रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार से सम्मानित कवि गोलेन्द्र पटेल की 30 कविताएँ :-
1).
जँगरैत स्त्रियाँ
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जँगरैत स्त्रियाँ
भोरहरी में उठती हैं
और तब तक खटती रहती हैं
जब तक कि चेहरे पर बारह नहीं बज जाता
जैसे ही बजता है बारह
बीत चुकी होती है
आधी रात
नींद के विरुद्ध
आँखों से टपकती हैं बूँदें
बहता है हरहराकर आँसू
और उनकी बेचैनी
स्वप्न में बड़बड़ाती है
दुःख की बात
उन्हें लगता है
कि सूरज आ चुका है
चूल्हे के पास
उनका चाँद डूब रहा है
उदास
उनकी ऋतुएँ
जाड़ा-गरमी-बरसात
उनके साथ
उनकी तरह रोती हैं
वे चैन से नहीं सोती हैं किसी भी दिन
उन्हें डर है कि कहीं उन्हें उजाले में शौच न लग जाय
कहीं उनकी पड़ोसी सखियाँ
उन्हें छोड़कर चली न जायँ
खेतों की ओर
जहाँ वे अक्सर अपना दुख-सुख साझा करती हैं
जब वे लौटती हैं चूल्हानी
तो पहले पकाती हैं भात
फिर सब्जी
फिर सेंकती हैं रोटियाँ
और याद करती हैं
बचपन के खेल
इतना पानी घघो रानी
चोटियाँ और गोटियाँ
आह! आज है
उनकी आँखों में सागर से अधिक पानी!
घर के सभी देवगण
थाली लेकर उपस्थित हैं
वे परोस रही हैं पकवान अपने भगवान को
जो अक्सर उन्हें जँगरचोर की संज्ञा देते हैं
और कहते हैं कि "अबला जीवन हाय,
तुम्हारी यही कहानी,
आंचल में है दूध
और आंखों में पानी।"
वे अपनी भूख को काबू करने की कला में सिद्धहस्त हैं
इसका गवाह हैं
वे जली हुई रोटियां और कड़ाही के मसाले
जिन्हें वे अंत में खाती हैं
पानी के सहारे
पानी की पहचान दरअसल उनकी पीड़ा की पहचान है
जिसे गुप्त जी ने महसूस किया था कभी
और कुछ अन्य लोगों ने भी
चौका बरतन करना इतना आसान नहीं है
जितना आसान है बाहर जाना
और कमाना
अरे श्रेष्ठ देवताओ!
एक दिन घरेलू कार्य करके तो देखो
तुम्हें तुम्हारी नानी न याद आ गयी
तो फिर कहना कि
तुम्हारी जोरू जँगरैत नहीं है!
■
2).
गोड़िन
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कुओं की भरकुंडी प्यास रही हैं
चोर खोल ले जा रहे हैं चपाकल
नलकूपों को नगद चाहिए पैसे
गोड़िन का गोड़ भारी है
गला सूख रहा है!
निःशुल्क है नदी का पानी
भरसाँय झोंक रही है भूख
आग पी रही हैं आँखें
कउरनी कउर रही है कविता
जो दाने ममत्व पाना चाहते हैं
उछल उछल कर जा रहे हैं आँचल में
और जो उचक उचक कर देख रहे हैं माथे पर पसीना
वे गिर रहे हैं कर्ज़ की कड़ाही में
मेरा मक्का मटर भुन गया है
चना चावल बाकी है!
कोयरी टोला में कोई टेघर गया है
अर्थी का पाथेय -
लाई भून रही हैं
जिसे छिड़कने हैं अंतिम सफ़र में
भूख के विरुद्ध!
सभी दाना भुनाने वाले जा रहे हैं कोयरीटोला
आदमी जवान है
डेढ़ बरस और तीन बरस की बच्चियाँ देह से लिपट कर रो रही हैं
चीख रही हैं चिल्ला रही हैं कह रही हैं उठा पापा जागा पापा.....
उसकी औरत को एक वर्ष पहले ही डँस लिया था साँप
हे देवी-देवताओ!
देहात का देहांत दृश्य देख दिल दहल गया
आह विधवा व्यथा!
गोड़ भी छोड़ गया है गर्भ में प्यार की निशानी
गोड़िन के नयन से निकली है गंगा
प्यासी पथराई उम्मीदों के विरुद्ध
इस कोरोना समय में!
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3).
