मनुस्मृति दहन—मानव गरिमा की ऐतिहासिक घोषणा : गोलेन्द्र पटेल
डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा 25 दिसंबर 1927 को महाड़ में मनुस्मृति का सार्वजनिक दहन कोई धर्म-विरोधी कृत्य नहीं था, बल्कि यह मनुष्य-विरोधी विचारधारा के खिलाफ एक ऐतिहासिक विद्रोह था। बाबा साहब ने मनुस्मृति इसलिए नहीं जलाई कि वह एक धर्मग्रंथ कही जाती है, बल्कि इसलिए कि उसमें दलितों, शूद्रों और स्त्रियों के प्रति घृणा, अपमान और दासता को धार्मिक वैधता दी गई थी। मनुस्मृति का दहन असल में उस सामाजिक व्यवस्था का दहन था जो असमानता, अन्याय और अमानवीयता पर टिकी हुई थी।
मनुस्मृति ने जाति-व्यवस्था को ईश्वरीय आदेश के रूप में स्थापित किया और छुआछूत, ऊँच-नीच तथा जन्म आधारित श्रेष्ठता को समाज का “नियम” बना दिया। इस ग्रंथ में दलितों को शिक्षा, संपत्ति और सम्मान से वंचित रखने के निर्देश हैं, वहीं स्त्रियों को आजीवन पुरुषों की अधीनता में रहने वाला प्राणी घोषित किया गया है। यही कारण है कि अंबेडकरवादी दृष्टि में मनुस्मृति केवल बहुजन-विरोधी ही नहीं, बल्कि स्त्री-विरोधी भी है। इसीलिए मनुस्मृति दहन दिवस को कई लोग ‘स्त्री मुक्ति’ और ‘मानव मुक्ति’ के प्रतीक दिवस के रूप में भी देखते हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी कुछ लोग—यहाँ तक कि कुछ महिलाएँ भी—मनुस्मृति का समर्थन करती दिखाई देती हैं, जबकि वही ग्रंथ उनके अधिकारों और स्वतंत्रता का खुला निषेध करता है। यह समर्थन वस्तुतः सदियों की वैचारिक गुलामी का परिणाम है। बाबा साहब ने स्पष्ट कहा था कि धर्म और गुलामी एक साथ नहीं चल सकते। जो धर्म मनुष्य को मनुष्य नहीं मानता, वह धर्म नहीं, बल्कि शोषण का औजार है।
मनुस्मृति दहन एक प्रतीकात्मक लेकिन अत्यंत क्रांतिकारी कदम था—जैसे औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार। यह ब्राह्मणवादी वर्चस्व, जातिगत दमन और पितृसत्ता के खिलाफ बहुजन समाज की चेतना का उद्घोष था। बाबा साहब का सपना एक ऐसा समाज था जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित हो—और इसी सपने की संवैधानिक अभिव्यक्ति भारतीय संविधान है।
आज जब भी जातिगत भेदभाव और स्त्री-दमन जारी है, तब मनुस्मृति दहन दिवस हमें याद दिलाता है कि असमानता के हर ग्रंथ, हर विचार और हर व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष जारी रखना होगा। भारतीय संविधान ही सर्वोपरि है, क्योंकि वही मनुष्य को मनुष्य के रूप में स्वीकार करता है। मनुस्मृति दहन दिवस उसी संवैधानिक चेतना और अंबेडकरवादी मानवतावाद की ज्वलंत मशाल है।
जय भीम।
जय संविधान।
★★★

रचनाकार: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/ जनकवि, जनपक्षधर्मी लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)
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