Tuesday, 13 July 2021

श्री सुरेंद्र प्रजापति को "मसि कागद छुयो नहिं" सम्मान 2021 से सम्मानित किया गया : गोलेन्द्र पटेल

 मसि कागद छुयो नहिं, कलम गह्यो नहि हाथ।

चारों जुग कै महातम कबिरा मुखहिं जनाई बात।।

         ~कबीरदास

                                  प्रथम सम्मान
आ. सुरेंद्र प्रजापति जी को मसि कागद छुयो नहिं सम्मान से सम्मानित किया जाता है। हम आपके उज्ज्वल साहित्यिक भविष्य की कामना करते हैं।

                                     कवि परिचय :-
नाम- सुरेन्द्र प्रजापति

जन्म-8 अप्रैल 1985
जन्म स्थान :-
ग्राम- असनी
पोस्ट-बलिया
थाना-गुरारू
जिला-गया, बिहार
पिन न.-824205

पिता-स्वर्गीय श्री जगदीश प्रजापत
माता-स्वर्गीय श्रीमती मैना देवी
पाँच भाई, दो बहनें
अपने माता पिता का तृतीय पुत्र
पिता से हमेशा संघर्ष शील बने रहने की प्रेरणा, वही माँ से विनम्र बने रहने का पाठ

"शिक्षा"-प्राइमरी स्कूल पांचवी तक, पढ़ाई छोड़ने के आठ वर्ष बाद किसी तरह मैट्रिक
"पेशा" इंटरनेशनल मार्केटिंग कम्पनी में स्वतंत्र डिस्ट्रीब्यूटर
"शौक" साहित्य पढ़ना, कहानी, कविताएँ लिखना

साहित्यिक उपलब्धि :-
कुछ कविताएँ समाचार पत्रों में प्रकाशित

एक कहानी संग्रह "सूरज क्षितिज में" प्रकाशित

संपर्क सूत्र:-
मोबाइल न.-
7061821603, 9006248245
ईमेल-
surendraprar01@gmail. Com


श्री सुरेंद्र प्रजापति जी दस कविताएँ प्रस्तुत हैं :-


1).

एक सुंदर कविता

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गुलाब काँटो में

कैसे खिलता है?

सूर्य की प्रखर किरणो में

तपकर भी-

सुगन्ध कहाँ से लाता है?

कैसे बनती है

एक सुंदर कविता


पूछो इससे 

बंजर मिट्टी को तोड़ते

पसीने को जलाते

इंसान को पढ़ो

क्या तुम सुन रहे हो,

कि यह टूटते पत्थर का

रुदन है या

मिट्टी में सने

खून का चीत्कार


शब्दों में ढूंढो, 

जीवन की एक मुकम्मल तस्वीर

पढ़ो, संवेदना की गूँज

समर्पण का उच्छवास

सत्य का प्रकाश।



2).

फसल मुस्कुराया

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देखो, भूमिपुत्र...!

उषा की बेला में

उम्मीद की लौ से सिंचित

मिट्टी में दुबका बीज

धरती की नमी को सोखकर

आकाश में हँस रहा है

तुम्हारे थकान को

उर्वरक का ताप दिखाकर

ऊसर में बरस रहा है


ऐ खेत के देवता...

तुम्हारी वेदना, तुम्हारा सन्ताप

बहते श्वेद कण का प्रताप

शख्त मिट्टी में मिलकर

ओस की बूंदों में सनकर

जगा रहा है कंठ का प्यास

उपज में सोंधी मिठास


आस की भूख सता रही है 

कई-कई दिनों से निर्मित

आत्मा की फीकी मुस्कुराहट

जीवन का रहस्य बता रही है

कि कसैला स्वाद चखने वाला

चीख-हार कर, गम खानेवाला

बासमती धान का भात कैसे खाए

जिसपर संसद का कैमरा

फोकस करता है...

जिसपर शाही हुक्मरान

प्रबल राजनीत करता है...



3).

वह नियति को कोसता है

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किसान!