थ्रेसर
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थ्रेसर में कटा मजदूर का दायाँ हाथ
देखकर
ट्रैक्टर का मालिक मौन है
और अन्यात्मा दुखी
उसके साथियों की संवेदना समझा रही है
किसान को
कि रक्त तो भूसा सोख गया है
किंतु गेहूँ में हड्डियों के बुरादे और माँस के लोथड़े
साफ दिखाई दे रहे हैं
कराहता हुआ मन कुछ कहे
तो बुरा मत मानना
बातों के बोझ से दबा दिमाग
बोलता है / और बोल रहा है
न तर्क , न तत्थ
सिर्फ भावना है
दो के संवादों के बीच का सेतु
सत्य के सागर में
नौकाविहार करना कठिन है
किंतु हम कर रहे हैं
थ्रेसर पर पुनः चढ़ कर -
बुजुर्ग कहते हैं
कि दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है
तो फिर कुछ लोग रोटी से खेलते क्यों हैं
क्या उनके नाम भी रोटी पर लिखे होते हैं
जो हलक में उतरने से पहले ही छिन लेते हैं
खेलने के लिए
बताओ न दिल्ली के दादा
गेहूँ की कटाई कब दोगे?
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4).
डोमिन
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सवत्स सत्य सुनो , डोम में छुपा ओम
शव के साथ शुरू--जिन्दगी , शव के साथ खत्म होती है!
संवेदनाओं के श्मशान पर चेतना की चिता को
इंद्र भी बुझा नहीं सके बरसात में
फिर मर्दमेघ मड़रा रहे हैं क्यों?
शिव! सुबह से शाम तक शवाग्नि सोख रहे हैं सूर्य
चिलम खींच रहे हैं डोम , व्योम पी रहे हैं धूम
चिता की अधजली लकड़ी , चूल्हे में जल रही है
डकची में पक रहा है डोड़हा
ड्योढ़ी पर बैठी डोमिन , डिबरी जला बुन रही है चावल से कंकड़ व कीड़ें
भूखे बच्चे सो रहे हैं
कुत्ते अँधेरे में रो रहे हैं
जगी बेटी पूछ रही है
पिता की पगड़ी से क्यों आ रही है गंध मुर्दों की
माँ! उत्तर देती है
तुम्हारे पिता मसान से आ रहे हैं
माँ! हमारे पिता को सब डोम राजा कहते हैं
तो फिर हम क्यों सोते हैं भूखे
डोमिन उत्तर देती है-
ऐसे प्रश्न से अक्सर आँखें डबडबा जाती हैं
और अबोध बच्चियाँ ढूँढ लेती हैं उत्तर
चमकती मौन मोतियों में!
कभी कभी डोम के दरवाज़े पर स्वतः बजता है डमरू
लोकतंत्र की डगर से आते हैं देवगण
मोक्ष देने वाले को मोक्ष देने
उनका स्वार्थ जब पहुँचता है पास
तब परमार्थ में परिवर्तित हो जाता है
राजा हरिश्चंद्र बन जाते हैं देवगण
जिसे देख कर गंगा गाने लगती है
रोहित की माता तारा का करुणगीत
और अनेक अनुश्रुतियाँ दोहराती हैं
दुधमुंही के दिन खदकते चावल की बुदबुदाहटें
अंत में डोमिन कहती है
अब सो जा बिटिया सवेरा हो रहा है!
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5).
चुड़िहारिन
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बूढ़ी पत्तियाँ हर वर्ष
नयी पत्तियों को अपनी जगह देती हैं सहर्ष
आकाश का शासक शिकारी है
टहनियों पर चुपचाप बैठी हैं चिड़ियाँ
चुड़िहारिन चिल्ला रही है
संसद की सड़क पर
चूड़ी ले लो....!
चुचकी चूचुक चूस रहा है शिशु
खोपड़ी का खून पी रही हैं जूँ
चमचमाती धूप चमड़ी जला रही है
चौंधियाई आँखें अचकचा रही हैं
टोकरी में जीवन का बोझ ढो रही हैं
लोकतंत्र की लोकल लड़की....!
सफ़र अभी शेष है
अँतड़ी में आँधी चल रही है
सूरज ढल रहा है , रात्रि आ रही है
खटिया के खटमल जाग रहे हैं
विश्राम कहाँ करें कर्षिता -
हे बाज़! चहक कर पूछ रही हैं चुप्पी चिड़ियाँ
उत्तर दो!!
■
6).
