Sunday, 30 August 2020

रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार से पुरस्कृत शैलेन्द्र कुमार शुक्ल【© Shailendra Kumar Shukla】 की कुछ महत्वपूर्ण कविताएँ

 

 

◆सहजता और संलग्नता के कवि हैं शैलेन्द्र:प्रोअरुण होता◆

भोजपुरी अध्ययन केंद्र और डॉ रविशंकर उपाध्याय स्मृति संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में 'सम्मान समारोह,परिचर्चा और काव्यपाठ' विषयक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस अवसर पर हिंदी के युवा कवि शैलेन्द्र कुमार शुक्ल को पांचवा रविशंकर उपाध्याय स्मृति  युवा कविता पुरस्कार प्रदान किया गया। सम्मान स्वरूप उन्हें प्रशस्ति पत्र,पुरस्कार राशि और साल भेंट किया गया।   सम्मान समारोह की अध्यक्षता प्रो. रामकीर्ति शुक्ल ने की।

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो शुक्ल ने  कहा कि शैलेन्द्र ने अपनी काव्य परम्परा का जिस तरह स्मरण किया है वह उन्हें विलक्षण और विशिष्ट बनाता है। शैलेन्द्र को उन्होंने परंपरा के स्मरण का कवि बताते हुए उनकी अवधी पृष्ठभूमि की काविताओं की प्रशंसा की।

मुख्य अतिथि वरिष्ठ कवि  मदन कश्यप  ने कहा कि प्रतिरोध की विश्वसनीयता सबसे ज्यादा जरूरी है क्योंकि साम्राज्यवाद ने प्रतिरोध को भी फंडिंग देना शुरू कर दिया है। यह उसकी क्रूरतम सच्चाई है लेकिन वह ऐसा कर रहा है। शैलेन्द्र कुमार शुक्ल की विशेषता यह है कि वे लोक में रचे बसे रचनाकार हैं। उनकी यह लोक सम्बद्धता उन्हें विश्वसनीय भी बनाता है। शैलेन्द्र की काविताओं को उन्होंने हिंदी काव्य परंपरा की केंद्रीय धारा की काविताओं के रूप में रेखांकित किया।


मुख्य वक्ता के रूप में प्रतिष्ठित आलोचक और निर्णायक मंडल के सदस्य प्रो अरुण होता ने अपने उद्बोधन में कहा कि शैलेन्द्र की कविताओं की  संलग्नता और सहजता हमे आकर्षित करती है। उन्होंने कहा शैलेन्द्र की कविताओं में प्रतिरोध और व्यंग्य का मिला जुला रूप दिखाई देता है। वे कविता में बड़बोलेपन के शिकार नहीं हैं। उनकी छोटी काविताओं को इन्होंने बड़े कैनवास की कविताएं माना।

विशिष्ट वक्ता के रूप में बोलते हुए हिंदी के महत्वपूर्ण कवि  स्वप्निल श्रीवास्तव  ने कहा की किसी कवि को याद करने का सबसे बेहतर तरीका है उसकी कविताओं का पाठ करना। उन्होने कहा कि शैलेन्द्र की कविताओं में मौजूद मुहावरे और चरित्र उनकी प्रतिबद्धता और पक्षधरता निर्धारित करते हैं। 

गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोधार्थी पुष्पेंद्र कुमार ने अपने वक्तव्य में कहा कि एक युवा कवि के लिए जरूरी है कि वह समय से सिक्त रहते हुए भी समय से मुक्त हो। यह एक कठिन कार्य है लेकिन यह किये बिना रचनात्मक मूल्यों को बचा पाना बहुत कठिन होता है। उन्होंने कहा आज हिंदी को एक सशक्त और कड़ी आलोचना की जरूरत है। उन्होंने कहा एक युवा कवि का अपनी संस्कृति,परम्परा और मूल्यों से जुड़े रहना उसके सजग और सचेत होने की निशानी है। शैलेन्द्र में ये चीजें बहुत साफ तौर पर दिखाई देती हैं। शैलेन्द्र को उन्होंने इतिहास,परंपरा और संस्कृति से संवाद करने वाले कवि के रूप में याद किया।