मिट्टी की खुश्बू से

पहचान लेता है

धरती की नमीं, 

उष्णता की मिठास

फसल की गरमी


कि कौन सा फसल उपयुक्त है

मिट्टी के किस रंग में

कौन सा उपज लगेगा


जैसे एक गर्भवती माँ

अपने पेट में पलते शिशु के

झिलसागर में तैरते

हलचल को महसूस करती है

अपने लोरियों में पिरोती है

नवजात शिशु की थपकी

मुस्कानों में अंकित करती है

ममत्व का चुम्बन


जैसे सता के तलबगार लोग

अपने षडयंत्रो के चाबुक से

थाह लेता है 

प्रजा का भूख

और तैयार करता है

नफरत के अग्नि पर

एक छलता हुआ सुख


किसान प्रकृति के प्रत्येक थपेड़ों से

निर्भयता के साथ सामना करता है

लड़ता है झंझा के तूफानों से

लेकिन सत्ता के गलियारे से

उसके खिलाफ किए गए फैसले का

सामना नहीं करता

सिर्फ नियति को कोसता रहता है



4).

जीवन का कर्ज

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संध्या समय में, जब घर लौटा

थकान, दर्द से विलाप करते

कुछ टुटे स्वप्नों, निराशाओं से हाथ मलते

निढाल ढोते निर्बल शरीर के साथ

अपनी साँसों को नियंत्रित कर रहा था


आसमान में पुरी चन्द्रमा

अपनी स्निग्ध शीतलता उड़ेल रही थी

मैं, उसके चंचल उजाले में बैठ

शीतल सुधामय वायु के साथ

अपने जख्मों को लगाना चाहा मलहम

ताकि प्राण लहरियों में फिर से

हरियाली आ जा सके


तभी, दरवाजे पर दस्तक हुआ

और मैं उस ओर थथम कर देखने लगा

उस महाजन को, जिसका मैं कर्जदार था

वह मुझे ऐसे घुर रहा था जैसे

उसके सबसे अनमोल धरोहर पर

मैं किसी घिनौने जीव की भांति

घात लगाए बैठा हूँ


मेरी आँखों में व्याप्त कातरता

उसके चेहरे पर उत्पन्न भर्त्सना में

थोड़ी सी मोहलत और याचना के

निर्बल, निःशब्द गुहार लगा रही थी

उसने तीखे शब्दों का प्रहार किया

मेरी विवशता थी, उसे स्वीकार किया

उसने अपशब्दों, कुशब्दों का चाबुक फेंका

मेरी दीनता थी, उसे मुक सुनता रहा

निर्लजों की तरह, पुरी हया को भुलकर


उसने कहा 'कामचोर'

और मेरा कठोर श्रम

संघर्षों में ईमानदार पसीना बहाते

लहूलुहान होकर बिखर गया


मेरी वफादारी, मेरी विनम्रता

मेरी ही आत्मा से सवाल करने लगा

उद्धार हो जाओ,

साहुकार से, बेचारी किस्मत से

जिंदगी भी एक साहुकार है

उसका भी कर्ज चुकाने होंगे, बन्धु !


5).

ग्राम-जीवन

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मैं मलिन बस्तियों में गया

सड़ांध और बदबुदार 

रोशनी को देखा

और जी भर कर रोया


वहाँ जीवन कैसे रचता है

अपना कौतुक?

उत्सुकता से ठहर कर 

जानना चाहा


वहाँ गांव का गंवईपन

निर्लिप्त उज्ज्डता

गंवार और भोले-भाले 

लोगों की आत्मीयता


कि वे रात्रि के पिछले प्रहर से ही

करते हैं, ईश्वर भजन

साझा करते हैं 

एक दूसरे के सुख-दुःख


मिट्टी की सुगंध लिए

वायु की आत्ममुग्धता में

अपने हृदय की व्यथा को धोया

और मीठे स्वप्न में

मैं नींद भर सोया।


6).

आँसू और मुस्कान

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जब-जब आँखों में आँसू

दिल मचल-मचल छलकता है,

पीड़ा का क्रंदन होता है

अंतर में टिस उभरता है।


किस दुःख का व्यापार हुआ

कौन रूठा, किया कौन प्रस्थान,

किस विरह में मोती टूटा

या हुआ, जीवन का अवसान।


मित्र, कुटुम्ब चकित होते

प्रश्नाकुल! दृष्टि पुछती है,

कोलाहल भीड़ स्तब्ध हुआ

हर व्यथा संशय में दिखती है।


स्वप्न बिखरा, उम्मीद पिटी

आशाएँ जीवन की अवरुद्ध,

उमंग मौन, उत्साह क्षीण

फफोले  जीवन के विरुद्ध।


बेसुध हृदय, नित्य रागरंग

मुस्कान तड़पकर सोती है,

चंचल, चपल और शोख किरण

आहें धिक-धिक कर रोती है।


मुस्कान सजाता मुखमंडल

आँखों में तेज चमकता है,

शृंगार छेड़ता तान मधुर

जीवन का दीप दमकता है।


आकाश में तारे सजते हैं

वीणा के तार श्रृंखलित होते,

आशा दीप जगमग करता

सृजन पल्लव विकसित होते।


लहरों में उन्माद सजाता

हर स्वप्न नीर सी बहती है,

मुस्कान आत्मा का वैभव

कण-कण में नूपुर सी बजती है।


आँसू है दुःख का वियोग-

विरह गीत, रति का विलाप,

मुस्कान सुख का आभूषण

चन्द्रकला, मन का मिलाप।



7).