मजदूर थककर हो गए हैं चूर
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मैं अपनी एक लुंगी पहनता हूँ
और एक ओढ़ता हूँ
और उसी से बाँधता हूँ पगड़ी
जब उससे टपकता है
श्रम का शहद
और गमकती है
जिंदगी की गंध
तब सब कहते हैं
कि रब ने बनाया है मुझे मजदूरों का कवि
और मेरी कविता प्रस्तुत करती है
शोषितों की छवि
जिसमें उन्हें हँसती हुई दिखाई देती है
हाशिए पर खड़ी नयी पीढ़ी
अचानक उनकी दृष्टि की सृष्टि कंपित होती है
और दीवार से फिसलने लगती है सीढ़ी
फिसलने वाले गाने लगते हैं
कि हर बार फिसलने पर सहारा देती है
शब्द की सत्ता
इस बार भी देगी
निर्भयता से बाँस की सड़ी सीढ़ी पर
कोई गिट्टी की भरी तगाड़ी
तो कोई बालू की झउआ लेकर चढ़ रहा है
कोई लोक रहा है
तो कोई नीचे से ऊपर फेंक रहा है ईंट
कोई मिला रहा है अढ़ाई एक कऽ मसाला
तो कोई करनी चला रहा है तेजी से
कोई बतिया रहा है साहुल-सूत के भाषा में
तो कोई खिसिया रहा है अपनी खिंचाई होते देखकर
ढलाई हो रही है ताबड़तोड़
जीतोड़ काम करने के बाद एक मजदूर दुःख की गठरी खोल रहा है
उसके चेहरे का रंग बोल रहा है
कि मजदूरी कम देने के लिए कमरतोड़ दाँव लगा रहे हैं साहब
सारे मजदूर थककर हो गए हैं चूर
हिसाब हो रहा है
पगड़ी में पोंछकर आँसू थाम रहे हैं पैसे
ऐसे लोगों का कैसे चलेता है परिवार
जो रोज़ कुआँ खोदकर पानी पीते हैं
क्या बताऊँ कि उनके बच्चे अक्सर भूखे सोते हैं
तो साहब दे देंगे पैसे?
■
7).
जोंक
रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान ;
तब रक्त चूसती हैं जोंक!
चूहे फसल नहीं चरते
फसल चरते हैं
साँड और नीलगाय.....
चूहे तो बस संग्रह करते हैं
गहरे गोदामीय बिल में!
टिड्डे पत्तियों के साथ
पुरुषार्थ को चाट जाते हैं
आपस में युद्ध कर
काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!
प्यासी धूप
पसीना पीती है खेत में
जोंक की भाँति!
अंत में अक्सर ही
कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं
सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!
इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान
सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!
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8).
उम्मीद की उपज
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उठो वत्स!
भोर से ही
जिंदगी का बोझ ढोना
किसान होने की पहली शर्त है
धान उगा
प्राण उगा
मुस्कान उगी
पहचान उगी
और उग रही
उम्मीद की किरण
सुबह सुबह
हमारे छोटे हो रहे
खेत से….!
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9).
बारिश के मौसम में ओस नहीं आँसू गिरते हैं
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एक किसान
बारिश में
बाएं हाथ में छाता थामे
दाएं में लाठी
मौन जा रहा था
मेंड़ पर
मेंड़ बिछलहर थी
लड़खड़ाते-संभलते...
अंततः गिरते ही देखा एक शब्द
घास पर पड़ा है
उसने उठाया
और पीछे खड़े कवि को दे दिया
कवि ने शब्द लेकर कविता दी
और उसने कविता को
एक आलोचक को थमा दिया
आलोचक ने उसे कहानी कहकर
पुनः किसान के पास पहुँचा दिया
उसने उस कहानी को एक आचार्य को दिया
आचार्य ने निबंध कहकर वापस लौटा दिया
अंत में उसने उस निबंध को एक नेता को दिया
नेता ने भाषण समझ कर जनता के बीच दिया
जनता रो रही है
किसान समझ गया
ये आकाश से गिरे
पूर्वजों के आँसू हैं
जो कभी इसी मेंड़ पर भूख से तड़प कर मरे हैं
बारिश के मौसम में ओस नहीं
आंसू गिरते हैं!
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10).
गड़ेरिया
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१)
एक गड़ेरिये के
इशारे पर
खेत की फ़सलें
चर रही हैं
भेड़ें
भेड़ों के साथ
मेंड़ पर
वह भयभीत है
पर उसकी आँखें खुली ताक रही हैं
दूर
बहुत दूर
दिल्ली की ओर
२)
घर पर बैठे
खेतिहर के मन में
एक ही प्रश्न है
इस बार क्या होगा?
हर वर्ष
मेरी मचान उड़ जाती है
आँधियों में
बिजूकों का पता नहीं चलता
और
मेरे हिस्से का हर्ष
नहीं रहता
मेरे हृदय में
क्या
इसलिए कि मैं हलधर हूँ
३)
भेड़ हाँकना आसान नहीं है
हलधर
हीरे हिर्य होरना
बाँ..बाँ..बायें...दायें
चिल्लाते क्यों हो
तुम्हारे नाधे
बैलें
समझदार हैं
४)
मेरी भेड़ें भूल जाती हैं
अपनी राह
मैं हाँक रहा हूँ
सही दिशा में
मुझे चलने दो
गुरु
मैं गड़ेरिया हूँ
भारत का !
