बच्चे के बगीचे में
बूढ़ी स्मृति बता रही है
बचपन की बात
कि कैसे?
कच्चे आम को छीलने के लिए
अक्सर बड़ी नहर में चुनी गयी
सुंदर सुंदर सीपियों को
पत्थरों पर घिस घिसकर
छोलनी बनाती थी माँ
और हाँ
जरूरत पड़ने पर कभी आलू
तो कभी कोई अन्य सब्जी छिली जाती थी
उसी से हमारे घर
किंवदंतियों के कचहरी में
लॉयर है लोक
जज है गँवई जिंदगी
गवाह है गाँव
और बयान है
कि माँ की लोरी में भी
(चंदा मामा आड़े आवा बाड़े आवा
नदिया किनारे आवा...बच्ची के मुँहे में घुँटुक)
सुतुही की सच्ची कहानी है
जिसे सुने हैं हम
थम गया वात
तात! घोंघें खा नहीं पा रहे हैं अपना पकाया भात
कई दिनों से ताक रहे हैं सारी रात
गात पर पिरकी-पाका प्रसन्न होकर फल-फूल रहे हैं सात
रुदन के स्वर में झींगुर-रेंगुआँ गा रहे हैं आँखों की बरसात
जगा रही है मेंढ़कों को
जात! टर्र-टर्राहट गूँज उठी ताल-तलई-तालाबों में
फिर भी सागर के सारे शंख निश्चिंत होकर सो रहे हैं
जो नदी में हैं वे अपना अस्तित्व खोकर ढो रहे हैं
बेचैनी का बोझ और क्या कहूँ सुगबुगाहट का संदेश
आह! ये सीपियाँ सिसक सिसककर क्यों रो रही हैं
मैं नहीं जाता हूँ पर
जिस सुतही से मेरी माँ मुझे दूध पिलाई है
मैं सोच रहा हूँ, उस पर कुछ लिखूँ आज
चम्मच निप्पुल गिलास मत होना नाराज
मैं तुम सभी पर लिखूँगा!
(©गोलेन्द्र पटेल
12-05-2021)
ईमेल : corojivi@gmail.com
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