कल्पने, धीरे-धीरे बोल

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कल्पने, धीरे-धीरे बोल।


बोल रही जो स्वप्न उबलकर

विह्वल दर्दीले स्वर में,

कुछ वैसी ही आग सोई है 

मेरे, लघु अंतर में।

इस पुण्य धरा पर देखो, 

खड़ा मृत्यु मुख खोल

           कल्पने धीरे-धीरे बोल


फल्गु का जल सुख गया,

धारा में पड़ी दरारें,

मन्दिर के देवता ऊंघ रहे हैं

मन्त्र करती चित्कारें।

शिखा सुलग रही है मन मे

जीवन रहा है डोल,

       कल्पने! धीरे-धीरे बोल।


श्री विष्णु का चरणचिह्न

अमृत से भय खाता,

अंधेरों का दीप जलाकर

वेदना का गीत गाता।

सुधामयी पवन में संक्रमण

विष रहा है घोल,

       कल्पने! धीरे-धीरे बोल।


आज प्रभात की किरनें  भयभीत

सुलग रहे हैं तारे,

फूलों से खुश्बू निर्वासित

झड़ते तप्त अँगारे।

मन की दीप्ति संभाल,

अब जीवन का बोलो मोल

       कल्पने! धीरे-धीरे बोल।


जल रही है रजनी दाह से

सुलग उठी चिंगारी,

जल रही चिताएं तट पर

जलता केशर क्यारी।

वीणा की लय में, काँप रहा 

है, सारा विश्व भूगोल

       कल्पने! धीरे-धीरे बोल।


भाग्य विचित्र खेल खेलता

छूट गए हैं अपने,

साध-साधना दहक रही है

टूट गए हैं सपने।

किसी दुष्ट दानव की ईर्ष्या

विष, रहा है खौल

       कल्पने! धीरे-धीरे बोल।


दया शांति का संदेश,

तेरा वसन जला जाता है,

मानव, मानव के स्वर में

प्रलय घिर-घिर आता है।

आंसुओं के आवेग से जग का

हृदय रहा है डोल

       कल्पने! धीरे-धीरे बोल।


लाखों मानव के आंखों से

झरने रोज बहेगें,

अंतर की पगडंडियां टूटी

शिखा की व्याल दहेंगे।

जीवन की घावों को कुरेदना

लगा पाप का बोल,

कल्पने! धीरे-धीरे बोल।


एक युक्ति है सुनो मित्रवर!

दर्द में तुम हंस लो,

मन की पीड़ा, विश्वास से जीतो

विपत्तियों में बस लो।

शृंगार करेगी व्यथा, कथा में

होंगे मीठे बोल,

       कल्पने! धीरे-धीरे बोल।



8).

आँख का स्वप्न

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आँख सिर्फ आँसू बहाने के लिए

कहाँ होती है ?

वह स्वप्न भी देखती है, चमकदार

उसके जबड़े होते हैं, शिल्पगत कारगर

हाथ जुड़ते हैं, दाता के सामने

तो बंदूक भी सम्हालते हैं

आतिशबाजियां करनेवाली अंगुलियाँ

स्वतंत्र शब्द भी रचती है

नसों में बहने वाली लहु

क्या जमीन को नहीं रंगती ?


सुमनों की चंचल सुरभि से

मुग्ध होने वाले मस्तिष्क में

क्या विचारों की चिंगारी नही उड़ती ?


दाता कहने वाला मुख

अपना भाग्य विधाता भी कहता है

स्थिर जल में कंकड़ डालो तुम

उसमें, तरंगे फुफकरता है 

लपकता है, लहलहाते आग की तरह

तिस पर मैं एक मनुष्य हूँ

क्रिया करता हूँ 

तो क्या प्रतिक्रिया करने का

अधिकार नहीं है मेरा ?