सम्मानित कवि शैलेन्द्र कुमार शुक्ल ने अपने आत्मवक्तव्य मे कहा की कविता में हम सबकी दुनिया शामिल है। मुझे लगता है मनुष्य का जीवन कविता से जुड़ा हुआ है।व्यक्ति आत्मालोचन की स्थिति में कविता रचता है। उन्होंने कहा मैं जिस अवधी क्षेत्र से आता हूँ वहां के लोगों का जीवन ही कविता है। उनके जीवन को देखते, उसमे शामिल होते हुए कविता की भूमि तैयार हुई। इस भूमि को पुष्पित पल्लवित होने का अवसर बनारस और यहां के साथियों ने दिया। 

कार्यक्रम का संचालन भोजपुरी केंद्र में  पीडीऍफ़ डॉ विकास कुमार  यादव ने किया व धन्यवाद ज्ञापन रविशंकर उपाध्याय स्मृति संस्थान के सचिव डॉ. वंशीधर उपाध्याय ने दिया। इस अवसर पर शहर के गणमान्य साहित्यप्रेमी व भारी संख्या में छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।
(प्रस्तुति: जगन्नाथ दुबे)




१.

युगबोध

मैं तुम्हें अपने दोनों हाथ

जोड़कर नमस्कार करता हूँ

लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं

कि अपने दाहिने हाथ से 

अपने बाएं पांव का जूता निकाल कर

तुम्हारे अपराधी चालक मुँह पर

भब्भ से नहीं मारूंगा


बहुत ऐंठन से पगही भी कतर जाती है साहिब !


२.

1.

मैं अपने संदेहों से डरा हूँ

मेरे विश्वासों का नशा पड़ोसियों की छाती कूट रहा है

राजा की जययात्रा निकली थी

कुछ बरस पहले

कि जिनकी दिग्विजयी पताका पर लिखा था

एक महामारी का नाम

कितनी बार सोचा 

राजनीति में महामारी से वृहद और महान कुछ नहीं होता


2.

मैं एक राजनीतिक महामारी का मुँह

कविता की हवाई चप्पल से लाल कर देना चाहता हूँ

लेकिन तुम जानते हो

मेरी कविताएं नंगे पांव हैं कब से


3.

न तुम्हारे पास लाठी है

और न मेरे पास भैंस

ऐसे में प्रतीकों की वासना

हमें हांक कर ले आई है 

वैतरणी के तट पर


३.

आत्मविश्वास की टिकिया मिलेगी क्या ?

_______________________________


तुम्हारे आत्मविश्वास में

अहंकार का घुन लगा था

कई बरस पहले


खोखले हुए नाज में

जहाँ अन्न ही ब्रह्म था

तुमने अन्य पर विश्वास किया


विश्वास तुम्हारी सुविधा 

और इस सुविधा ने जो किया

विकास कहलाया


गांधी होते तो कहते यह तुम्हारे कर्मों का पाप है

मैं इस महामारी के दौर में

आत्मविश्वास की एक टिकिया खरीदने के लिए

दर दर भटक रहा हूँ

मेडिकल स्टोर पर जाता हूँ

तो टूटी कुर्सी पर बैठा केमिस्ट 

मुझे पार्टी के दफ्तर का रास्ता दिखा देता है


काश मेरी उदासी

मेरे विश्वासों को धिक्कार पाती


४.

महानता या महामारी

-------------------------------------


बहुत अच्छे लोग

मुझे नहीं जानते

बहुत बुरे लोगों को मैं नहीं


अच्छे लोग बड़े होते जाते हैं

यूकेलिप्टस जैसे लंबे और गोरे

बुरे लोग अंततः सिमट कर हो जाते हैं गठरी


कल कह रहा था कोई पागल

अच्छे लोग बुरे लोगों की जन्मभूमि होते हैं


वह बार बार कहे जा रहा था

मैं जन्मभूमि पर बात करना चाहता हूँ

वह कब से कहे जा रहा है

महानता से शुरू करूँ

या महामारी से

मेरा पागलपन जवाब नहीं दे पा रहा है।

५.
जितना तगड़ा दाग हमारे चोले पे
उतने हम इंसान तुम्हारे चुल्ल्हे से

इक इंजन जो खेंच रहा है गाड़ी कूं
गदहा अति बलवान तुम्हारे ठुल्ल्हे से

इस जंगल का शेर हमारा बाबा है
उत्तम गर्भाधान सदी का बिल्ल्हे से

हमरी छाती पर तुमरे ही नक़्शे हैं
फिर काहे भूचाल तुम्हारे पिल्ल्हे से

रोटी बिखरी चीख रही हैं राजा जी
तुमको दूंगी वोट हमारे जिल्ल्हे से

तालाबंदी खुलेखजाने खाज हुई
राउर बोला गई उर्वशी किल्ल्हे से

उन्चासों की चली न अपने भारत में
फिफ्टी हुए बहाल महारे दूल्ल्हे से

कितने बिगड़े काम बने हैं बिगड़ी से
सिगड़ी धधके रोज राम के मुल्ल्हे से


६.
दृश् धातु
___________

सूरज से समंदर निकला
या समुद्र से सूर्य
विदित हो अभिक्रिया से संकोच वश 
चकपकाती निकल पड़ी
महाधातु दृश्