■
11).
रोपनहारिन माँ
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१).
जब आकाश से गिरते हैं
पूर्वजों के संचित आँसू
तब खेतिहर करते हैं मजबूत
अपनी मेंड़
मेंड़ तो मजबूत नहीं हुई
पर फरसी-फरसा लाठी-लाठा झोटी-झोटा मारी-मारा उठा-पटक....
अंत में थाने!
२).
रोपनी के समय
रोटी के लिए
संडा जब कबारते हैं मजदूर
तब रक्त चूसती हैं - जोंक
दोहरे दोहित दलित दुबली पतली देह थककर
विश्राम जब करती हैं बिस्तरे पर
तब शेष शोणित - खटमल
३).
मेंड़ पर सोए शिशु को च्यूँटे काट रहे हैं
चीख सुन रहे हैं मालिक मौन
उन्हें क्या फर्क पड़ता है कि वह कौन है?
मजदूरनी माँ कहती है शांत रह लल्ला
अभी एक पैड़ा और बचा है
रोप लेने दे
बच्चे के पास पहुंचा तो देखा
एक दोडहा , दो तीन बिच्छुएँ और एक केकड़ा थोड़ी दूरी पर हैं
पैर में काट लिया है बर्र
मैं शिशु को घिंनाते-घिंनाते उठाया
क्योंकि वह अपने मल-मूत्र से तरबतर था
तुरंत बर्रों के मंत्रों का पाठ किया
फिर अपनी चाची को बुलाया -
बिच्छू झाड़ी-फूँकी
चमरौटी से बुलाया बुढउ दादा को
जो दोडहा झाड़े-फूँके
वे हर तरह के किरा झारते हैं
जैसे - साँप, करइत, गूँगी व दोडहा इत्यादि
बिच्छू-दोडहा तो तसल्ली के लिए झाड़ा गया
गाँव में सभी को पता है कि मैं कुछ मंत्र जानता हूँ
जैसे - बर्र, भभतुआ, थनइल, नज़र व रेघनी इत्यादि
सीखा तो बिच्छू-साँप का भी था
पर उसे तभी भूल गया जब विज्ञान का विद्यार्थी था
जो स्मृतियों में जीवित हैं उसे भी भूल गया हूँ
ऐसा कहता हूँ सभी से
मंत्रों से आँखें कचकचाई हैं
होठों की हँसी हृदय में हर्ष से हहराई है
फूँकने पर केश लहराएँ हैं
कर्षित कली की मेंड़ पर
आज मुझे लग रहा है मंत्र सीखना सार्थक रहा
हे समय!
इस महामारी में मंत्र से मेडिकल तक की यात्रा जारी है
पर, यह यात्रा कब रुकेगी?
■
12).
लकड़हारिन
(बचपन से बुढ़ापे तक बाँस)
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तवा तटस्थ है चूल्हा उदास
पटरियों पर बिखर गया है भात
कूड़ादान में रोती है रोटी
भूख नोचती है आँत
पेट ताक रहा है गैर का पैर
खैर जनतंत्र के जंगल में
एक लड़की बिन रही है लकड़ी
जहाँ अक्सर भूखे होते हैं
हिंसक और खूँखार जानवर
यहाँ तक कि राष्ट्रीय पशु बाघ भी
हवा तेज चलती है
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
जिसमें छुपे होते हैं साँप बिच्छू गोजर
जरा सी खड़खड़ाहट से काँप जाती है रूह
हाथ से जब-जब उठाती है वह लड़की लकड़ी
मैं डर जाता हूँ...!
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13).
मूर्तिकारिन
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राजमंदिरों के महात्माओं
मौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ
समय की छेनी-हथौड़ी से
स्वयं को गढ़ रही हूँ
चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी!
सूरज को लगा है गरहन
लालटेनों के तेल खत्म हो गए हैं
चारों ओर अंधेरा है
कहर रहे हैं हर शहर
समुद्र की तूफानी हवा आ गई है गाँव
दीये बुझ रहे हैं तेजी से
मणि निगल रहे हैं साँप
और आम चीख चली -
दिल्ली!
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14).
श्रम का स्वाद
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गाँव से शहर के गोदाम में गेहूँ?
गरीबों के पक्ष में बोलने वाला गेहूँ
एक दिन गोदाम से कहा
ऐसा क्यों होता है
कि अक्सर अकेले में अनाज
सम्पन्न से पूछता है
जो तुम खा रहे हो
क्या तुम्हें पता है
कि वह किस ज़मीन की उपज है
उसमें किसके श्रम का स्वाद है
इतनी ख़ुशबू कहाँ से आई?