मुक्त बहती हवाएँ

अविरल बहती जलधारा

किसने रोका कभी


फिर तुम मुझे जंजीरों में बाँधोगे,

हरियाली को सींचती बाग

बगैर, रक्तरंजित होते रह सका है

किसी युग, किसी काल में


अपमान, घृणा और जिल्लत भरी

कसमसाती जिंदगी की आँखों मे झाँको

मुक्ति का बवंडर चलेगा वहाँ भी

और हिला देगा तुम्हारी

स्याह में डूबी सता को

और मैं अपने कविता की

एक-एक पंक्ति की 

प्रत्येक शब्द की तरह

अपने एक-एक कतरे खुन को

न्योछावर कर दूँगा


मैं दिनकर के प्रचंड ताप पर

और तपाउँगा अपनी महत्वाकांक्षा को

अपने जीवन की उर्बर मिट्टी पर

मानव नद के निर्मल तटों पर

हरियाली का मौसम

जल के लाल कणों में ही सींचेग्गे



9).

जीवन जगमग कर दे

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ज्ञान प्रकाश का अमृत देकर

जीवन जगमग कर दे,

वीणा की तारों को कसकर, माँ

दे वरदान! सरल कर दे।


बसंत के अनुनय प्यार भरे हैं

सुमन दल के अनुराग बहे हैं,

नव पल्लव के कोमल नेह में

शब्दों के नवीन श्रृंगार बहे हैं।


है अभिलाषा माँ! पगडंडी का

गान अचल कर दे,

ज्ञान प्रकाश का अमृत देकर

जीवन जगमग कर दे।


घोर अंधेरे में, चंचल स्वर चहका

ग्राम-प्रवासिनी, प्रभात कर दहका,

भावो में घुलता श्रद्धा भक्ति का

निश्छल बिनोद, कलरव में महका।


कविता में माँ प्यार लिखूँगा

मान धवल कर दे,

ज्ञान प्रकाश का अमृत देकर

जीवन जगमग कर दे।


सुर-साधिका, मधुर भाषिणी

दो वर प्रखर, माँ वर दायिनी,

मेरे काव्य में, तेरी आराधना

स्वर दो शिखा का, यही कामना।


तेरे स्वर्ण द्वार पर याचक आया

झंकार प्रबल कर दे,

ज्ञान प्रकाश का अमृत देकर

जीवन जगमग कर दे।


10).

मैं कहीं भी होता हुँ

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मैं कभी भी, कहीं भी होता हूँ   

जिम्मेवारियों के साथ होता हूँ         

बच्चों की जरूरतें, गृहस्थी का बोझ,  

चाहे जहाँ भी होता हूँ,      

उत्तरदायित्वों के साथ होता हूँ।    


पसीना बहाते, खेतों में।                  

गीत गाते, खलिहानों में                    

सरिता के तट पर , 

या उदासी लिपे, रेगिस्तानों में।


आश्चर्य ये कि...वहां--

जीवन के तमाम लिपि के वावजूद 

कविता  नहीं  होती जैसे---

राम राज्याभिषेक के समय, सीता नहीं होती।


हाँ उस वक्त...

जब, मैं भी नहीं होता हूँ, वहाँ पर 

कहीं भी नहीं, 

न घर-न बाहर, गांव, न नगर 

जब मैं कविता  लिखता हूँ, 


एक एक शब्दों से लड़ता, झगड़ता,  

जीवन के अर्थ ढूंढता  

कलाबाजियां करता, कभी पिटता 

मैं यदा, कदा मुस्कुरा पड़ता हूँ     


जब मैं कविता के शूक्ष्म तारों को छूता  

कहीं और ही होता हूँ 

अक्षरों की गलबाहीं करता, 

अभ्यस्त होता हूँ....


एक आदत की फितरत में दम  भरता

मैं जाना चाहता हूँ...

एक ही समय में अंतरिक्ष तक, विचित्र ग्रहों पर 

सागर की अनन्त गहराइयो में 

ज्वालामुखी के वृहत खाइयों में  


फिर मैं अपने में लौटना हूँ 

एक साथ सबमें लौटता हूँ 

जैसे लाल, नीले ग्रहों से छूकर लौटती है, 

जीवन की तरंग, 

कई कई सम्भावनाओं के संग........

                                             ©सुरेन्द्र प्रजापति

                                        संपादक

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com


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#सुरेंद्रप्रजापति #मसि_कागद_छुयो_नहिं_सम्मान




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