विलोम के वलय से शोभित
अद्भुत का अनुशंधान
आँखिन देखने का गुमान
संज्ञान की महामाया 
न्याय के कल्पनामयी अंक में निहत्थे विश्वास
मूल्यों के पसरते हाथ 
प्रदक्षिणा कर जड़ता की
कुंडली मारती चेतना 
लोकातीत शास्त्र सम्मत 

उठो
उठो कि देखो अपने सम्मुख खड़े शत्रु को
गढ़ो पारिभाषिक शब्दावलियाँ
निर्माण के कार्य में
दिगंत तक प्रतीक्षित हैं मूल्य 
खोलो न्याय के दुर्ग का फाटक
तम के देवता को अर्पित करो
दृश्यता के महान प्रहरी
निष्कंटक मार्ग पर है मनुजता का इतिहास

लेकिन विलोम 
जिसमें शोभित है दृश्यता 
अदृश्यता के इतिहास की कब आएगी
नवीन टिका 
प्रतीक्षा के परिचित पुष्प

हम चिह्नते रहे दृश्य दुश्मनों को
सुलभ बनते रहे मित्र
अदृश्य से लड़ता रहा अहंकार
अभिमान हमारा यह
नितंबों पर चढ़ाए ऐनक
आज जूझ रही है सभ्यता
बहुत मामूली से निर्जीव
दृश् धातु के विलोम से।

७.
एक ग़ैरजरूरी सूचना
__________________

एक दिन भाजपा के डायनासोर
कम्युनिटों के चमगादड़ों से 
लड़ते हुए
सांस्कृतिक युद्ध 
जायकेदार चटनी में बदल जाएंगें !

किसी शाम अमेरिका का राष्ट्रीय पूंजीवाद
चीन के क्रांतिकारी साम्राज्यवाद से
मिल बन जायेगा आलू पराठा !

किसी रात सारे धर्मों की
सबसे लज़ीज़ बिरियानी
पकेगी बुझते हुए सूरज की आखिरी आग पर !

किसी सुबह सारे धन्नासेठ 
दुनिया के मजदूरों के साथ
एक साथ निकल पड़ेंगे 
हजारों साल के खनिज पदार्थों में तब्दील होने की यात्रा पर !

तुम चाहो तो तब तक मेरे साथ 
आलू पराठा और चटनी का मजा ले सकते हो
लेकिन तुम भरोसा नहीं करोगे 
आख़िरी आग पर पकी बिरियानी  का
तुम्हें लम्बी यात्रा पर निकलने से पहले
तुम्हारी लम्बी हड़बड़ी 
किसी सभ्यता को हँसा-हँसा कर मार डालेगी
लेकिन बचेगा कौन !

८.
नागरिकता

जिस तरह यह धरती नागरिक है
इस ब्रह्मांड की
हम धरती के नागरिक हैं

हमारी नागरिकता तुम्हारे मूतने से 
गीली नहीं हो सकती
हमारी नागरिकता तुम्हारे छीकने से 
रद्द नहीं हो सकती

हमने ऑस्ट्रेलिया से एशिया तक
अपने डगों से नापी है धरती
हमने अफ्रीका से अमेरिका तक
खेले हैं आखेट
लाखों बरस से नागरिक हैं हम धरती के

अभी सिर्फ दस हजार साल हुए खेती करते
अभी अपने गरूर में डूबी एक सभ्यता
मिटे बहुत दिन नहीं हुए
देशों में बटे हैं जैसे धरती के टोले

पानी में घुस कर पादोगे
तो बुलबुले निकलेंगे
कोई लौटेगा नहीं अपने गुजरे हुए वक्त में
भूख से लेकर महामारी तक
मरती गईं कई प्रजातियां मनुष्यों की
लेकिन कोई नहीं लौट सका 
अपने ढह गए घर की पुरानी चौखट पर

