कोरोजीवी कविता और प्रेम : काव्य में राग के क्षेत्र का विस्तृत फलक - गोलेन्द्र पटेल
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कोरोजयी बिंबात्मक प्रतीक
काव्य के अनेक तत्व होते हैं। उन्हीं तत्व में से बिम्ब और प्रतीक होते हैं। ये कविता के अनिवार्य अंग हैं। यदि भारतीय आलोचना ने अलंकार को महत्त्व दिया गया है, तो पाश्चात्य आलोचना ने बिम्ब को। बिंब और अलंकार एक दूसरे से गूँथे हुए होते हैं। अलंकार कविता में भाव और वस्तु से जुड़ा होता है। मतलब, अलंकार काव्य में कला-पक्ष से संबंधित होता है। बिंब अलंकार से गहरे जुड़े होने की वजह से काव्य में विषयवस्तु और कला पक्ष से संबंधित होता है। बिंब शब्द मानस-प्रतिमा का पर्याय है। जीवन और जगत की अनुभूति हमें बाह्य संवेदनों से प्राप्त विभिन्न बिंबों के रूप में ही होती है। बिंब को समझने के लिए अलंकार को समझना होगा। आचार्य दण्डी ने अलंकार के संदर्भ में कहा - "काव्य शोभा कारण् धर्मान अलंकारन् प्रचक्षते।" (आचार्य दण्डी : काव्यादर्श, अध्याय-2, कारिका-1) और हिंदी के आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि 'भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहाय्य होने वाली युक्ति अलंकार है।' व्यक्ति-मानस एक ऐसा फलक है। जहाँ बाह्य परिवेश के सन्नीकर्ष से निरंतर बिम्बों को ग्रहण किया जाता है। हमारे चिंतन के मूल में बिम्ब निहित होते हैं। बिम्ब का सौंदर्य सार्थक प्रतीक से होता है। बिंब और प्रतीक एक दूसरे के पूरक होते हैं। भ्रम वश कभी-कभी लोग इन्हें एक भी मान लेते हैं लेकिन दोनों में रूप व प्रभाव की दृष्टि से भेद है। ये दोनों काव्याभिव्यक्ति के साधन हैं। दोनों की प्रस्तुति मनुष्य की कल्पना से होती है। 'प्रतीक' शब्द संस्कृत के 'प्रतिअंच' शब्द से उत्पन्न हुआ है। जिसका मतलब है -"एक वस्तु के लिए किसी अन्य वस्तु की स्थापना।" (मृदुल जोशी : नयी कविता में बिंब विधान, पृष्ठ-85) दूसरा विचार है कि 'प्रति' में 'इक' प्रत्यय के युग्म से 'प्रतीक' शब्द उत्पन्न हुआ है। खैर, हमें इसकी उत्पत्ति और परिभाषा में नहीं पड़ना है। प्रतीक का व्युत्पत्ति परक अर्थ है वह वस्तु जो किसी अन्य वस्तु का बोध कराये, अर्थात् "प्रतीयते प्रत्येति का इति प्रतीक।" प्रतीक बिंब का सबसे निकटवर्ती शब्द है। प्रत्येक प्रतीक अपने मूल में बिंब होता है लेकिन प्रत्येक बिंब प्रतीक नहीं। अतीन्द्रिय यथार्थ को उद्बुद्ध करने में प्रतीक जितना सहायक हो सकता है, उतना अन्य माध्यम नहीं। मोरिस वेट्ज के अनुसार, "जब कवि किसी बिंब के विशेष अर्थ को प्रकट करता हुआ या उस अर्थ को भाव के लिए व्याख्यायित करता हुआ उस बिंब पर विशेष बल देता है, तब इस प्रमुखता के कारण ही वह प्रतीक बन जाता है।" (डॉ. धर्मशीला भुवालका : काव्य बिंब और कामायनी की बिंब योजना, पृ-32) बिंब और प्रतीक के इस संबंध को रेखांकित करते हुए डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है ’’प्रतीक एक प्रकार से रूढ़ उपमान का ही दूसरा नाम है।’’ (डॉ. नगेन्द्र : आस्था के चरण, पृ-132) अर्थात् उपमान जब किसी पदार्थ विशेष के लिए रुढ़ हो जाता है, तब वह प्रतीक बन जाता है। प्रतीक के विषय में कोरोजयी कवियों ने गंभीरता से विचार किया है। इनके प्रतीक अनेकार्थ सूचक हैं।