तुम हो कि
ठूँसे जा रहे हो रोटी
निःशब्द!
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15).
उर्वी की ऊर्जा
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उम्मीद का उत्सव है
उक्ति-युक्ति उछल-कूद रही है
उपज के ऊपर
उर है उर्वर
घास के पास बैठी ऊढ़ा उठ कर
ऊन बुन रही है
उमंग चुह रही है ऊख
ओस बटोर रही है उषा
उल्का गिरती है
उत्तर में
अंदर से बाहर आता है अक्षर
ऊसर में
स्वर उगाने
उद्भावना उड़ती है हवा में
उर्वी की ऊर्जा
उपेक्षित की भरती है उदर
उद्देश्य है साफ
ऊष्मा देती है उपहार में उजाला
अंधेरे से है उम्मीद।
■
16).
ऊख
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(१)
प्रजा को
प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से
रस नहीं रक्त निकलता है साहब!
रस तो
हड्डियों को तोड़ने
नसों को निचोड़ने से
प्राप्त होता है
(२)
बार बार कई बार
बंजर को जोतने-कोड़ने से
ज़मीन हो जाती है उर्वर
मिट्टी में धँसी जड़ें
श्रम की गंध सोखती हैं
खेत में
उम्मीदें उपजाती हैं ऊख
(३)
कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान
तब खाँड़ खाती है दुनिया
और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़!
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17).
ईर्ष्या की खेती
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मिट्टी की मिठास को सोख
जिद की ज़मीन पर
उगी है
इच्छाओं की ईख
खेत में
चुपचाप चेफा छिल रही है
चरित्र
और चुह रही है
ईर्ष्या
छिलके पर
मक्खियाँ भिनभिना रही हैं
और द्वेष देख रहा है
मचान से दूर
बहुत दूर
चरती हुई निंदा की नीलगाय !
■
18).
किसान है क्रोध
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निंदा की नज़र
तेज है
इच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैं
बाज़ार की मक्खियाँ
अभिमान की आवाज़ है
एक दिन स्पर्द्धा के साथ
चरित्र चखती है
इमली और इमरती का स्वाद
द्वेष की दुकान पर
और घृणा के घड़े से पीती है पानी
गर्व के गिलास में
ईर्ष्या अपने
इब्न के लिए लेकर खड़ी है
राजनीति का रस
प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर
कुढ़न की खेती का
किसान है क्रोध !
■
19).
जवानी का जंग
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बुरे समय में
जिंदगी का कोई पृष्ठ खोल कर
उँघते उँघते पढ़ना
स्वप्न में
जागते रहना है
शासक के शान में
सुबह से शाम तक
संसदीय सड़क पर सांत्वना का सूखा सागौन सिंचना
वन में
राजनीति का रोना है
अंधेरे में
जुगनूँ की देह ढोती है रौशनी
जानने और पहचानने के बीच बँधी रस्सी पर
नयन की नायिका का नींदी नृत्य करना
नाटक की नाव का
नदी से
किनारे लगना है
फोकस में
घड़ी की सूई सुख-दुख पर जाती है बारबार
जिद्दी जीत जाता है
रण में
जवानी का जंग
समस्या के सरहद पर खड़े सिपाही
समर में
लड़ना चाहते हैं
पर, सेनापति के आदेश पर देखते रहते हैं
सफ़र में
उम्र का उतार-चढ़ाव
दूरबीन वही है
दृश्य बदल रहा है
किले की काई संकेत दे रही है
कि शहंशाह के कुल का पतन निश्चित है
दीवारे ढहेंगी
दरबार खाली करो
दिल्ली दूह रही है
बिसुकी गाय
दोपहर में
प्रजा का देवता श्रीकृष्ण नाराज हैं
कवि की भाँति!
■
20).
सफ़र
सरसराहट संसद तक बिन विश्राम सफ़र करेगी
_______________________________________
तिर्रियाँ पकड़ रही हैं
गाँव की कच्ची उम्र
तितलियों के पीछे दौड़ रही है
पकड़ने की इच्छा
अबोध बच्चियों की!
बच्चें काँचे खेल रहे हैं
सामने वृद्ध नीम की डाल पर बैठी है
मायूसी और मौन
मादा नीलकंठ बहुत दिन बाद दिखी है
दो रोज़ पहले मैना दिखी थी इसी डाल पर उदास
और इसी डाल पर अक्सर बैठती हैं
चुप्पी चिड़ियाँ!