हम नागरिक है
नागरिकता के सपने किसी इतिहास ने नहीं देखे
हम बैलों की नागरिकता के हलवाहे हैं
पिन्हाई हुई गाय के नीचे टटोलते हुए थन
कोई नहीं उठा सकता नागरिकता के सवाल
बछड़ों से
मेरी बखार में सेंध मारते चूहे
कभी पासपोर्ट के लिए आवेदन नहीं करते
हम धरती के नागरिक हैं

उत्तर आधुनिकता की भैंस अब बंधी है बथान में
तुम छोड़ो अपना प्री मॉडर्न पांड़ा 
मध्यकालीन मूछों के नीचे जो होल है
टोहकारिये 
छूछी बाल्टी में उत्तर सत्य की सफेदी
तुम्हें धोखा देगी

आइए हम नागरिकता पर पुनर्विचार करते हैं

९.
ओ भाद्रपद के कजरारे मेघ
आओ 
आओ और अपनी सांवरी घटा में लपेट लो
गीली और बहुत कोमल मिट्टी से पोषित 
धरती की देह पर
कितनी फब रही मैके से आई हरी साड़ी
जब तुम आओगे
मैं दुद्धा दानों वाले मकई के खेत में
मचान पर बैठ कर कुंभार के आवे में 
सबसे ज्यादा पकी मिट्टी वाली गगरी
कंकड़ियों से बजाते हुए गाऊंगा
राग मल्हार !

ओ लाल चोंच वाले सुग्गों
आओ !
आओ कि अमरूद के बाग में
मेरी बहन ढूंढ रही है
ललगुदिया फल वाला बिरुवा 
तुम आओगे तो मेरी भाभियां तुम्हें बहकाएंगी जरूर
जैसे तुम्हारे हरे पंखों पर उतर आया हो भादो !

अरी ओ आरर डार वाली जामुन
तुम्हारे रंग से कसैली हो गई है धरती की परिधि
पुलई से गिरे फरेंद को कैसे उठाऊं 
इस गीली मिट्टी पर पटे पड़े हैं रसगुल्ले

यह भरभस बारिश के दिन हैं
और अनंत वितान तक तनी हुई रातें
ये कठोर कवच वाले कैथे और बेल 
जिनसे टकरा रहीं हैं मघा की मेघमति तीखी बूंदें
ऊसर भूमि की पगडंडी के उभयतः
घेरे खड़े हैं चकवड़ और हुरहुर 
जैसे भादो की भद्रता ने दे दिया हो रास्ता

अरे ओ भादो के मेघ
आओ
आओ और उतरो धान के खेतों में 
जहां निकौनी कर रहीं हैं काकी
आओ कि करबी से लिपट कर बिलंगी जा रही है 
लोंबिया की बेल
आओ कि देर न हो
सरपत की पत्तियों को धार दो
ओ भादो के मेघ !


१०.
आज के बाद
फिर आज होगा

कल की अनंत 
संभावनाओं के बाद
फिर कोई आ धमकेगा आज

इस तरह भी
कल भरोसे की चीज है
जैसे हर कल का कोई न कोई 
आज जरूर होता है

अब मत कहना
कल का कोई भरोसा नहीं होता।


११.
मेरे प्यारे दोस्तों तुम्हें शुक्रिया
-------------------

मेरे घर में अभी मां हैं
पिता हैं
भाई भतीजे हैं
एक भैंस है
उसकी प्यारी पड़िया
जिसे मैनें अपनी खुरपी से छील कर घास खिलाई है
मेरा बेटा जिसका दूध पीकर जवान हो रहा है
उस महिषी की मेरा शुक्रिया 

उन मजदूरों को मेरा शुक्रिया
जिन्होंने मेरे बाबा के खेत में काम किया
उस एक अकेली धोती को मेरा शुक्रिया 
जिसे बुढऊ आधी पहनते थे और आधी ओढ़ कर
नीले आसमान के नीचे
खलिहान में माड़ते थे मड़नी
उन बैलों की जोड़ी को मेरा शुक्रिया 
जिनका अपने बेटों से ज्यादा ख़याल रखती थीं दादी

उन गांव के तमाम तमाम लोगों को मेरा शुक्रिया
जिन्होंने मुझे बहुत प्यार दिया
उस तालाब को शुक्रिया
जिसने मुझ नंग धड़ंग लड़के की उछल कूद को
कभी अश्लील नहीं माना
गांव की उस गरीब बूढ़ी औरत को मेरा शुक्रिया
जिसने मेरी नौकरी के लिए मन्नते मांगी