कल्पना शक्ति से बिंब का निमार्ण होता है और बिंब से प्रतीक का। कोरोजीवी कल्पना में यथार्थ प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष शामिल है। कोरोजीवी कविता में प्रतीक के आगामी सभी भेदों को देखा जा सकता है - भावोत्प्रेरक प्रतीक, विचारोत्पादक प्रतीक , वैयक्तिक प्रतीक , परम्परागत प्रतीक , परम्परामुक्त प्रतीक , भावपरक प्रतीक , व्याख्यात्मक प्रतीक , प्रतीकपरक प्रतीक एवं अन्य। कोरोजयी कवियों ने अपनी कविता में विविध प्रकार के प्रतीकों का उपयोग किया है। उनके काव्य में आए हुए प्रतीकों का संबंध प्रकृति, मनोविज्ञान, समाज, राजनीति, धर्म, दर्शन, पुराण व मिथक आदि विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ जाता है। लेकिन अपनी नवीनता के साथ। कोरोजीवी कविता में प्रकृति से संबंधित प्रतीकों की संख्या सर्वाधिक है। पेड़, पौधे, घास, पशु, पंक्षी, नदी, द्वीप, सागर, तट, पर्वत, पहाड़, पठार, घर, द्वार, आँगन, डगर, पगडंडी, सड़क, खेत, रेत, आकाश, सूर्य, धूप, धूल,फल, फूल, तारे, बादल, इंद्रधनुष, शिशिर, शिशु, धूलिकण, नाव, तिनका, बूँद, किरणें, भोर, रात, दिन, घाट व पाट आदि प्रकृती से संबंधित प्रतीकों का प्रयोग अलग-अलग संदर्भों में हुआ है। ये सभी प्रतीक लोक के रंग में रंगे हुए हैं और मानवीय महक में सने हुए हैं। दुनिया के काव्य में को देखा जाए, तो नदी और सागर दो सबसे बड़े प्रतीक के रूप में प्रयोग हुए हैं। इन्हीं प्रतीकों का सबसे अधिक प्रयोग हुआ है। आप उदाहरण के रूप में सागर को लें। कोरोजयी कवियों ने सागर को अनेक प्रतीकाशयों का सागर बना दिया है। सागर में धीरता है, शांति है। वह अनेक रत्नों की खान है। सागर धमनियों की आग है, लहू का स्पंदित राज है, साथ ही मेघ, ज्वार, निदाघ, रावण, कीट, गरुड़ व राम भी है। कोरोजीवी कविता में धूलिकण एवं तिनका लघुता का तथा भोर व सवेरा आशा और उल्लास के प्रतीक हैं। मोर, कोइलिया ,काक, फुलसुंघनी से लेकर कचकचिया तक में उम्मीद का उजास है। अर्थात् चिड़ियों में चेतना की चमक है। ये मनुष्य के स्वप्नों, आशाओं एवं आदर्शों के प्रतीक हैं। क्रौंच तो आदिकाव्य से लेकर आज तक की कविता में प्रेम की सृजनात्मकता, सर्जक, कलाकार एवं प्रेमियों का प्रतीक है। कोरोजीवी कविता में गुलमोहर, अड़उल, गुड़हल, गुलाब, गेंदा, टेसू, बबलू, पंचमुख, कचनार, पलास, चमेली, चम्पा, जूही, शेफाली, मालती व धूल के फूल आदि पुष्पों की प्रतीकात्मक स्थिति देखी जा सकती है। इन प्रतीकों के माध्यम से जीवन-सत्य को स्वर दिया गया है। अतः कोरोजीवी कविता प्रतीक विधान की दृष्टि से सफल काव्य है।
प्रतीक काव्य अभिव्यंजना का सशक्त साधन है। परिस्थिति के अनुसार प्रतीक के अर्थ बदल जाते हैं। परंतु प्रतीकों का निर्माण कवि प्रतिभा का मूलधार है। काव्य में प्रतीकों के प्रयोग का इतना अधिक महत्त्व है कि इसके आधार पर कविता की श्रेष्ठता का मूल्यांकन किया जाता है। लेकिन याद रहे कि सभी प्रतीक कविता नहीं होते हैं। इस संदर्भ मुझे डाॅ. रामस्वरूप चतुर्वेदी का कथन स्मरण हो रहा है– ’कविता के लिए शाब्दिक प्रतीक होना एक आधारभूत शर्त है पर हर शाब्दिक प्रतीक कविता नहीं होता।’ कोरोजीवी कविता के प्रतीकों में एक तरह की पीड़ा-प्रेषणीयता की प्रतिध्वनि है, प्रतिबिम्ब है। मानवीय संवेदनाओं के सभी पक्षों को छूने की क्षमता है। इनके ऐन्द्रिय-प्रतीकों में प्रकृति के तमाम बिंब प्रतिबिंबित होते हैं। रूप, रंग, रव, गंध, स्पर्श, स्वाद, रस और राग से संबंधित प्रतीकों का कोरोजयी कवियों ने संश्लिष्ट प्रयोग किया है। प्रतीक-संवेदना की दृष्टि से कोरोजीवी कविता अद्भुत है और अद्वितीय है।
©गोलेन्द्र पटेल
कवि : गोलेन्द्र पटेल
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