कोयल कूक रही है
शांत पत्तियाँ सुन रही हैं
सुबह की सरसराहट व शाम की चहचहाहट चीख हैं
क्रमशः हवा और पाखी की
चहचहाहट चार कोस तक जाएगी
फिर टकराएगी चट्टानों और पर्वतों से
फिर जाएगी ; चौराहों पर कुछ क्षण रुक
चलती चली जाएगी सड़क धर
सरसराहट संसद तक बिन विश्राम किए!
■
21).
चिहुँकती चिट्ठी
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बर्फ़ की कोहरिया साड़ी
ठंड की देह ढंक
लहरा रही है लहरों-सी
स्मृतियों की डार पर
हिमालय की हवा
नदी में चलती नाव का घाव है
सहलाती हुई
होंठ चूमती है चुपचाप
क्षितिज
वासना के वैश्विक वृक्ष पर
वसंत का वस्त्र
हटाता हुआ देखता है
बात-बात में
चेतन से निकलती है
चेतना की भाप
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
रूह काँपने लगती है
खड़खड़ाहट खत रचती है
सूर्योदयी सरसराहट के नाम
समुद्री तट पर
एक सफेद चिड़िया उड़ान भरी है
संसद की ओर
गिद्ध-चील ऊपर ही
छिनना चाहते हैं
ख़ून का खत
मंत्री बाज का कहना है
गरुड़ का आदेश आकाश में
विष्णु का आदेश है
आकाशीय प्रजा सह रही है
शिकारी पक्षियों का अत्याचार
चिड़िया का गला काट दिया राजा ने
रक्त की छींटे गिर रही हैं
रेगिस्तानी धरा पर
अन्य खुश हैं
विष्णु का आदेश सुन कर
मौसम कोई भी हो
कमजोर....
सदैव कराहते हैं
कर्ज की चोट से
इससे मुक्ति का एक ही उपाय है
अपने एक वोट से
बदल दो लोकतंत्र का राजा
शिक्षित शिक्षा से
शर्मनाक व्यवस्था
पर वास्तव में
आकाशीय सत्ता तानाशाही सत्ता है
इसमें वोट और नोट का संबंध धरती-सा नहीं है
चिट्ठी चिहुँक रही है
चहचहाहट के स्वर में सुबह-सुबह
मैं क्या करूँ?
■
22).
मुसहरिन माँ
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धूप में सूप से
धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते
महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा
और सूँघ मूसकइल मिट्टी में गेहूँ की गंध
जिसमें जिंदगी का स्वाद है
चूहा बड़ी मशक्कत से चुराया है
(जिसे चुराने के चक्कर में अनेक चूहों को खाना पड़ा जहर)
अपने और अपनों के लिए
आह! न उसका गेह रहा न गेहूँ
अब उसके भूख का क्या होगा?
उस माँ का आँसू पूछ रहा है स्वात्मा से
यह मैंने क्या किया?
मैं कितना निष्ठुर हूँ
दूसरे के भूखे बच्चों का अन्न खा रही हूँ
और खिला रही हूँ अपने चारों बच्चियों को
सर पर सूर्य खड़ा है
सामने कंकाल पड़ा है
उन चूहों का
जो विष युक्त स्वाद चखे हैं
बिल के बाहर
अपने बच्चों से पहले
आज मेरी बारी है साहब!
■
23).
कोहारिन काकी की कला
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लटक रहा है
मानस के सिकहर पर
मक्खन से भरा
मथुरा का मार्मिक मटका
इस पर उत्कीर्ण है
कोहारिन काकी की कला।
गंध सूँघ रहा है बन-बिलार
बिल्ली थक कर बैठी है नीचे
मक्खियाँ भिनभिना रही हैं
चूहे चढ़ कर चाट रहे हैं मक्खन
अंततः बन-बिलार फोड़ दिया घर का घड़ा।
पूर्वजों ने ठीक ही कहा है
कला का महत्व मनुष्य जानते हैं
जानवर नहीं।
जानवर तो अपना ही जोतते रहते हैं
काकी ठीक कहती हैं
भूख कला को जन्म देती है।
कुछ भी हो
बन-बिलार बलवान के साथ-साथ चतुर भी है
क्योंकि वह मक्खन और चूहे को एकसाथ खा रहा है।
■
24).
सब ठीक होगा
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धैर्य अस्वस्थ है
रिश्तों की रस्सी से बाँधी जा रही है राय
दुविधा दूर हुई
कठिन काल में कवि का कथन कृपा है
सब ठीक होगा
अशेष शुभकामनायें!