अब उस पागल को कैसे शुक्रिया कहूँ
जो मेरी बेरोजगारी से बहुत परेशान था
लेकिन उन होशियार लोगों को मेरा बहुत बहुत शुक्रिया
जिन्होंने सदैव मुझे नीचा दिखाने की जुगत की
मेरे पांव इस धरती पर जमे रहें
इस अनंत आकाश को मेरा शुक्रिया

उस जवान होती आबादी को मेरा शुक्रिया
जिसमें मेरा आबनूस बसता है
उन बुजुर्गों को मेरा शुक्रिया
जिनकी निगरानी में मुझे बिगड़ने का मौका मिला
मेरे दुश्मनों को मेरा शुक्रिया
जिन्होंने मुझे याद रक्खा

लखनऊ को शुक्रिया हैदराबाद तक
और हैदराबाद को लखनऊ तक शुक्रिया
बनारस को शुक्रिया कहूँ
तो किस मुँह से
जिसने मुँह खोलना सिखाया
किसका मुँह मांगू कि मिले भी
शुक्रिया बनारस

विदर्भ की काली मिट्टी को मेरा शुक्रिया
कपास की काली पत्तियों और सफेद रुई को 
मेरी तरफ से शुक्रिया
ग़ांधी को तो अभी नहीं
लेकिन उनके बंदरों को मेरा शुक्रिया
शुक्रिया उन सब को
जो मेरे बहुत अपने हैं

मेरे प्यारे दोस्तों तुम्हें शुक्रिया कहूँ
तो मुझे माफ़ मत करना
मैं तुम्हारा दोस्त हूँ।


  ★★ ★【अवधी पद】★★★

१२.
आओ तुलसी का धकियाई
अपने औगुन हेतु प्रयोजन छूरा बगल छुपाई
लेंउड़ी तरे दलिद्दर छोपी भाल भरम चमकाई
मनसबदार बनी चिरकुट कै लेनिमिन्ट लगाई
हाँ जू हाँ जू करी दिनभरा रातिउ मा लुरियाई
डासत चली गई है रजनी दसनी धरी तहाई
बरन डार पै जाति कै झुलुआ पैंगा खूब बढ़ाई
गद्दी चमकै गद्दीधर की सावन सुआ फंसाई
बबवा रहै संकुचित बहुतै कहि कै गाल बजाई
दरबारन मा करी भड़ैती तुलसी का गरियाई
तमगा एक मिलै यही खातिर गदहा बाप बनाई
नेकी भनति उगै जेहि खेते सड़वा अस चरि जाई
मान पिपासा गड़ही  हुइगै  डीह  खोदि पटवाई


१३.
हे बलभद्दर !
ओ बलभद्दर !
तोहके करे सलाम सलेन्दर
तू हम सब मा छंटे कलंदर
भोर भवा पानी बरसत है
पिहू पिहू चातक बोलत है
भिजुआ पिलवा कान फटक कै
पूंछ डोलाये कुछ मांगत है
चलौ बजारे मछरी लाई
मनवा लायं लायं लोलत है
कबते तुमसे कहित गुरुजी
केशव दद्दा का बुलवाओ
बैजनाथ कै भोले बाबा
सावन लाग गवा है देखौ
हुंवनइ लाल सलाम करब हम
माठा ऐस फेराओ सागर
ई सागर मा दुक्ख बहुत है
मारि मथानी ते उपजी फिर
नाहिन कोई बचे सिकंदर
हे बलभद्दर !
ओ बलभद्दर !

भोजपुरी के तू नाहर हौ
हमहू हन अवधी के मनई
बटुई भर तरकारी पाकी
दुइ दुइ खाय पनेत्थ डकारब
देस कोस की बातै हुइहैं
तुम गोरख के गीत सुनायउ
हम जुमई की कविता बांचब
पटना ते अइहैं अमरेन्दर
हम दद्दा का गरे लगाउब
केसव दद्दा कसि के डटिहैं
बलभद्दर कै आजु जलमदिन
का रे तू अबहिउ सोवत है
आंख खुली तौ सपना जागा
का गोरख का कहैं मछन्दर
हे बलभद्दर !
ओ बलभद्दर!

