द होकर समाज और परिवेश से गहराई से जुड़ती हैं। उनकी कविताएं मनुष्यता की पैरोकार हैं और यह हमारे समय के लिए आश्वस्तिकारक है कि जब प्रकृति,लोक और मनुष्य के ऐहिक संबंध को बचाना सबसे जरुरी है,ऐसे में कविता ही इसमें अपनी मौजूदगी से सार्थक हस्तक्षेप कर सकती है। जब समाज को बर्बर और क्रूर होने से बचाना है और सत्ता व साम्प्रदायिकता की चिंगारी से उसे सुरक्षित रखना है तो ऐसे में कविता ही एकमात्र विकल्प है जो सत्ता का प्रत्याख्यान व प्रतिपक्ष रच सकती है। इस तरह स्वाप्निल श्रीवास्तव की कविताएं हमारे मौजूदा समय में मनुष्यता, लोक संवेदना और जनपक्षधर हकीकत का सार्थक बयान करती हैं।


                           डॉ.अवनीश मिश्र

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हिंदी विभाग , काशी हिंदू विश्वविद्यालय , वाराणसी।

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