प्रेम ,स्नेह व सहानुभूति सक्रिय हैं
जीवन की पाठशाला में
बुरे दिन व्यर्थ नहीं हुए
कोठरी में कैद कोविद ने दिया
अंधेरे में गाने के लिए रौशनी का गीत
आँधी-तूफ़ान का मौसम है
खुले में दीपक का बुझना तय है
अक्सर ऐसे ही समय में संसदीय सड़क पर
शब्दों के छाते उलट जाते हैं
और छड़ी फिसल जाती है
अचानक आदमी गिर जाता है
वह देखता है जब आँखें खोल कर
तब किले की ओर
बीमारी की बिजली चमक रही होती है
और आश्वासन की आवाज़ कान में सुनाई देती है
गिरा हुआ आदमी ख़ुद खड़ा होता है
और अपनी पूरी ताकत के साथ
शेष सफ़र के लिए निकल पड़ता है!!
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25).
देह विमर्श
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जब
स्त्री ढोती है
गर्भ में सृष्टि
तब
परिवार का पुरुषत्व
उसे श्रद्धा के पलकों पर
धर
धरती का सारा सुख देना चाहता है
घर ;
एक कविता
जो बंजर जमीन और सूखी नदी की है
समय की समीक्षा-- 'शरीर-विमर्श'
सतीत्व के संकेत
सत्य को भूल
उसे बाँझ की संज्ञा दी।
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26).
नदी बीच मछुआरिन
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जलदेवी की तपस्या से
मछुआरे को मिल गया है मोक्ष
नदी बीच स्थिर है नाव
मछुआरिन फेंकती है जब जाल
तब केकड़े काट देते हैं
मछलियाँ कहती हैं
माता मुझे अभी मुक्ति नहीं चाहिए-
नदी से!
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27).
👁️आँख👁️
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1.
सिर्फ और सिर्फ देखने के लिए नहीं होती है आँख
फिर भी देखो तो ऐसे जैसे देखता है कोई रचनाकार
2.
दृष्टि होती है तो उसकी अपनी दुनिया भी होती है
जब भी दिखते हैं तारे दिन में, वह गुनगुनाती है आशा-गीत
3.
दोपहरी में रेगिस्तानी राहों पर दौड़ती हैं प्यासी नजरें
पुरवाई पछुआ से पूछती है, ऐसा क्यों?
4.
धूल-धक्कड़ के बवंडर में बचानी है आँख
वक्त पर धूपिया चश्मा लेना अच्छा होगा
यही कहेगी हर अनुभव भरी, पकी उम्र
5.
आम आँखों की तरह नहीं होती है दिल्ली की आँख
वह बिल्ली की तरह होती है हर आँख का रास्ता काटती
6.
अलग-अलग आँखों के लिए अलग-अलग
परिभाषाएँ हैं देखने की क्रिया की
कभी आँखें नीचे होती हैं, कभी ऊपर
कभी सफेद होती हैं तो कभी लाल !
■
28).
गुढ़ी
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लौनी गेहूँ का हो या धान का
बोझा बाँधने के लिए - गुढ़ी
बूढ़ी ही पुरवाती है
बहू बाँकी से ऐंठती है पुवाल
और पीड़ा उसकी कलाई !
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29).
घिरनी
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फोन पर शहर की काकी ने कहा है
कल से कल में पानी नहीं आ रहा है उनके यहाँ
अम्माँ! आँखों का पानी सूख गया है
भरकुंडी में है कीचड़
खाली बाल्टी रो रही है
जगत पर असहाय पड़ी डोरी क्या करे?
आह! जनता की तरह मौन है घिरनी
और तुम हँस रही हो।
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30).
मेरे मुल्क का मीडिया
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बिच्छू के बिल में
नेवला और सर्प की सलाह पर
चूहों के केस की सुनवाई कर रहे हैं-
गोहटा!
गिरगिट और गोजर सभा के सम्मानित सदस्य हैं
काने कुत्ते अंगरक्षक हैं
बहरी बिल्लियाँ बिल के बाहर बंदूक लेकर खड़ी हैं
टिड्डे पिला रहे हैं चाय-पानी
गुप्तचर कौएं कुछ कह रहे हैं
साँड़ समर्थन में सिर हिला रहे हैं
नीलगायें नृत्य कर रही हैं
छिपकलियाँ सुन रही हैं संवाद-समीक्षा
सेनापति सर्प की
मंत्री नेवला की
राजा गोहटा की....
अंत में केंचुआ किसान को देता है श्रधांजलि
खेत में
और मुर्गा मौन हो जाता है
जिसे प्रजातंत्र कहता है मेरा प्यारा पुत्र
मेरे मुल्क का मीडिया!
■
संक्षिप्त परिचय :-
नाम : गोलेन्द्र पटेल
मूल नाम : गोलेंद्र ज्ञान
जन्म : 5 अगस्त, 1999 ई.