१४.
का हो बोधी भेड़हा हौ !
भाषा बोली मा कन्फ्यूजन बिन सोंता के गढ़हा हौ
गिरै  दौंगरा  उफनै  लागौ  जेठ  म  नंगे  नरहा  हौ
चुप्पे चुप्पे साँझ क निकरौ दिन दुपहर मा खरहा हौ
छेगरी के बच्चन पर झपटौ धाक जमे पै  फरहा हौ
जहाँ बजार बजावै ढपली ताक धिना धिन थैया हौ
'लप ते ओहर लप ते एहर' कौड़ी कि तीन करैया हौ
पाला बदलि बदलि कै उलरौ कलकत्ता कै करिया हौ
बाम के भित्तर दक्खिन साधे तुम भैया बम्बबैया हौ
अमरनाथ कै  डमरू  बाजै  हिंदी  के  बचवैया  हौ
बोली बोलि करावत असगुन निकुही जाति चिरैया हौ
ओढ़ी खाल उतारौ बलकल बबुआ कहि डेरवैया हौ
कस अवधी  बाजार  गरम  है  तू  व्यौपार  करैया हौ


१५.
बाबू यहु इंदिरा का पोता
पप्पू कहि कहि गप्पू पालेउ हुइ गेउ रट्टू तोता
बीरजवाहिर का गिरियाएउ जिनका है यहु धोता
सबै भुलायेउ तहजीबन का दहेउ बहुरिया क गारी
विधवा जीवन काटि दिहिसि जो वह भारत की नारी
कबहुँ न कोइक कोसि सकी वह यहिकी है महतारी
प्रेम करिस जो धार पै चली के दीन्हिस उमर गुजारी
सब अपमान सहिस सीता अस तहूँ न फाटी छाती
नहिं जबान मा खाई  खंधक  धरती फाटि समाती
यहौ नागरिक है भारत   का नसा उतारी बिचारौ
भोंपू ते बहिरे कानन मा यहिकिउ बात उनारौ
राजनीति मा करौ दुष्मनी भारत भाग्य विधाता
पोता के जूतन पर भावुक काहे हौ मतदाता।


१७.
ककुआ डाहै बहुत कोरौना
प्रान सुखाने दिगदिगंत लौ सूखै सकल पुदीना
छुआछूत की डुग्गी बाजै हुलसैं सुकुल नगीना
सप्तम आसमान मा ध्वाखा जाई कौन मदीना
छुटी नमाजै कटे पुजापा लुटिगे गाल बजौना 
बंद किवरिया खुले खजाने सिमटा परा बिछौना
जुगई जिये गजोधर मरिगे कहिका काहुकही ना
बरम बिबेकी काम न आए माया भगति चुरी ना
का खाई का पेइ बचाई कौनौ जुगुति बची ना
त्रिभुवन भये गंजेड़ी चौचक तबहुँ तलब बुझी ना
छुट्टा सांड़ व्यसन की बेंड़ी नेहुरे खूब बचे ना
कौन करिंगा माड़ौवाला कोउ मलिखान डरी ना
माहिल मामा  भये मंत्री करिया करम कोरौना।


१८.
हम गयेन रहे अंबिया बिनै निबिया की जर पर मिले जच्छ 
बोले तुहि कहाँ जाति है रे तू कहिका है रे अंध भक्त

हम कहेन कि साहेब हिन्दू हन मोदी जी का हम दिहेन वोट
जोगी जी के हम चेला हन औ अमित साह के परम भक्त

सुनतै खन छूटि पसीना गा लत्ता मा मुँह पोंछै लागे
बोले यह रीति पुरातन है फिरि जच्छ प्रश्न पूछै लागे

बोले कि कोरौना ते ज्यादा कहिकी चर्चा है गरम हियाँ
बोलेन हम सुकुल राम चंदर के आगे सब कुछ नरम मियाँ

फिरि पूछिन कौन वायरस ते ज्यादा रिसर्च मा टाप किहिस
हम चट्ट बताएन तुलसी का जिनके आगे वहु पादि दिहिस

यहि बिकट आपदा ते तगड़ी है कौन महामारी बचुवा
हम कहेन कि 'नाहिन मरब हियाँ दुनियां मर जाय भले चचुआ'

कहिते डेराति है मनई सबु अब साँचु बताओ जल्दी ते
बदला लै लेई मरतुलहा बसि मारि गिराओ बल्दी ते

आखिरी सवाल बताओ अब कहिके कलंक पर बिंदी है
हे जच्छ चंद ! हे महामंद ! मूरखानंद यह हिंदी है ।

© शैलेन्द्र कुमार शुक्ल





संपादक परिचय :-
नाम : गोलेन्द्र पटेल {बीएचयू ~ बीए , तृतीय वर्ष}
संपर्क :-
ईमेल : corojivi@gmail.com
मो.नं. : 8429249326

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