जन्मस्थान : खजूरगाँव, साहुपुरी, चंदौली, उत्तर प्रदेश।
शिक्षा : बी.ए. (हिंदी प्रतिष्ठा) व एम.ए. (अध्ययनरत), बी.एच.यू.।
भाषा : हिंदी व भोजपुरी।
विधा : कविता, नवगीत, कहानी, निबंध, नाटक, उपन्यास व आलोचना।
माता : उत्तम देवी
पिता : नन्दलाल
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन :
कविताएँ और आलेख - 'प्राची', 'बहुमत', 'आजकल', 'व्यंग्य कथा', 'साखी', 'वागर्थ', 'काव्य प्रहर', 'प्रेरणा अंशु', 'नव निकष', 'सद्भावना', 'जनसंदेश टाइम्स', 'विजय दर्पण टाइम्स', 'रणभेरी', 'पदचिह्न', 'अग्निधर्मा', 'नेशनल एक्सप्रेस', 'अमर उजाला', 'पुरवाई', 'सुवासित' ,'गौरवशाली भारत' ,'सत्राची' ,'रेवान्त' ,'साहित्य बीकानेर' ,'उदिता' ,'विश्व गाथा' , 'कविता-कानन उ.प्र.' , 'रचनावली', 'जन-आकांक्षा', 'समकालीन त्रिवेणी', 'पाखी', 'सबलोग', 'रचना उत्सव', 'आईडियासिटी', 'नव किरण' आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित।
विशेष : कोरोनाकालीन कविताओं का संचयन "तिमिर में ज्योति जैसे" (सं. प्रो. अरुण होता) में मेरी दो कविताएँ हैं और "कविता में किसान" (सं. नीरज कुमार मिश्र एवं अमरजीत कौंके) में कविता।
ब्लॉग्स, वेबसाइट और ई-पत्रिकाओं में प्रकाशन :-
गूगल के 100+ पॉपुलर साइट्स पर - 'कविता कोश' , 'गद्य कोश', 'हिन्दी कविता', 'साहित्य कुञ्ज', 'साहित्यिकी', 'जनता की आवाज़', 'पोषम पा', 'अपनी माटी', 'द लल्लनटॉप', 'अमर उजाला', 'समकालीन जनमत', 'लोकसाक्ष्य', 'अद्यतन कालक्रम', 'द साहित्यग्राम', 'लोकमंच', 'साहित्य रचना ई-पत्रिका', 'राष्ट्र चेतना पत्रिका', 'डुगडुगी', 'साहित्य सार', 'हस्तक्षेप', 'जन ज्वार', 'जखीरा डॉट कॉम', 'संवेदन स्पर्श - अभिप्राय', 'मीडिया स्वराज', 'अक्षरङ्ग', 'जानकी पुल', 'द पुरवाई', 'उम्मीदें', 'बोलती जिंदगी', 'फ्यूजबल्ब्स', 'गढ़निनाद', 'कविता बहार', 'हमारा मोर्चा', 'इंद्रधनुष जर्नल' , 'साहित्य सिनेमा सेतु' , 'साहित्य सारथी' , 'लोकल ख़बर (गाँव-गाँव शहर-शहर ,झारखंड)', 'भड़ास', 'कृषि जागरण' ,'इंडिया ग्राउंड रिपोर्ट', 'सबलोग पत्रिका', 'वागर्थ', 'अमर उजाला', 'रणभेरी', 'हिंदुस्तान', 'दैनिक जागरण' इत्यादि एवं कुछ लोगों के व्यक्तिगत साहित्यिक ब्लॉग्स पर कविताएँ प्रकाशित हैं।
प्रसारण : 'राजस्थानी रेडियो', 'द लल्लनटॉप' एवं अन्य यूट्यूब चैनल पर (पाठक : स्वयं संस्थापक)
अनुवाद : नेपाली में कविता अनूदित
काव्यपाठ : अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय काव्यगोष्ठियों में कविता पाठ।
सम्मान : अंतरराष्ट्रीय काशी घाटवॉक विश्वविद्यालय की ओर से "प्रथम सुब्रह्मण्यम भारती युवा कविता सम्मान - 2021" , "रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार-2022" और अनेक साहित्यिक संस्थाओं से प्रेरणा प्रशस्तिपत्र।
मॉडरेटर : 'गोलेन्द्र ज्ञान' , 'ई-पत्र' एवं 'कोरोजीवी कविता' ब्लॉग के मॉडरेटर और 'दिव्यांग सेवा संस्थान गोलेन्द्र ज्ञान' के संस्थापक हैं।
संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com
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--Golendra Patel
BHU , Varanasi , Uttar Pradesh , India
धन्यवाद!
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(दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिए अनमोल ख़ज़ाना)
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